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सामाजिक जिम्मेदारी भी है फिल्म निर्माताओं की

हृषिकेश मुखर्जी : पुण्यतिथि 27 अगस्त

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दीप भट्ट

हृषिकेश मुखर्जी भारतीय फिल्मोद्योग के उन शीर्ष और संवेदनशील फिल्मकारों में थे जिनके लिए सिनेमा सिर्फ धन कमाने का माध्यम नहीं बल्कि समाज को शिक्षित और संस्कारित करने का एक महत्वपूर्ण औजार था। यही वजह थी कि उनकी फिल्में गहरे सामाजिक सरोकारों से जुड़ी होती थीं। उनसे उनकी मृत्यु पूर्व बांद्रा कार्टर रोड स्थित घर में फिल्मों में आये बदलाव को लेकर हुई बातचीत के अंश :

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आपसे पहले बिमल रॉय और गुरुदत्त के जमाने से एक अच्छे सिनेमा की धारा शुरू हुई, आपने भी अनाड़ी, सत्यकाम, आनंद, मिली और बावर्ची जैसी फिल्में बनाईं। पर अब यह धारा सूख सी क्यों गई?

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कंज्यूमरिज्म आ गया न। सब कुछ पैसे से बदल गया है। पहले हम सोचते थे, जो आर्टिस्ट हैं, राइटर्स हैं, म्यूजिशियंस हैं, पेंटर हैं और जो फिल्म बनाते हैं वो समाज का विवेक है। उनकी एक रिस्पांसिबिलिटी है सोसाइटी की तरफ । अब तो एक ही मकसद है, पैसा कमाना।

आपके जमाने में फिल्मों में अच्छी कहानियां होती थीं और मधुर गीत-संगीत भी। पर अब इतनी तब्दीली क्यों?

हमारे टाइम पर लिट्रेचर बेस्ड थी फिल्म। न्यू थिएटर्स की फिल्में लिट्रेचर बेस्ड होती थीं। बिमल दादा से भी पहले से यह सिलसिला शुरू हो गया था। जो लोग पिक्चर बनाते थे, मूल्यबोध था उनमें।

इन मेकर्स की सबसे बड़ी खासियत क्या लगती है आपको?

जिन्दगी को खूबसूरत होना चाहिए। पैसा सब कुछ नहीं है। पैसे से बड़ी चीज है जमीर। अब निन्यानवे परसेंट पिक्चर्स का एक ही मकसद है, पैसा कमाना।

पहले की फिल्मों में एक मैसेज हुआ करता था। काफी अर्थपूर्ण फिल्में थीं। अब शायद ही कोई ऐसी फिल्म बनती है, जो दर्शक को सोचने को विवश करे?

अभी फिल्म सोचने की नहीं सिर्फ देखने की चीज है। गाना भी अब सुनने की नहीं, देखने की चीज हो गया। इसे रोकना मुश्किल है।

आपके जमाने का समाज कैसा था?

हमारे जमाने में पिताजी कहते थे, देखो यह गांधी जी हैं, यह खान अब्दुल गफ्फार खान हैं, यह सुभाष चन्द्र बोस हैं, यह लाल बहादुर शास्त्री हैं। ऐसा होना पड़ेगा जिन्दगी में। हमारे सामने एक आइडियल था बचपन में। अब आप किसका नाम लेंगे कि ऐसा होना चाहिए। बाबा आम्टे, मेधा पाटेकर, सुंदर लाल बहुगुणा दो-तीन आदमी का नाम ले सकते हैं। तो कोई आइडियल भी नहीं है बच्चों के सामने।

आपने जितनी भी फिल्में बनाईं, उनमें जो मानवीय मूल्य दिए, वे कभी पुराने नहीं पड़े। बावर्ची का ही उदाहरण लें तो उसका केन्द्रीय पात्र रषु कैसे एक फैमिली में जाकर उसके सारे टेंशन दूर कर देता है। क्या है इन फिल्मों की ताजगी का राज़?

बावर्ची तो यूटोपिया है। कुछ ऐसा समझिए अगर वह होता तो होने से बहुत अच्छा होता। हमारी सबसे अच्छी फिल्म है, सत्यकाम। दादा मुनि अशोक कुमार ने जब इस फिल्म की स्क्रिप्ट सुनी तो वो फिल्म करने के लिए एग्री नहीं हुए थे। बोले कि सच बोलने की सजा यह है कि नायक कैंसर से मरेगा। तो हम सच बोलने वाला नहीं। तो मैंने कहा कि आप सच मत बोलिए। झूठ बोलिए, आप डायरिया से मरेंगे। मरना तो एक दिन है तो क्या फर्क पड़ता है, कैंसर से मरे या डायरिया से। बड़ी बात यह कि आप अपनी वैल्यू लेकर मरें। यह सुनकर दादा मुनि फिल्म करने को तैयार हो गए।

आज का माहौल देखकर कैसा लगता है?

ऊपरवाला नहीं है। मुझे तो नहीं लगता। अगर होता तो जो लोग दुनिया खराब कर रहे हैं, उन्हें सजा क्यों नहीं दे रहे वह।

आपके जमाने में तो एक से बढ़कर एक एक्टर थे। क्या एक्टर निर्माता-निर्देशकों को सार्थक फिल्में बनाने के लिए मजबूर नहीं कर सकते?

हमारे जमाने में देव आनन्द, राज कपूर और दिलीप कुमार जैसे एक्टर थे। एक-दूसरे के लिए जान देते थे सब। दिलीप कुमार ने तो मुझे डॉयरेक्टर बनाया मुसाफिर से। वे ऐसे एक्टर थे, जो चाहते थे कि अच्छी फिल्म बने, समाज के सामने आए। खुद पैसा लेना है तो नहीं लेंगे लेकिन सोचते थे कि अच्छा थॉट लोगों के बीच जाना चाहिए।

आपकी फिल्मों में गीत-संगीत का जबरदस्त योगदान रहा है, पर आज फिल्मों में इन दोनों पक्षों में गिरावट आई है। क्या कारण है?

हमारे टाइम में पोयट्स होते थे। शैलेन्द्र थे, उसके बाद साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी थे, कैफी आजमी थे। ये लोग कवि थे। आजकल के गाने की वर्डिंग क्या है-तू मेरा, तू मेरा, तू मेरा हीरो नंबर वन। पहले के गानों के गीतकार ऊहापोह में रहते थे कि किस भावना को रोक दें, किस को ले लें। किस शब्द को लेने से भाव बदल जाएगा, किस को लेने से भाव ठीक रहेगा, ये तक सोचते थे।

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