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अब फ़िल्मी भूत डराते कम, हंसाते हैं ज्यादा

हेमंत पाल ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने से फ़िल्मी परदे पर भूत-प्रेत और आत्माओं को दिखाया जाता रहा। कभी इनमें भटकती अतृप्त आत्माओं के किस्से जोड़ दिए जाते, कभी पुनर्जन्म को आत्माओं का हिस्सा बना दिया जाता रहा। लेकिन, फिल्म...
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फोटो : लेखक
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हेमंत पाल

ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने से फ़िल्मी परदे पर भूत-प्रेत और आत्माओं को दिखाया जाता रहा। कभी इनमें भटकती अतृप्त आत्माओं के किस्से जोड़ दिए जाते, कभी पुनर्जन्म को आत्माओं का हिस्सा बना दिया जाता रहा। लेकिन, फिल्म के अंत में सारे राज़ खुल जाते। आत्माएं फिर कभी न लौटने के लिए चली जाती हैं और भूत-प्रेत ख़त्म हो जाते हैं। कभी तंत्र-मंत्र से तो कभी हीरो के टशन से। आधुनिक दौर में भी इन विषयों पर फ़िल्में बन रही और पसंद भी की जा रही हैं। फर्क सिर्फ इतना आया कि अब इसमें मनोरंजन का तड़का लगने लगा। क्योंकि, दर्शक सिर्फ डरने के लिए तो सिनेमा घर तक आएगा नहीं! आज भूतों की कहानियों को कभी कॉमेडी की तरह लिया जाता हैं, कभी बदले की भावना से जोड़ा जाता है। लेकिन, इस तरह की कहानियां कभी पुरानी नहीं पड़ती। डरावनी फिल्मों का ऐसा दौर चला कि राजकुमार राव और श्रद्धा कपूर की फिल्म ‘स्त्री’ ने अपनी हॉरर कॉमेडी से धमाका मचा दिया था। इसके सीक्वल ‘स्त्री 2’ ने तो पहली फिल्म से कहीं ज्यादा दर्शकों को प्रभावित किया। भूतनी को लेकर पहले भी कई सफल फ़िल्में बनी। उसी का बदला हुआ रूप ‘स्त्री’ और ‘स्त्री-2’ में दिखाई दिया। फर्क सिर्फ इतना कि पहले ऐसी फिल्मों में दर्शक डरते भी थे, अब कॉमेडी देख ठहाके लगाते हैं।

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डर को मनोरंजन बनाकर दर्शकों को लुभाने का चलन बहुत पुराना है। कुछ फिल्में डराने में कामयाब रहीं, तो कुछ ने खूब गुदगुदाया। अभी तक ऐसी फिल्मों में चुड़ैलों, डांस करने वाली भूतनी मंजुलिका, भूतनाथ की आत्मा का बच्चे का दोस्त बनना, ज़ॉम्बी से भागते लोग और बहुत कुछ देखने को मिला। अनुष्का शर्मा जैसी नए जमाने की अभिनेत्री ने ‘फिल्लौरी’ बनाकर और उसमें काम करके साबित किया था कि दर्शक वास्तव में क्या देखना चाहते हैं। अनुष्का ने खुद इसमें भूतनी का किरदार निभाया है। फिल्मों में सबसे पहले ऐसा कथानक 1949 में कमाल अमरोही ‘महल’ में लाए थे। अशोक कुमार और मधुबाला की इस फिल्म में नायिका भटकती आत्मा थी। लेकिन, क्लाइमेक्स में पता चलता है कि वो कोई आत्मा नहीं, सही में एक महिला थी। इसके बाद 1962 में फिल्म ‘बीस साल बाद’, 1964 में ‘वो कौन थी’ और 1965 में ‘भूत बंगला’ भी ऐसी ही फ़िल्में थी, जिन्होंने डरा-डराकर मनोरंजन किया।

भटकती आत्माओं को भूत बना दिया

अधिकांश फिल्मों में भूत या भटकती आत्मा को असफल प्यार या बदले की भावना से जोड़ा जाता रहा। साल 1968 में आई फिल्म ‘नीलकमल’ भी आत्मा की कहानी थी, जिसमें एक मूर्तिकार चित्रसेन के काम से खुश होकर राजा उससे वर मांगने के लिए कहता है। चित्रसेन राजकुमारी नील कमल को मांग लेता है। उसके दुस्साहस से क्रोधित होकर राजा उसे दीवार में जिंदा चुनवा देता है। अगले जन्म में जब नील कमल का जन्म सीता के रूप में होता है, तो चित्रसेन की आत्मा उसे रातों में पुकारती है और वह अपना होश खोकर आवाज की तरफ चल देती है। फिल्म में राजकुमार, मनोज कुमार और वहीदा रहमान जैसे कलाकार थे।

