बदलते माहौल ने मिट्टी के बर्तनों की चमक भले ही फीकी कर दी, लेकिन कुम्हार अपने काम में पूरी मेहनत से आज भी जुटे हैं। कईं वर्षों से पुश्तैनी धंधे में लगे कुम्हार फूल सिंह बेरथला का परिवार इस काम में रात-दिन जुटा है। उनका कहना है कि पहले 20-20 हजार दीये बनते थे, लेकिन मार्केट में बिक रहे इलेक्ट्रिक सामान ने उनके धंधे को प्रभावित कर दिया। हालांकि अब फिर लोगों का रुझान मिट्टी के दीयों की तरफ होने लगा है। लोगों की सोच बदलने लगी है, लेकिन मिट्टी के बर्तन भट्टी में पकाने का खर्च बढ़ने से कुम्हार वर्ग परेशान है। मिट्टी के रेट बढ़ने, उपलों व घास-फूंस के रेटों में भारी वृद्धि होने से बर्तन बनाने की लागत बढ़ी है। आमदन घटने से कुम्हार वर्ग आर्थिक तंगी झेलने को मजबूतर है। ऐसे में रोजी रोटी के लिए दूसरे रोजगार तलाशने को मजबूर होना पड़ रहा है। आसमान छूती महंगाई ने भी गरीब कुम्हारों की समस्या को बढ़ा दिया।
उन्होंने कहा कि लोग अब मिट्टी के दिए बस परम्परा निभाने के लिए ही जला रहे हैं। कुम्हारों के दियों की खपत कम होने से आय घट गई है, नतीजा वे आर्थिक तंगी झेलने को मजबूर हैं। मिट्टी के दीपक, घड़े, मूर्तियां, कुल्हड़ बनाना एक कला है। इनको बनाने में चिकनी मिट्टी की आवश्यकता होती है जो नदियों के किनारे और तालाबों की तलहटी में पाई जाती है। यह मिट्टी नदियों में बाढ़ आने से प्रदूषण मुक्त हो जाती है। उन्होंने बताया कि अब मिट्टी का प्रयोग नहीं किया जाता है। मिट्टी में एक भी कंकड़ मिल जाए तो कुम्हार की सारी मेहनत पर पानी फिर जाता है।