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‘सरकार बी के करै, छोरे-बहू हाथ नी लांदे, दूध चाहिए चोक्खा’

दुधारू पशु घटे, कहां से ‘बढ़’ रहा दूध

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रामकुमार तुसीर

सफीदों, 22 अगस्त

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हरियाणा को लेकर ‘देशां मैं देश हरियाणा, जड़ै दूध-दही का खाणा’ की कहावत अब धीरे-धीरे अर्थहीन होने लगी है। नयी पीढ़ी गाय-भैंस से दूरी बना रही है और दुधारू पशुओं की संख्या प्रदेश में गिर रही है। ऐसे में आने वाले समय में दूध और दही की क्या स्थिति होगी, यह बड़ा सवाल है।

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बेशक सरकार प्रति व्यक्ति प्रतिदिन दूध उपलब्धता बढ़ने का दावा कर रही है मगर ग्राउंड पर दूध मिलना आसान नहीं। राज्य के कृषि मंत्री कहते हैं कि हरियाणा में देश का 5.26 प्रतिशत दूध पैदा होता है लेकिन कथित तौर पर वह उस सरकारी सर्वेक्षण के आंकड़े छुपा लेते हैं जिनमें स्पष्ट है कि देश को 48.6 प्रतिशत दूध देने वाले पांच प्रदेशों यूपी, राजस्थान, गुजरात, पंजाब व हरियाणा में दूध उत्पादन सबसे कम हरियाणा में है। उधर हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर का दावा है कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन दूध उपलब्धता 444 ग्राम है जबकि हरियाणा राज्य में यह 1127 ग्राम पहुंच चुकी है। वीटा संस्थान के आंकड़े भी मुख्यमंत्री को सपोर्ट करते हैं जहां से बताया गया कि वीटा में जींद, हिसार जिलों व फतेहाबाद के कुछ इलाके से वर्ष 2018-19 में 42 हजार लीटर दूध की आवक हुई जो आज करीब 50 हजार लीटर है। सवाल वही है कि दूध बढ़ कैसे रहा है, दुधारू पशु कम हो रहे हैं।

सरकारी आंकड़ों की वकालत में प्रदेश में चार उपमंडलों के पशुपालन एवम डेयरी प्रभारी डाक्टर राजकुमार बेनीवाल कहते हैं कि कृत्रिम गर्भादान से पशुओं की दुग्ध क्षमता बढ़ाई जा रही है। कैथल के बुड्ढाखेड़ा गांव निवासी नरेश की ‘रेशमा’ जैसी 33 किलो 800 ग्राम दूध देने का रिकॉर्ड बनाने वाली कितनी भैंसें प्रदेश में हैं। सरकारी रिकॉर्ड अनुसार वर्ष 2016-17 में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 930 ग्राम दूध हरियाणा में उपलब्ध था जो वर्ष 2019 में बढ़कर 1142 ग्राम हो गया। इस दस्तावेजी आंकड़े की गावों में बात करें तो लोग हंसने लगते हैं। क्योंकि बड़ी संख्या में तो लोग बच्चों को पिलाने व चाय के लिए दूध को तरसते हैं। दूध का मुख्य स्रोत भैंस है। प्रदेश में दुधारू पशुओं की संख्या जो वर्ष 2012 में 58 लाख थी वर्ष 2019 में घटकर 44 लाख रह गई। भले ही पशुगणना के अनुसार वर्ष 2012 के मुकाबले वर्ष 2019 में गायों की संख्या कुछ बढ़ी लेकिन इनमें दुधारू नाममात्र हैं और दुग्ध क्षमता भी कम है। वर्ष 2007 से दुधारू भैंसों की संख्या में गिरावट तब शुरू हुई थी जब ग्रामीण लोग शहरों में बसने लगे। वर्ष 2007 के मुकाबले वर्ष 2012 में 10.53 प्रतिशत भैंसें कम हो गयीं। प्रसिद्ध मुर्रा नस्ल की कुछ भैंसें दक्षिण भारत के व्यापारी भी ले जाते रहते हैं।

दुधारू पशु कम होने के ये हैं कारण

बुजुर्गों ने बताया कि ज्यादातर एकल परिवार होने से खेती की जोत कम हो गई है और ऐसे में भी युवा पीढ़ी के बहुत लोगों ने दूध के काम या पशुपालन से मुंह मोड़ लिया है। नई बहुएं घास-फूस, पशुओं से दूर रहना पसंद करती हैं। इनका कहना है कि भैंसें महंगी हैं, शेड महंगे, महंगा चारा, चूरी आदि के इलावा बीमारियों का जोखिम भी है।

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