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चुनावों में धनबल का वर्चस्व

अनुकूल व्यवस्था बने चुनावों में जिस तरह धनबल का दबदबा बढ़ रहा है उससे अब आम नागरिक चुनाव लड़ने की स्थिति में नहीं रहेगा। हकीकत यह है कि संसद और विधानसभाओं में पहुंचने के लिए उम्मीदवार करोड़ों रुपये का खर्च...
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अनुकूल व्यवस्था बने

चुनावों में जिस तरह धनबल का दबदबा बढ़ रहा है उससे अब आम नागरिक चुनाव लड़ने की स्थिति में नहीं रहेगा। हकीकत यह है कि संसद और विधानसभाओं में पहुंचने के लिए उम्मीदवार करोड़ों रुपये का खर्च कर रहे हैं। चुनाव खर्च हर चुनाव में बढ़ रहा है। निस्संदेह यह तो वास्तविकता लोकतंत्र की भावना के विपरीत है। जरूरी है कि कोई ऐसी व्यवस्था बननी चाहिए कि चुनावों में धनबल का बढ़ता वर्चस्व न हो ताकि हर नागरिक चुनाव लड़ने लायक बन सके पर ऐसा कब होगा? देश कब उबरेगा धनबल के चंगुल से।

रमेश चन्द्र पुहाल, पानीपत

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भ्रष्टाचार की वजह

चुनाव में धनबल का प्रयोग लोकतंत्र के लिए हानिकारक है। निश्चय ही जो राजनीतिक पार्टी भारी खर्चा करेगी वो चुनाव जीतने के बाद उसकी भरपाई ईमानदारी से तो नहीं करेगी। माया के मकड़जाल से राजनीतिक पार्टियां जब तक अपने को मुक्त नहीं करती तब तक न तो देश में आर्थिक भ्रष्टाचार समाप्त होगा, न चंदे का गोरखधंधा। कुछ छोटी-मोटी राजनीतिक पार्टियों के अस्तित्व में आने का कारण न तो लोकसेवा है और न देश सेवा है। शायद उनका लक्ष्य कालेधन को सफेद करना है। चुनाव आयोग को भी चाहिए कि आम चुनाव को लंबे समय तक न खींचा जाए। लंबे समय तक राजनीतिक दल बहुत ज्यादा धनबल का प्रयोग करते हैं। इससे देश में आर्थिक भ्रष्टाचार बढ़ता जाता है।

राजेश कुमार चौहान, जालंधर

मतदाता जागरूक हो

देश में लोकतंत्र का रूप-प्रारूप लगातार बिगड़ता ही जा रहा है। अब तो बाहुबलियों तथा करोड़पतियों के ही चुनाव रह गये हैं। कमोबेश ऐसी स्थिति के लिए देश का मतदाता ही बड़ा जिम्मेवार है। हम ऐसे लोगों को अपना मत न दें जो धन अथवा बल के बाहुबल पर चुनाव जीतना चाहते हैं तथा लोकतंत्र को अपनी मर्जी से चलाना चाहते हैं। कितने ही अापराधिक पृष्ठभूमि के लोग चुनाव जीतकर विधानसभा अथवा संसद पहुंच जाते हैं। यह देश की बहुत बड़ी त्रासदी है। अच्छे तथा स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि देश का मतदाता पूरी तरह से जाग्रत रहें।

सत्यप्रकाश गुप्ता, बलेवा, गुरुग्राम

योग्य को दें वोट

चुनाव लोकतंत्र की आत्मा है मगर निष्पक्ष चुनाव भी जरूरी है। जिस तरह से चुनाव में धन-बल का दबदबा बढ़ रहा है वह लोकतंत्र की भावना के विपरीत है। चुनाव में उम्मीदवार और राजनीतिक दल बढ़-चढ़कर धन-बल का प्रदर्शन करते हैं। परिणामस्वरूप मतदाता भी चुनावी भ्रष्टाचार की लपेट में आ जाता है। पूरी प्रक्रिया की निष्पक्षता ही सवालों के घेरे में आ जाती हैं। वैसे तो हर राजनीतिक दल और प्रत्याशी के लिए चुनाव में किए जाने वाले खर्च की सीमा तय है मगर उसे सीमा से कहीं अधिक धन खर्च किया जाता है। चुनाव आयोग को इस खर्च को नियंत्रित करने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए। मतदाताओं को भी योग्य उम्मीदवार को ही अपना वोट देना चाहिए।

पूनम कश्यप, नयी दिल्ली

सभी दल दोषी

चुनाव में आजकल धन और बाहुबल का ही बोलबाला है। इन दोनों में जो जितना मजबूत उसे राजनीति उतनी ही रास आती है। समय के बदलाव ने चरित्र और नीयत दोनों को ताक में रख दिया है क्योंकि आजकल राजनीति पैसों के बल पर पैसों के लिए ही होती है। ईमानदार और गरीब प्रत्याशी किसी भी सूरत में जनप्रतिनिधि बनने लायक नहीं रह गया है। सरकार जनता पर तो कानूनी शिकंजा कसती है मगर सच्ची सौगंध खाने के बाद भी धनबलियों का मोह नहीं छोड़ पाती। इसके लिए सभी राजनीतिक दल बराबर के दोषी हैं।

अमृतलाल मारू, इंदौर, म.प्र.

पुरस्कृत पत्र

मतदाता गंभीर पहल करे

चुनावों में धनबल के बढ़ते वर्चस्व ने लोकतंत्र की अवधारणा को बुरी तरह से बाधित कर दिया है। अकूत धनराशि ने समाज सुधारकों, बुद्धिजीवियों और योग्य ग़रीबों को चुनाव लड़ने के अवसरों से वंचित कर दिया है। चुनावों को धनबल के प्रभाव से मुक्ति दिलाने के मन्तव्य से 2015 में लॉ-कमिशन की सिफारिश किंतु-परंतु में उलझ कर रह गई है। चुनाव सुधार के मद्देनजर चुनाव खर्च की समस्या बहुत जटिल है। राजनीतिक दल सरकार में रहते इस समस्या के समाधान के प्रति गंभीर नहीं होते। चुनावों को इस समस्या से मुक्त कराने में मतदाता ही बढ़िया काम कर सकता है। वो भी तब जब वो राजनीतिक दलों या प्रत्याशियों द्वारा प्रस्तुत प्रलोभनों से इंकार करने का मनोबल जुटा सके।

ईश्वर चन्द गर्ग, कैथल

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