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सदियों में पैदा होता है राजकुमार सा किरदार

तीन जुलाई पुण्यतिथि

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दीप भट्ट

जाने-माने अभिनेता राजकुमार का भारतीय फिल्मोद्योग में एक आला मुकाम था। उनकी ज्यादा चर्चा उनकी डॉयलाग डिलीवरी को लेकर होती है पर वास्तव में वे एक अद्भुत अभिनेता थे। उनके व्यक्तित्व के तमाम पहलुओं के बारे में उनके पुत्र और अदाकार पुरु राजकुमार से बातचीत।

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माता-पिता के साथ बचपन की यादें किस तरह की हैं?

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बड़ी मीठी यादें हैं बचपन की मेरी माता-पिता के साथ। छुट्टियों में पिता और मां के साथ कश्मीर और मुंबई में गुजरा। पिताजी गोल्फ खेलने के बेहद शौकीन थे। उन्हें घुड़सवारी का बहुत शौक था। तो उनके साथ गोल्फ भी खेलते थे और घुड़सवारी भी करते थे। पढ़ाई के वक्त पढ़ाई करते थे। छुट्टियों के वक्त पिताजी साथ रहते ही थे।

आपके पिता फिल्मों में थे तो स्वाभाविक है घर का माहौल फिल्मी होगा?

घर पर कोई फिल्मी मैगजीन तक नहीं आती थी। हां फिल्में देखते सभी थे। शौक भी था। नार्मल एक्टर की हैसियत से कभी-कभार काम घर आ जाया करता है पर पिताजी ऐसा तनाव घर नहीं लाते थे। जहां तक मेरी मां के स्वभाव की बात है तो वह किसी को भी गलत नहीं कहती।

एक एक्टर और एक फैमिली मैन के रूप में आप अपने पिता का किस तरह मूल्यांकन करते हैं?

अगर आपको राजकुमार साहब को संपूर्णता में समझना है तो आपको उन्हें तीन किरदारों में देखना पड़ेगा। एक पिता की हैसियत से, दूसरा पति की हैसियत से और तीसरा एक एक्टर की हैसियत से। परिवार में हम लोगों की लिविंग बहुत सिम्पल थी। शोशेबाजियों में न तो पिता थे और न मां थी। मां तो एकदम घरेलू औरत है। फिल्मों के बारे में पूछो तो उन्हें कोई मतलब नहीं। जहां तक पिताजी की निजी सोच और व्यक्तित्व की बात है तो उनकी सीख बड़ी सीधी थी कि जब भी कुछ करोगे एक अच्छा इन्सान बनने की कोशिश करना।

राजकुमार साहब की कौन सी फिल्में आपको बहुत अजीज हैं?

एक अभिनेता के तौर पर मुझे उनकी ‘बुलन्दी’ बहुत पसंद आई थी। ‘कर्मयोगी’ और ‘वक्त’ बहुत पसंद हैं। मुझसे पूछें तो मुझे उनका हर एक किरदार बहुत पसंद है पर हां एक फिल्म थी उनकी ‘दिल का राजा’ वह मुझे पसंद नहीं थी। अगर आप उनकी ‘गोदान’ या ‘छत्तीस घंटे’ या ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ की बात करते हैं अथवा ‘दिल एक मंदिर’ या फिर ‘वक्त’ की तो इन सब फिल्मों में उनके भिन्न-भिन्न किरदार हैं और किरदारों के हिसाब से ही उनकी एक्टिंग है। पर हां ‘वक्त’ के बाद देखें तो एक एक्टर की स्टाइल निकल पड़ती है। जहां तक उनसे सीखने की बात है तो एक बेटे की हैसियत से मैंने अब तक जितनी भी पिक्चरों में काम किया है उनमें हर किरदार एक-दूसरे से जुदा है।

क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि राजकुमार जहां लाउड नहीं हैं वहां उनके अभिनय का सर्वश्रेष्ठ नजर आता है?

