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औरों के सुख में सुख

एकदा

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एक बार स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस को कहा कि ‘परमहंस देव! आप कंठ कैंसर से जूझ रहे हैं। आप एक शब्द तो कह दें परमात्मा को, जिससे आप इतने निकट से जुड़े हैं; कि हटाओ इस कंठ-अवरोध को। और कितना प्यारा था भोजन आपको! स्वाद में आप कितना रस लेते थे! हम पीड़ित होते हैं कि आप भोजन कर नहीं पाते। पानी तक भीतर ले जाना मुश्किल है।’ रामकृष्ण ने मौज में हंसते- हंसते उत्तर दिया, ‘एक दिन मैंने परमात्मा से कहा तो उसने कहा, इस कंठ से बहुत भोजन कर लिया, अब दूसरे कंठों से कर। अब मैं तुम्हारे कंठों से भोजन का रस ले रहा हूं। उसकी बड़ी कृपा है, उसने यह कंठ अवरुद्ध कर दिया। अब सभी कंठ मेरे हैं। अब जहां भी कोई स्वाद ले रहा है, मैं ही स्वाद ले रहा हूं। अब मैं तुमसे भोजन करूंगा।’ निश्चित ही रामकृष्ण परमहंस ने परमात्मा को इसी भांति जाना, और फिर सारी इंद्रियां औरों के सुख में सुख पाते हुए डूब गईं। आंख के लिए होश चाहिए, मन के लिए तल्लीनता चाहिए।

प्रस्तुति : मुग्धा पांडे

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