क्षमा शर्मा
कई साल पहले की बात है। इस लेखिका की एक मित्र के पेट में दर्द रहता था। वर्षों से इलाज चल रहा था। एलोपैथी से लेकर आयुर्वेदिक, होमियोपैथी, हर तरह से इलाज किया। थोड़े दिन तो आराम मिल जाता, मगर फिर परेशानी जस की तस बनी रहती। एक डाॅक्टर ने कहा कि उन्हें यह समस्या तनाव के कारण है। वह लम्बे समय तक तनाव कम करने की दवाएं खाती रहीं। पेट की समस्या तो हल नहीं हुई, उल्टे नींद की समस्या अलग से लग गयी। अब जब भी तनाव से संबंधित दवाएं छोड़ने की कोशिश करतीं उन्हें नींद आनी बंद हो जाती। तब उनकी एक रिश्तेदार की डॉक्टर ने उनसे कहा कि वह तनाव को लेकर जो दवाएं खा रही हैं, उन्हें एकदम बंद कर दें। बेहतर है कि योग करें। तनाव दूर करने का योग से अच्छा कोई इलाज नहीं है। महिला दवा खा-खाकर परेशान हो गई थीं। उन्होंने सुबह-शाम योग करना शुरू किया तो नींद आने लगी। पेट की समस्या में भी कुछ आराम मिला, लेकिन पूरी तरह से नहीं।
उनकी बहन की बेटी का हरियाणा में विवाह था। वह वहां गईं। बहन को उनकी समस्या का पता था। बहन ने कहा कि विवाह संपन्न हो जाए फिर वह उन्हें एक जगह ले चलेंगी। शादी के बाद बहन उन्हें बाजार में एक आदमी के पास ले गईं। उसका हेयर कटिंग सैलून था। उसने महिला को लिटाया। उनकी नाभि के ऊपर छूकर देखा। फिर कहा, इनकी तो नाब उतरी हुई है। फिर उसने नाभि के आसपास गोल-गोल घुमाया। कुछ झटके दिए और कहा कि अब कुछ मीठा खा लो। जब उस व्यक्ति से पैसे लेने के लिए कहा गया तो उसने हाथ जोड़ दिए। बोला कि यह विद्या तो उसे भगवान ने लोगों का भला करने के लिए दी है। इसका पैसा नहीं लेना।
नाब या नाभि के बारे में कहा जाता है कि इसके नीचे हमारी सारी नसों का जाल होता है। अगर यह उतर जाए तो पेट कभी ठीक नहीं रहता। मेडिकल साइंस में इसका कोई जिक्र नहीं मिलता है। लेकिन नाब को ठीक करने वाले शहर-शहर मिलते हैं और इसके उतरने के नुकसान भी बताते हैं। लोगों को इससे लाभ भी मिलता है। अब उन महिला का हाल यह है कि जब भी उन्हें पेट की कोई समस्या होती है, वह अपनी बहन के घर जाकर उसका इलाज कराती हैं। इसी तरह बच्चों को अगर दस्त की समस्या हो जाए तो उनकी रीढ़ की हड्डी के नीचे हाथ मारकर कौड़ी चढ़ाने की प्रथा भी पाई जाती है। हम-आपने बचपन में देखा है कि कैसे घर के बुजुर्ग अपने बेटों या नाती-पोतों से पांव दबवाते थे। शरीर के किसी हिस्से में दर्द हो जाता था, तो वहां बच्चों को खड़ा करवाकर चलवाते थे। यह एक तरह से एक्यूप्रेशर की पद्धति ही थी। हम में से बहुत से लोग इस तरह की बातों को अंधविश्वास कहते हैं। इनका कोई वैज्ञानिक आधार न होने के कारण इनकी हंसी उड़ा सकते हैं। झोला छाप भी कहा जा सकता है।
विदेशों में भी है खूब प्रचलन
