पाठकों को आमंत्रण
जन संसद की राय है कि पहाड़ी इलाकों में पर्यावरण संरक्षण, जल निकासी और आपदा जोखिम को ध्यान में रखते हुए टिकाऊ, सुरक्षित तथा पारंपरिक भवन निर्माण आवश्यक है।
तार्किक हो निर्माण
जलवायु परिवर्तन के कारण पहाड़ों में भवन निर्माण सोच-समझकर होना चाहिए। स्थानीय मिट्टी, पर्यावरण और जलवायु के अनुसार निर्माण सामग्री और तकनीक अपनाएं। इमारतों की ऊंचाई सीमित रखी जाए और ढलान के अनुसार निर्माण हो ताकि जल निकासी बाधित न हो। पुराने भवनों की समय-समय पर मरम्मत जरूरी है। पारंपरिक ज्ञान का उपयोग कर ही सुरक्षित, स्थायी और पर्यावरण-संवेदनशील निर्माण संभव है, जिससे आपदाओं से बचा जा सके और संतुलित विकास हो।
अभिलाषा गुप्ता, मोहाली
बहुमंजिला इमारत न बने
सुरक्षित पहाड़ी भवनों के लिए स्थानीय भू-परिस्थिति और पारंपरिक तकनीकों का पालन जरूरी है। निर्माण स्थल का भू-वैज्ञानिक परीक्षण हो और घर ढलान के अनुसार बनें ताकि जल निकासी बनी रहे। पत्थर, लकड़ी, मिट्टी जैसी स्थानीय सामग्रियों का प्रयोग टिकाऊ है। बहुमंजिला भवनों से बचें और छतें ढलानदार हों। वर्षा जल संग्रह, हरियाली संरक्षण और निर्माण नियमोंं के पालन से पहाड़ों में इकोफ्रेंडली व सुरक्षित आवास संभव हो सकता है।
अमृतलाल मारू, इंदौर
सुचारु जल निकासी
मानसूनी बारिश से पहाड़ों में मकानों के धराशायी होने का प्रमुख कारण बरसाती पानी के निकासी मार्गों का अवरुद्ध होना है। दूसरा कारण यह है कि मकानों का निर्माण बहुत सटाकर और अव्यवस्थित ढंग से किया जाता है, कभी-कभी जल निकासी के प्राकृतिक रास्तों पर भी। यदि मकान कम मंजिला, पर्याप्त दूरी पर और योजनाबद्ध ढंग से बनाए जाएं, तो पहाड़ी क्षेत्रों में घरों को सुरक्षित रखना सरल होगा और प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली हानि से प्रभावी रूप से बचा जा सकेगा।
अक्षित गुप्ता, रादौर, यमुनानगर
असंतुलन से क्षति
प्रकृति और पहाड़ों के साथ सामंजस्य में रहना ही मानव का वास्तविक हित है। अवैध और असंवेदनशील निर्माण प्राकृतिक असंतुलन और विनाश का कारण बनते हैं। भवन निर्माण के लिए ऐसे स्थल चुनें जहां भूस्खलन, बाढ़ व हिमस्खलन का खतरा न हो। ढलवां छतें, मजबूत नींव और स्थानीय सामग्रियों जैसे पत्थर, लकड़ी का उपयोग करें। बिजली-पानी के लिए ऑफ-ग्रिड सिस्टम अपनाएं। पारंपरिक निर्माण शैली ही पहाड़ी जीवन को सुरक्षित, पर्यावरण के अनुकूल, आपदा-रोधी और दीर्घकालिक रूप से टिकाऊ बना सकती है।
गजानन पांडेय, हैदराबाद
वैज्ञानिक उपाय अपनाएं
पहाड़ी इलाकों में भवन निर्माण से पहले आपदा संवेदनशीलता का आंकलन जरूरी है। स्थानीय परिस्थिति, ढलान, जल निकासी और मजबूत नींव पर ध्यान दें। पहाड़ी क्षेत्र चूंकि भू-स्खलन प्रवण होते हैं इसलिए भू-स्खलन संभावित क्षेत्रों से दूरी बनाएं और भू-तकनीकी जांच जरूर कराएं। ढलवां छत, मौसम अनुरूप डिज़ाइन और मिट्टी परीक्षण भवन की स्थायित्व व सुरक्षा में सहायक हैं। पारंपरिक व वैज्ञानिक उपायों का समन्वय कर ही पहाड़ों में सुरक्षित, टिकाऊ, सुलभ और आपदा-रोधी आवास बनाए जा सकते हैं जो दीर्घकालिक हित में हो।
ईश्वर चंद गर्ग, कैथल
पुरस्कृत पत्र
विकास की नई परिभाषा
शिमला में इमारत गिरने की घटना ने चेताया है कि हमने प्राकृतिक बहाव व स्थायित्व को नजरअंदाज कर भारी निर्माण किया है। पहाड़ों को काटकर बनाई गई चौड़ी सड़कों और बहुमंजिला इमारतों से भूस्खलन बढ़ा है। अब समय है कि अतीत से सबक लेकर पारंपरिक, हल्की और पर्यावरण-अनुकूल निर्माण प्रणाली अपनाएं। विकास की नई परिभाषा तय करनी होगी जो प्रकृति से तालमेल रखे और पहाड़ी जीवन को सुरक्षित, स्थायी और आपदारोधी बनाए तथा भावी पीढ़ियों के लिए उदाहरण प्रस्तुत करे।
रमेश चन्द्र पुहाल, पानीपत