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पुरस्कार से बढ़ा हौसला : सृष्टि

अरुण नैथानी जलवायु परिवर्तन और रोजगार के संकट के चलते भयावह पलायन का दर्द झेलते पर्वतीय जनजीवन की टीस उकेरने वाली एक घंटे की गैर फीचर फिल्म ‘एक था गांव’ हालिया राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में स्वर्ण कमल हासिल करके सुर्खियों...

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अरुण नैथानी

जलवायु परिवर्तन और रोजगार के संकट के चलते भयावह पलायन का दर्द झेलते पर्वतीय जनजीवन की टीस उकेरने वाली एक घंटे की गैर फीचर फिल्म ‘एक था गांव’ हालिया राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में स्वर्ण कमल हासिल करके सुर्खियों में आ गई। फिल्म की परिकल्पना करने वाली, निर्माता व निर्देशक सृष्टि लखेड़ा इस सम्मान को पाकर खासी उत्साहित हैं। वह इस बात को लेकर प्रफुल्लित हैं कि उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहचान ही नहीं मिली बल्कि उनके काम को मान्यता भी मिली है। यहां तक कि उत्तराखंड के फिल्म डिवीजन विभाग ने उनसे संपर्क साधा है और भविष्य की फिल्मों के लिये सहयोग का वायदा किया है। एक समय था कि फिल्म बनाने के वक्त सृष्टि ने तमाम विभागों से संपर्क करना चाहा,लेकिन संपर्क करने तक में कोई सफलता न मिली।

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ऐसे जगी रुचि निर्देशन-निर्माण में

उत्तराखंड में ऋषिकेश में एक चिकित्सक डॉ. के.एन. लखेड़ा की बेटी सृष्टि जब अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी करके दिल्ली विश्वविद्यालय पढ़ने गई तो उसे फिल्म निर्माण के बारे में कोई जानकारी न थी। उसका आकर्षण पत्रकारिता व मास कम्युनिकेशन की तरफ तो था, मगर कभी फिल्म बनाएगी ऐसा सोचा न था। फिर पढ़ाई के दौरान उसने सहपाठियों को डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाते देखा और उनके साथ अभिनय का मौका मिला। लेकिन सृष्टि को लगा है कि पर्दे के पीछे निर्देशन व निर्माण की दुनिया ज्यादा रोचक है। उसके बाद दिल्ली में पढ़ाई के दौरान उसने कई नुक्कड़ नाटक, शॉर्ट फिल्म व थियेटर किया।

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गांव के प्रति संवेदना

फिर पहाड़ के सरोकारों से जुड़ी सृष्टि ने पलायन के दर्द झेलते एक ऐसे गांव की कहानी पर फिल्म बनायी जहां गांव में एक अस्सी साल की महिला व एक किशोरी ही बची है। इसकी शूटिंग कोरोना काल के दौरान हुई। सृष्टि बताती है कि उसके पास संसाधन नहीं थे, कुछ घर की मदद और लोगों से पैसे जुटाकर किसी तरह इस फिल्म का निर्माण किया। इस विषय के चयन के बारे में सृष्टि बताती है कि यह उनका मूल गांव था, वे कालांतर ऋषिकेश में बस गये, लेकिन गांव से जुड़ाव लगातार बना रहा। मैंने उस एकाकी वृद्धा व लगातार खाली होते गांव के दर्द को गहरे तक महसूस किया।

अब दर्शाएंगी पहाड़ की महिलाओं का संघर्ष

अभी भी सृष्टि ऐसी फिल्मों पर काम कर रही है जो शिवालिक पर्वत शृंखला के इलाकों में सामाजिक व सांस्कृतिक संकटों को दर्शाती हैं। ऐसी एक पचास मिनट की फिल्म सिंगापुर के एक चैनल के लिये कर रही हैं। हिमालयी इलाके में मानव जीवन के संकट और उनके संघर्ष को दर्शाती है। इस फिल्म ‘द लास्ट डिफेंडर’ के अंतर्राष्ट्रीय फलक पर आने को लेकर सृष्टि खासी उत्साहित हैं। इस फिल्म में आम जीवन से जुड़े मुद्दों के लिये महिलाओं की जद्दोजहद का जिक्र है। दरअसल, इस फिल्म में उत्तराखंड के चमोली जनपद के एक महिला मंगल दल के संघर्ष को दर्शाया गया है जो जीवन के आधारभूत अधिकारों के लिये पिछले एक साल से आंदोलनरत हैं। जिनकी जल-जमीन व जंगलों का अस्तित्व बड़े उद्योगों व जल परियोजनाओं के चलते खतरे में आता नजर आ रहा है। यह फिल्म पचास मिनट में इन महिलाओं की जिजीविषा व जीवन की कठिनाइयों का जीवंत बिंब उकेरती है। सृष्टि बताती है कि वे भविष्य में इस इलाके के सामाजिक व सांस्कृतिक संकट को उजागर करने वाले मुद्दों पर फिल्म निर्माण से जुड़ी रहेंगी। फिलहाल सृष्टि मुंबई में भविष्य की योजनाओं को मूर्तरूप देने के लिये प्रयासरत हैं।

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