प्राकृतिक खेती के संबंध में दैनिक ट्रिब्यून के संपादक नरेश कौशल ने गुजरात के राज्यपाल आचार्य देवव्रत से विस्तृत बातचीत की। पेश है बातचीत के मुख्य अंश।
प्राकृतिक खेती का आइडिया कैसे आया?
मैं 35 साल तक कुरुक्षेत्र गुरुकुल का प्रधानाचार्य रहा। गुरुकुल का अपना 200 एकड़ का फार्म है। यहीं सब्जियां आदि उगाई जाती हैं। एक दिन गुरुकुल का कर्मचारी खेतों में कीटनाशक का छिड़काव करते हुए बेहोश हो गया। वह दो-तीन दिन में ठीक भी हो गया, लेकिन मेरे मन में आया कि केवल गंध मात्र से यह बेहोश हो गया। इस जहरीले कीटनाशक का प्रयोग तो पाप है। मैं एग्रीकल्चर डिपार्टमेंट, कुरुक्षेत्र के लोगों से मिला। उन्होंने मुझे जैविक खेती यानी आर्गेनिक फार्मिंग के बारे में बताया। शुरुआत पांच एकड़ में आर्गेनिक फार्मिंग से की। आयातित केंचुआ डाला। पहले साल कुछ नहीं बचा। फसल कीट-पतंगे खा गए। दूसरे साल लगभग 50 प्रतिशत बचा। तीसरे साल 80 प्रतिशत। मैंने सोचा, मेरे पास तो गुरुकुल में 200 एकड़ जमीन है, जिस किसान के पास दो-तीन एकड़ जमीन है यदि वह इस जैविक खेती को करेगा तो उसका गुजारा कैसे होगा। फिर मैंने प्राकृतिक खेती को अपनाया।
केंद्र सरकार का प्राकृतिक खेती पर क्या रुख है?
एकदम सकारात्मक। तभी तो बजट में प्राकृतिक खेती के लिए हजारों करोड़ का बजट रखा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सोच है कि पूरे देश में प्राकृतिक खेती लागू हो ताकि किसानों की लागत कम हो, उत्पादन बढ़े और उनकी आय में इजाफा हो।
आपने प्राकृतिक खेती को ही विकल्प क्यों बनाया?
और कोई रास्ता भी तो नहीं था। आज सबसे बड़ी चुनौती ग्लोबल वार्मिंग की है। पानी पीने लायक नहीं रहा। जमीन और हवा भी जहरीली हो चुकी है। लोग कैंसर जैसी गंभीर बीमारी की चपेट में आ रहे हैं। प्राकृतिक खेती में मेहनत भले ही थोड़ी अधिक है, लेकिन एक बार इसका इस्तेमाल करने के बाद जमीन की उत्पादक क्षमता भी बढ़ेगी और किसानों को कम लागत पर अधिक उत्पादन मिलेगा।
कार्यक्रम में किसानों की कितनी रुचि दिखी?
दो दिन पहले ही कुरुक्षेत्र में हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल और कृषि मंत्री जेपी दलाल के अलावा उनके कैबिनेट सहयोगी व कई नेता व अधिकारी पहुंचे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी आह्वान किया है कि किसान प्राकृतिक खेती की ओर बढ़ें। हरियाणा से भी पूरा सहयोग मिल रहा है। हरियाणा ने प्राकृतिक खेती के लिए अलग से बोर्ड बनाने का निर्णय लिया। इस बार के बजट में भी 36 करोड़ रुपये की राशि उपलब्ध कराई है। गुरुकुल कुरुक्षेत्र में ट्रेनिंग सेंटर भी बनाया है।
प्राकृतिक खेती के मूल प्रावधान क्या हैं?
हमारा जीवामृत है, जब हम इसे खेत में डालेंगे तो केंचुआ इसकी गंध पाकर एकदम ऊपर आएगा। वह धरती में 10-12 फुट छेद बनाता है। एक छेद से जाता है और दूसरे से आता है। इससे धरती में अंदर तक ऑक्सीजन जाएगी। उपज बढ़ेगी। वह नुकसान देने वाले खनिजों और बैक्टीरिया को खाता भी है। वह उस मिट्टी को पौधे की जड़ को देता है, जिसमें सामान्य भूमि से पांच गुना ज्यादा नाइट्रोजन है, नौ गुना ज्यादा फास्फोरस है और 11 गुना ज्यादा उसमें पोटाश है। वह आर्गेनिक कार्बन को बढ़ाता है।
आर्गेनिक कार्बन को आम लोग कैसे समझेंगे?
सामान्य तरीके से समझिए। भारत में हरित क्रांति की शुरुआत पंत नगर यूनिवर्सिटी से हुई। उस समय वहां की भूमि का आर्गेनिक कार्बन 2.5 प्रतिशत था। आज यह घटकर 0.6 प्रतिशत हो गया है। इससे सिद्ध हुआ कि रासायनिक खेती ने देश की धरती को बंजर बना दिया है। असल में केंचुए धरती में इतने छेद कर देते हैं कि जब बारिश होती है तो सारा पानी इन छिद्रों से धरती के पेट में जाता है। इससे बाढ़ नहीं आएगी। गर्मी में वाष्प के जरिए पौधों को नमी मिलेगी।
आर्गेनिक और प्राकृतिक खेती में क्या अंतर है?
