दिनेश भारद्वाज/ट्रिन्यू
चंडीगढ़, 25 जून
हरियाणा में सत्ताधारी भाजपा और जजपा के बीच गठबंधन पर फिलहाल कोई संकट नहीं है। बेशक, प्रदेश इकाई के अधिकांश नेताओं का यही फीडबैक है कि भाजपा को अब जजपा से अलग हो जाना चाहिए। हालांकि पार्टी में ऐसे नेता भी हैं, जो मानते हैं कि मौजूदा राजनीतिक हालात में सरकार चलाने के लिए जजपा का सहयोग लेकर ही चलने में भलाई है।
उनकी दलील है कि अगर निर्दलीयों के सहारे सरकार चलाने का निर्णय लिया गया तो यह पार्टी के लिए घातक हो सकता है। निर्दलीयों के जायज और नाजायज दबाव को भी भाजपा को सहना पड़ सकता है। बहरहाल, अब पूरा मामला चूंकि केंद्रीय नेतृत्व के नोटिस में है तो फैसला भी दिल्ली के स्तर पर ही होगा। हरियाणा के सांसदों, मंत्रियों, विधायकों, वरिष्ठ नेताओं व जिलाध्यक्षों से बातचीत के आधार पर तैयार की गई रिपोर्ट नेतृत्व को सौंपी जा चुकी है।
गठबंधन को लेकर अब जो भी निर्णय होगा, वह केंद्र के स्तर पर ही होगा। खुद मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर भी गठबंधन को लेकर कई बार स्पष्ट कर चुके हैं कि भाजपा और जजपा मिलकर सरकार चला रहे हैं। कोई परेशानी नहीं है। फिर भी अगर किसी तरह का फैसला या आगे की राजनीति पर कोई निर्णय होना है तो उस बारे में भाजपा के संसदीय बोर्ड द्वारा ही अंतिम निर्णय लिया जाएगा। ऐसे हालात में फिलवक्त गठबंधन पर किसी तरह का संकट आता नहीं दिख रहा है। भाजपा के कुछ नेताओं का यह भी मानना है कि अगर निर्दलीय विधायकों के समर्थन से ही सरकार का गठन करना होता तो 2019 में चुनावी नतीजों के बाद ही किया जा सकता था। पहले भी कई बार ऐसा हुआ है जब अल्पमत में सरकार आई है। 2009 में भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में कांग्रेस ने लगातार दूसरी बार सत्ता रिपीट की। उस समय कांग्रेस भी 40 विधायकों के साथ अल्पमत में थी। बेशक, सरकार का गठन निर्दलीय विधायकों के समर्थन से किया गया।
बाद में हरियाणा जनहित कांग्रेस (हजकां) के 6 में से 5 विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए। ऐसे में कांग्रेस विधायकों की संख्या बढ़कर 45 हो गई और सरकार चलाने में किसी तरह का जोखिम नहीं रहा। आदमपुर उपचुनाव जीतने के बाद भाजपा विधायकों की संख्या भी 41 हो गई है, लेकिन बहुमत के लिए 5 और अंकों की जरूरत है। जजपा के पास दस विधायक हैं। भाजपा ने इसी सोच के साथ जजपा से गठबंधन किया कि सभी निर्दलीयों को मनाने की बजाय एक ही पार्टी से समझौता करना अधिक बेहतर होगा।
पिछले महीनेभर से जरूर गठबंधन पर सवाल उठ रहे हैं, लेकिन साढ़े तीन वर्षों से दोनों पार्टियां मिलकर अच्छे से सरकार चला रही हैं। अभी तक गठबंधन के विरोध में जिन नेताओं के बयान आए हैं, उनमें से कइयों के खुद के राजनीतिक कारण हैं। या तो वे जजपा प्रत्याशियों के हाथों चुनाव हारे हैं या फिर जजपा की वजह से उनके निर्वाचन क्षेत्रों में समीकरण बदले हैं। एक वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री का मानना है कि लोकसभा चुनावों से पहले गठबंधन पर किसी तरह का निर्णय होने की उम्मीद नहीं है। उनका कहना है कि एक बार जजपा से गठबंधन टूटने के बाद भाजपा के पास निर्दलीयों के सहारे ही सरकार चलाने का विकल्प रह जाएगा। चूंकि विधानसभा चुनावों में करीब डेढ़ साल का वक्त है और यह लम्बा समय है।
दोराहे पर भाजपा
बेशक, मौजूदा सरकार के साढ़े तीन वर्षों के कार्यकाल में कई बार सरकार को गंभीर आरोपों का भी सामना करना पड़ा है। कथित रूप से कई घोटालों पर भी विपक्ष ने सरकार को घेरा है। इतना कुछ होने के बाद भी भाजपा अभी भी दोराहे पर खड़ी है। जजपा से अलग होकर चलना भी मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में आसान नहीं है और गठबंधन को लम्बा खींचना भी पार्टी के लिए घातक साबित हो सकता है। इन स्थितियों में यही माना जा रहा है कि लोकसभा चुनावों तक शायद कोई दिक्कत न आए। हां, लोकसभा चुनावों के ऐलान के बाद जरूर गठबंधन को लेकर बड़ा फैसला केंद्रीय नेतृत्व ले सकता है।
पहले भी आंखें दिखा चुके निर्दलीय
निर्दलीयों पर भाजपा का मन इसलिए भी नहीं ठहर पा रहा क्योंकि कुछ ऐसे विधायक भी हैं, जो पूर्व में भाजपा को आंखें दिखा चुके हैं। तीन कृषि कानूनों को लेकर किसानों द्वारा किए गए आंदोलन के दौरान भी निर्दलीयों में से कुछ विधायकों ने खुलकर किसानों के समर्थन में आवाज बुलंद की थी। एक विधायक ने तो चेयरमैनी से इस्तीफा तक दे दिया था। समर्थन की स्थित में 2024 के विधानसभा चुनावों में निर्दलीय टिकट देने का दबाव भाजपा पर बना सकते हैं।