बेशक कहा कुछ भी जाये, लेकिन इस तरह की चिकित्सा पद्धतियां समाज में अपनी जगह बनाए हुए हैं। और न केवल भारत में, बल्कि यूरोप में भी। यूरोप जिसके बारे में हम समझते हैं कि वहां जो कुछ भी होता है, पहले लैब में जाता है। यदि वहां से स्वीकृत हो जाये तभी इलाज के रूप में जगह मिल पाती है।
स्विट्जरलैंड में सीक्रेट नाम की चिकित्सा पद्धति को 2012 में यूनेस्को ने कल्चरल हेरिटेज में स्थान दिया था। इसके बारे में कहा जाता है कि इससे गम्भीर रूप से जले लोगों के दर्द में बहुत कमी आती है। लूजान के बर्न सेंटर में एक अध्ययन भी किया गया था जिसमें मरीजों और स्वास्थ्य के लिए काम करने वाले बहुत से लोगों को शामिल किया गया था। स्वास्थ्य के लिए काम करने वाले बहुत से कर्मचारियों, नर्सों, पैरामेडिकल स्टाफ यहां तक कि डॉक्टरों को इसके बारे में पता था। बहुतों का इस पर पूरा विश्वास भी था। उनका यह भी कहना था कि इससे जले की जलन और दर्द में बहुत राहत मिलती है। बहुत से कर्मचारियों ने यह भी कहा कि इसका अधिक से अधिक प्रयोग किया जाना चाहिए जिससे कि मरीजों को राहत मिल सके। क्योंकि हर इलाज का मकसद मरीज की तकलीफ को ही कम करना होता है। बस एक नर्स ने माना कि यह पद्धति ठीक नहीं, बल्कि खतरनाक है। बहुत से मरीजों ने यह भी कहा कि हालांकि यह पद्धति अस्पतालों और डॉक्टरों के पास मिलने वाले इलाज का विकल्प नहीं है, लेकिन इसकी मदद से अगर मरीज को आराम मिलता है, तो क्यों न इसकी मदद ली जाए। यहां के लोगों को अपनी पारंपरिक दवाओं पर काफी भरोसा है। यहां की चिकित्सा से जुड़ी बीमा कम्पनियां भी इसके महत्व को मानती हैं बल्कि लूजान की फैकल्टी आॅफ बायलोजी में 2009 में इस तरह का एक कोर्स भी शुरू किया गया था।
न केवल स्विट्जरलैंड बल्कि फ्रांस और इटली में भी इस तरह की चिकित्सा पद्धतियां मौजूद हैं। फ्रांस में इसे सीक्रेट मेकर्स कहा जाता है। अंग्रेजी में बैरियर अगेन्स्ट फायर नाम से भी पुकारा जाता है। इन इलाज करने वालों के पास किसी तरह का डिप्लोमा या सर्टिफिकेट नहीं होता। एक तरह से इसे ईश्वर प्रदत्त ही कहा जाता है। ये बातचीत और टेलीफोन से इलाज करते हैं। पैसे नहीं लेते। बहुत से अस्पताल भी इनसे संबंधित जानकारी और फोन नंबर्स आदि रखते हैं और जरूरत पड़ने पर मरीजों की सहायता करते हैं।
हां ये जरूर है कि ये इलाज करने वाले चाहते हैं कि समय-समय पर उन्हें मरीज की प्रगति के बारे में जरूर बताया जाए। और हो सके तो धन्यवाद के दो शब्द भी कहे जाएं जिससे कि औरों को भी इसमें भरोसा हो सके और वे इनकी मदद ले सकें, उनकी मदद करके उन्हें राहत पहुंचाई जा सके। ये सिर्फ जले का ही नहीं बल्कि तनाव, माइग्रेन, आदि का भी इलाज करते हैं। इस बारे में लिखने का मकसद किसी भी तरह का अंधविश्वास फैलाना नहीं है, बल्कि लोगों को दुनिया भर में मौजूद ऐलोपैथी से इतर, चिकित्सा पद्धतियों के बारे में बताना है।