जितने पावरफुल उनके डॉयलाग होते थे उतनी ही पावरफुल उनकी खामोशी भी। आप ‘मदर इंडिया’ देखें या ‘मर्यादा’ या दिल ‘एक मंदिर’ या ‘नीलकमल’ , उनका मौन बोलता है। डॉयलाग डिलीवरी, एक तो एक्टर का टैलेंट हो गया। अगर आप इन्हीं फिल्मों में किसी दूसरे एक्टर को डालना चाहें तो नहीं डाल सकते।

उनकी कौन सी फिल्मों के शॉट आपकी स्मृतियों का हिस्सा बने हुए हैं?

उनके बहुत से शॉट हैं जो मुझे बेहद अजीज हैं। ‘लाल पत्थर’ में हेमा मालिनी के साथ उनके कई शॉट अद्भुत हैं। ‘सौदागर’ का एक दृश्य है जिसमें दिलीप साहब नदी किनारे चिल्ला रहे हैं और वे खिड़की से देख रहे हैं दिलीप साहब को। आप गहराई से देखिए उस सीन को, उसमें उनकी खामोशी बोलती है। ‘बुलन्दी’ का उनका कॉलेज से इस्तीफा देकर आने वाला सीन अद्भुत है।

राजकुमार साहब पैदाइशी राजकुमार थे या उनकी फिल्मों में ताकतवर छवि एक प्रोसेस में बनी?

यह इतना आसान नहीं है। किसी भी किरदार को उसके सामने व आसपास के किरदार भी पावरफुल बनाते हैं। इससे भी बड़ी बात है किरदारों का को-रिलेशन। लेकिन राजकुमार पैदा होता है बनाया नहीं जा सकता। मेरे पिता पैदाइशी राजकुमार थे। अपने मिजाज में, अपने तौर-तरीकों और अपने व्यक्तित्व में।

आप अपने पिता को कितना जान-समझ पाए?

राज साहब बड़े प्राइवेट और पर्सनल किस्म के आदमी थे। प्राइवेसी की बहुत महत्ता थी उनके लिए। यह मेरा समझना है, लेकिन इस संबंध में कभी बात नहीं हुई मेरी पिता से। जब वे फिल्म इंडस्ट्री में आए तो उन जैसे लोग वहां थे। जैसे-जैसे इंडस्ट्री बढ़ती गई, ऐसे लोग कम होते गए।

राजकुमार साहब के रूख्ो व्यवहार के किस्से आम हैं। कितनी सत्यता है इन बातों में?

वे किसी का रोल कटवाने वाले इन्सान नहीं थे। झूठी बात उनको पचती नहीं थी। कभी उनका रोल काटा जाता तो उन्हें गुस्सा आता ही था। वे चुप रहने वालों में भी नहीं थे। फौरन रिएक्ट करते थे।

राजकुमार अपने दोस्तों या अन्य तमाम लोगों से क्या जॉनी वास्तव में बोलते थे?

यह सच है कि अपने अजीज दोस्तों को वे अकसर जॉनी कहकर बुलाते थे, पर मैंने उनसे कभी यह नहीं पूछा कि यह तकिया कलाम कैसे उनकी जुबान पर चढ़ गया।

राजकुमार साहब की क्रीमेशन पर भारतीय फिल्मोद्योग का कोई भी व्यक्ति मौजूद नहीं था। क्या वे ऐसा कहकर गए थे?

वह बहुत ही कठिन समय था हम लोगों के लिए। उन दिनों एक बात उठी थी घर में। पूछा था उन्होंने अगर मैं नहीं रहा कल के दिन, तो क्या सबको बताएं या न बताएं। तब यही कहा था उन्होंने-मौत बहुत पर्सनल बात होती है। मौत को सर्कस नहीं बनाया जाना चाहिए। हमने उनकी इसी इच्छा का सम्मान किया। वे मौत को सर्कस नहीं बनाना चाहते थे। जो उनके फैन हैं, उनके चाहने वाले हैं, वे उनको आज भी प्यार करते हैं।

सभी फोटो लेखक ने उपलब्ध कराए हैं।

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