आर्गेनिक और प्राकृतिक खेती बिल्कुल अलग है। जैविक खेती में तो गोबर की खाद बनती है। आयातित केंचुआ मिट्टी नहीं खाता, केवल गोबर खाता है। 28 डिग्री से ज्यादा के तापमान में वह जिंदा नहीं रह पाता। इसमें लागत भी अधिक होती है। लेकिन प्राकृतिक खेती में आप सीधे गोबर नहीं बल्कि कम गोबर से अधिक खाद बनाते हैं।
ये जीवामृत और घन-जीवामृत क्या है?
हम दो तरह के कल्चर तैयार करते हैं। एक का नाम जीवामृत और दूसरे का नाम है घन जीवामृत। भारतीय नस्ल की देसी गाय से इसे बनाते हैं। मैंने वैज्ञानिकों की टीम बुलाई। उनमें मुख्य रूप से एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी-हिसार में माइक्रोबॉयोलोजी विभाग के डॉ. बलजीत सारन शामिल हैं। उन्होंने जर्मनी, ब्रिटेन व फ्रांस के वैज्ञानिकों के साथ काम किया है। मैंने उन्हें बताया कि गोमूत्र एवं गोबर पर रिसर्च करो। उनकी शोध रिपोर्ट में आया कि देसी गाय के एक ग्राम गोबर में 300 करोड़ से भी ज्यादा जीवाणु हैं। गोमूत्र खनिजों का भंडार है।
आपके इस फार्मूले का वैज्ञानिक आधार क्या है। क्या इसे तार्किक दृष्टिकोण से सही माना जाये?
जी बिल्कुल। एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने इस पर रिसर्च की है। तर्क वैज्ञानिक हैं। रिसर्च में एक ग्राम गोबर में 300 करोड़ जीवाणु मिले हैं। जो गाय दूध नहीं देती उसके एक ग्राम गोबर में 500 करोड़ तक जीवाणु होते हैं। दूध नहीं देने पर उसकी सारी एनर्जी जीवाणु बनाने में लगती है। यही जीवाणु उन्नत खेती में काम आते हैं।
लागत बढ़ने और मूल्य कम मिलने पर किसानों के आंदोलन भी हुए। किसानों को आपकी तकनीक से क्या लाभ होगा?
हरियाणा ही नहीं, पूरे भारतवर्ष के किसानों से आग्रह करूंगा कि प्राकृतिक खेती करेंगे तो प्रकृति का संवर्द्धन होगा। पर्यावरण साफ-सुथरा बनेगा। धरती जहरमुक्त होगी। लोगों को फायदा होगा। आर्गेनिक कार्बन से उत्पादन क्षमता बढ़ेगी। किसान की लागत कम हो जाएगी, उत्पादन बढ़ेगा। किसान खुशहाल होगा, उन्नत होगा और समृद्ध होगा। दूषित हो चुका पानी भी शुद्ध होगा। भूमिगत जलस्तर भी ऊपर आएगा। इस खेती से अनेक लाभ होंगे।
जीवामृत से निकलेंगे चमत्कारिक परिणाम
जीवामृत बनाने के लिए देसी गाय के गोबर, गोमूत्र आदि से चमत्कारिक परिणाम निकलते हैं। इसमें 10 किलोग्राम गोबर, आठ से 10 किलो गोमूत्र को 200 लीटर के ड्रम में डालकर छाया में रखते हैं। उसे 180 लीटर पानी से भर देते हैं। उसमें डेढ से दो किलो गुड़ और इतना ही किसी भी दाल का बेसन और बड़े पेड़ के नीचे की एक मुट्ठी मिट्टी मिलाते हैं। अब लकड़ी के डंडे से इनको पांच मिनट सुबह और पांच मिनट शाम को घोलना है। पांचवे दिन एक एकड़ के लिए खाद तैयार है। दुनिया में ऐसा कोई तरीका नहीं कि चार दिन में एक एकड़ का खाद तैयार हो जाए। एक दिन के एक गाय के गोबर-गोमूत्र से एक एकड़ का खाद तैयार। इसी तरह 30 दिन के गोबर-गोमूत्र से 30 एकड़ का खाद तैयार।
दूरदृष्टा, जनचेतना के अग्रदूत, वैचारिक स्वतंत्रता के पुरोधा एवं समाजसेवी सरदार दयालसिंह मजीठिया ने 2 फरवरी, 1881 को लाहौर (अब पाकिस्तान) से ‘द ट्रिब्यून’ का प्रकाशन शुरू किया। विभाजन के बाद लाहौर से शिमला व अंबाला होते हुए यह समाचार पत्र अब चंडीगढ़ से प्रकाशित हो रहा है।
‘द ट्रिब्यून’ के सहयोगी प्रकाशनों के रूप में 15 अगस्त, 1978 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून व पंजाबी ट्रिब्यून की शुरुआत हुई। द ट्रिब्यून प्रकाशन समूह का संचालन एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है।
हमें दूरदर्शी ट्रस्टियों डॉ. तुलसीदास (प्रेसीडेंट), न्यायमूर्ति डी. के. महाजन, लेफ्टिनेंट जनरल पी. एस. ज्ञानी, एच. आर. भाटिया, डॉ. एम. एस. रंधावा तथा तत्कालीन प्रधान संपादक प्रेम भाटिया का भावपूर्ण स्मरण करना जरूरी लगता है, जिनके प्रयासों से दैनिक ट्रिब्यून अस्तित्व में आया।