दिनेश भारद्वाज/ट्रिन्यू
चंडीगढ़, 29 मई
भाजपा और उसकी गठबंधन सहयोगी जननायक जनता पार्टी (जजपा) के राजनीतिक रिश्ते ‘सामान्य’ नहीं लगते। बेशक, इसे लेकर पहले से ही दोनों पार्टियों के अलावा राजनीतिक और प्रशासनिक गलियारों में चर्चाएं थी, लेकिन निकाय चुनावों में ‘एकला’ चलने के भाजपा के फैसले ने इन चर्चाओं को और बल दे दिया है। अहम बात यह है कि भाजपा की अपने बूते चुनाव लड़ने की नींव अप्रैल के पहले सप्ताह में पंचकूला में हुई बैठक में ही पड़ गई थी। भाजपा के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष की मौजूदगी में हुई इस बैठक में कई वरिष्ठ नेताओं का ‘असंतोष’ उभर कर सामने आया था। जजपा को साथ लेकर चुनाव नहीं लड़ने का फैसला लेकर भाजपा ने यह संदेश देने की भी कोशिश की है कि जजपा के साथ उसका गठबंधन जरूरी तो हो सकता है, लेकिन मजबूरी नहीं है। जजपा की कार्यशैली को लेकर पार्टी वर्कर व पदाधिकारी ही नहीं, कई सांसद-विधायक भी नाखुश हैं।
बीएल संतोष की अध्यक्षता में हुई बैठक में ही पार्टी ने 2024 के विधानसभा चुनावों के लिए ‘मिशन-70’ का नारा दिया था। हालांकि इससे पूर्व 2019 के विधानसभा चुनावों में सरकार के मिशन-75 प्लस के नारे की हवा निकल चुकी है। इन चुनावों में भाजपा को महज 40 सीटें मिली तो सरकार का गठन करने के लिए भाजपा को 10 विधायकों वाली जजपा का सहयोग लेना पड़ा। सात निर्दलीय विधायक भी थे, जो सरकार को समर्थन दे रहे थे। सिरसा से विधायक गोपाल कांडा और ऐलनाबाद विधायक अभय सिंह चौटाला भी उस समय समर्थन देने के पक्ष में थे, लेकिन भाजपा ने अलग-अलग नौ लोगों का समर्थन जुटाने की बजाय 10 सीटों वाली जजपा को साथ लेकर चलना बेहतर समझा।
दुष्यंत को सरकार ने आबकारी एवं कराधान, राजस्व, उद्योग एवं वाणिज्य, फूड एंड सप्लाई, पीडब्ल्यूडी, श्रम एवं रोजगार, विकास एवं पंचायत सहित 10 से अधिक विभाग दिए हुए हैं। इनमें से कई विभागों की कार्यशैली को लेकर कई बार सवाल उठ चुके हैं। भाजपा ने गत दिवस ही हिसार की बैठक में तय किया है कि नगर परिषद व नगर पालिकाओं के चुनाव पार्टी अपने दम पर लड़ेगी। जजपा को इन चुनावों में साथ लेकर नहीं चला जाएगा। यहां बता दें कि जजपा नेता और उपमुख्यमंत्री दुष्यंत सिंह चौटाला पिछले करीब दस दिनों से विदेश में हैं। उनकी गैर-मौजूदगी में भाजपा ने यह कदम उठाया है। ऐसे में विदेश से लौटने के बाद दुष्यंत को अपनी रणनीति बदलनी पड़ेगी। सरकार ने जजपा को बड़ा झटका देते हुए एक तरह से सबक सिखाने की कोशिश भी की है।
अब यह जजपा पर निर्भर करेगा कि वह अपनी पॉलिसी, सिद्धांत और कार्यशैली में किसी तरह का बदलाव करती है या नहीं। इतना जरूर है कि अब भाजपा ‘मजबूरी’ के साथ रिश्तों को ढोने का मन नहीं रखती।
सूत्रों के अनुसार निर्दलीय विधायक पूरी तरह से सरकार के साथ चलने को तैयार हैं। इस स्थिति में अगर जजपा द्वारा भी किसी तरह का ‘बोल्ड’ फैसला लिया जाता है तो सरकार पर किसी तरह का संकट नहीं आने वाला। बहरहाल, हर किसी की नजरें जजपा के अगले कदम पर हैं।
आसान नहीं होगा जजपा के लिए सिंबल पर लड़ना
यह बात भी सही है कि जजपा में भी एक पक्ष ऐसा है जो गठबंधन में चुनाव लड़ने के हक में नहीं था, लेकिन भाजपा से अलग होकर शहरों के चुनाव लड़ना जजपा के लिए आसान नहीं रहने वाला। जजपा का शहरों में वोट बैंक कम है। ऐसे में जजपा पार्टी सिम्बल पर चुनाव लड़ने का जोखिम उठाएगी या नहीं, यह देखना काफी रोचक रहेगा।
दिसंबर 20 में हारा था गठबंधन
इससे पहले दिसंबर-2020 में तीन नगर निगमों – पंचकूला, अम्बाला सिटी व सोनीपत, रेवाड़ी नगर परिषद तथा सांपला, धारूहेड़ा व उकलाना नगर पालिका के चुनाव गठबंधन ने मिलकर लड़े थे। इन सात निकायों के चुनावों में गठबंधन बुरी तरह से पिटा था। महज पंचकूला नगर निगम में ही भाजपा मेयर का चुनाव जीत पाई। रेवाड़ी नगर परिषद में अध्यक्ष पद का चुनाव भी भाजपा जीत गई थी, लेकिन तीनों पालिकाओं में अध्यक्ष पद पर गठबंधन उम्मीदवारों की हार हुई। इन तीनों ही जगहों पर जजपा ने अपने उम्मीदवार उतारे थे।