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सार्थक आयु

एकदा

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उम्रदराज संत बायजीद अपने जीवन के उत्तरार्ध में जरूरतमंदों की सेवा और परोपकार में व्यस्त थे। उन्हें जहां भी किसी रोगी या संकटग्रस्त व्यक्ति की सूचना मिलती, वे तुरंत सेवा के लिए पहुंच जाते। वे मरीजों को दवा देते और साथ ही उनकी पूरी देखभाल करते। जो श्रद्धालु उनके दर्शन के लिए आते, उन्हें वे सेवा भावना से काम करने और तामसिक जीवन से दूर रहने का उपदेश देते थे। एक दिन एक श्रद्धालु ने उनसे पूछा, ‘संत जी, आपकी उम्र क्या है?’ इस पर संत बायजीद मुस्कराते हुए उत्तर देते हैं, ‘पांच वर्ष।’ श्रद्धालु ने आश्चर्यचकित होकर पूछा, ‘आपका शरीर तो ढल गया है और बाल भी सफेद हो गए हैं, फिर आपकी उम्र पांच वर्ष कैसे?’ संत बायजीद मुस्कराते हुए जवाब देते हैं, ‘मेरे जीवन के सात दशक सांसारिक कार्यों में व्यर्थ ही निकल गए। पिछले पांच वर्षों में ही मुझे प्रभु साधना और जरूरतमंदों की सेवा के महत्व का अहसास हुआ। अतः मैं इन पांच वर्षों को ही अपनी सार्थक आयु मानता हूं।

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