सिर्फ बुरे ही नहीं, अच्छे भी होते हैं भूत

बरसों से फिल्मों में भूतों की भूमिका दो तरह से दिखाई जाती रही है- एक बदला लेने वाले, दूसरा मदद करने वाले भूत! 80 और 90 के दशक में ‘रामसे ब्रदर्स’ ने जो फ़िल्में बनाई वो डरावनी शक्ल और खून में सने चेहरों वाले भूतों पर केंद्रित रही। बाद में इन भूतों का अंत त्रिशूल या क्रॉस से होना दिखाया। इस बीच मल्टीस्टारर फिल्म ‘जॉनी दुश्मन’ आई, जिसमें संजीव कुमार ऐसे भूत बने, जो दुल्हन का लाल जोड़ा देख खतरनाक भूत में बदल जाते हैं। फिल्मों के ये भूत नुकसान ही करें, ऐसा नहीं है। कथानकों में ऐसे भी भूत आए, जो सबकी मदद करते हैं। भूतनाथ, भूतनाथ रिटर्न और ‘अरमान’ में अमिताभ बच्चन ने ऐसे भूत का किरदार निभाया। ‘हैल्लो ब्रदर’ में भूत बने सलमान खान अरबाज़ खान के शरीर में आकर मदद करते। ‘चमत्कार’ में नसीरुद्दीन शाह बदला लेने को शाहरुख़ खान की मदद करते हैं। ‘भूत अंकल’ में जैकी श्रॉफ और ‘वाह लाइफ हो तो ऐसी’ में शाहिद कपूर को यमराज बने संजय दत्त की मदद से भला करता दिखाया। ‘टार्ज़न द वंडर कार’ में भी कुछ ऐसी ही कहानी थी। ‘प्यार का साया’ और ‘मां’, दोनों फ़िल्में अच्छे भूतों की थी।

बड़े निर्देशकों ने भी ऐसी फ़िल्में बनाई

विक्रम भट्ट जैसे बड़े फिल्मकार भी ऐसी फिल्म बनाने के मोह से बच नहीं सके! उन्होंने ‘राज़’ की सफलता के बाद तो इसके कई सीक्वल बना डाले। उन्होंने 1920, 1920-ईविल रिटर्न, शापित और ‘हॉन्टेड’ में आत्माओं के दीदार करवाए! 2003 में अनुराग बासु जैसे निर्देशक ने भी ‘साया’ जैसी फिल्म बनाई। रामगोपाल वर्मा जैसे प्रयोगधर्मी निर्देशक ने तो ‘भूत’ टाइटल से ही फिल्म बना दी। इसके बाद फूंक, फूंक-2, डरना मना है, डरना ज़रूरी है, वास्तु शास्त्र, भूत रिटर्न में भी हाथ आजमाए। आदित्य सरपोतदार निर्देशित फिल्म ‘मुंज्या’ हॉरर-कॉमेडी फिल्म है। फिल्म एक शरारती आत्मा पर केंद्रित है, जो एक लड़के से शुरू होती है, जो काला जादू करते समय गलती से एक दुष्ट आत्मा को बंधन से मुक्त कर देता है। इसी निर्देशक की एक और फिल्म ‘ककुड़ा’ भी हॉरर-कॉमेडी फिल्म थी। प्रियदर्शन की फिल्म ‘भूल भुलैया’ (2007) में अक्षय कुमार, विद्या बालन और शाइनी आहूजा ने अभिनय किया। इस फिल्म में मंजुलिका नाम की भूतनी डराती है। फिल्म के सीक्वल ‘भूल भुलैया-2’ (2022) में भी मंजुलिका की ही कहानी है, पर नायक और नायिका बदल गए। सीक्वल का निर्देशन अनीस बज्मी ने किया और कार्तिक आर्यन और कियारा आडवाणी नायक-नायिका हैं। राजकुमार राव और जाह्नवी कपूर की हॉरर-कॉमेडी फिल्म ‘रूही’ का निर्देशन हार्दिक मेहता ने किया।

सच्ची कहानियों पर डरावनी फ़िल्में

फिल्म इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो कई हॉरर फिल्में बनी और खूब चली। कुछ सुपरहिट हुईं तो कुछ को दर्शकों ने नकार दिया। कई डरावनी फिल्में कथित सच्ची कहानियों पर बनाई गई। विक्की कौशल की फिल्म ‘भूत 1’ की कहानी मुंबई के जुहू बीच पर खड़े एक कार्गो शिप की सच्ची घटना पर आधारित थी। अक्षय कुमार की ‘भूल भुलैया’ भी एक बंगाली लड़की की सच्ची कहानी पर बेस्ड थी। इसी तरह राजकुमार राव की फिल्म ‘रागिनी एमएमएस’ भी दिल्ली की एक लड़की पर बनी। राजकुमार राव की एक और फिल्म ‘स्त्री’ भी कर्नाटक के नाले बा की रियल स्टोरी पर है। कुणाल खेमू की ‘ट्रिप टू भानगढ़’ में जो घटनाएं दिखाई गई जो वास्तव में घटी थी। उर्मिला मातोंडकर की फिल्म ‘भूत’ भी मुंबई में रहने वाले एक दंपति की रियल स्टोरी पर थी। दर्शकों को ऐसी फ़िल्में इसलिए पसंद आती है, क्योंकि इनमें सस्पेंस के साथ नई तरह का पेंच होता है, जो दूसरे फ़िल्मी कथानकों से अलग होता है। यही वजह है कि हर दौर में ये फ़िल्में बनती रही हैं और बनती रहेंगी।

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