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शीत का स्वागत और जीवन रक्षा की आकांक्षा

जाड़ा पूजा 30 नवंबर

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प्रतीकात्मक
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जाड़ा पूजा पांच राज्यों का प्राचीन लोकपर्व है। यह अगहन में प्रकृति पूजा, सामूहिक सुरक्षा और शीत के स्वागत का उत्सव है।

छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और बिहार में लोक परंपराओं का एक बेहद प्राचीन पर्व मनाया जाता है, जिसे जाड़ा पूजा कहते हैं। यह अगहन मास (मार्गशीर्ष) के प्रारंभ में मनाया जाता है। इस साल यह 30 नवंबर को मनाया जाएगा। यह वास्तव में बदलते मौसम और कृषक समुदाय की जीवनचर्या से जुड़ा लोकपर्व है।

हम सब जानते हैं, जाड़ा, सर्दी या शीत का देशज शब्द है। कार्तिक माह के समाप्त होते ही जब हवा में ठंडक घुलने लगती है, तो पूर्वी और मध्य भारत में शीत हवाओं का आगमन हो जाता है। गांवों में कृषि कार्य से जुड़े किसानों और पशुपालकों के लिए यह मौसम परिवर्तन का समय होता है। इसी परिवर्तन का स्वागत करने के लिए, विभिन्न प्रदेशों के खासकर ग्रामीण इलाकों में इन दिनों जाड़ा पर्व खूब धूमधाम से मनाया जाता है। यह लोकपर्व है, इसलिए इसमें बहुतायत में भागीदारी ग्रामीण लोगों की ही होती है। इस पूजा या जाड़े का स्वागत करने का सहज अर्थ यह होता है कि लोग प्रकृति से प्रार्थना करते हैं कि वह उन्हें और उनकी फसलों को कठोर सर्दी से बचाए और इस दौरान गांवों की सामुदायिकता जीवित रहे।

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यह प्रकृति पूजा पर केंद्रित पर्व है, इसलिए जल, वायु, अग्नि, भूमि और वन देवी जैसे पांच तत्वों की पूजा होती है। चूंकि भारतीय धार्मिक परंपरा में प्रकृति के सारे हिस्से देवताओं की कोटि में गिने जाते हैं, इस वजह से प्रकृति होते हुए भी यह धार्मिक पर्व बन जाता है। जाड़ा पर्व गांवों और आदिवासियों की भावनाओं से ओतप्रोत पर्व है। यह पर्व एक विशेष तरह की खुशियों का उत्सव मनाने का भी पर्व है, क्योंकि सर्दियां सिर्फ परेशानियां ही नहीं लातीं। ये खेतों के लिए नमी, अनाज के लिए उर्वर मौसम, स्वास्थ्य के लिए लाभकारी बदलाव और पशुओं की देखभाल के नये चक्र की शुरुआत होती है। इसलिए इस पर्व का एक सांकेतिक अर्थ प्रकृति को धन्यवाद करना भी होता है। चूंकि धान की कटाई इस समय तक पूरी हो चुकी होती है और रबी की फसल के लिए खेतों की तैयारी हो रही होती है, ऐसे में जाड़ा पर्व इन दोनों फसलों के बीच के विराम का प्रतीक है, जिसे किसान और आदिवासी मौसम के पूर्व संस्कार की संज्ञा देते हैं।

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इस पर्व में समुदाय और सामूहिकता की शक्ति का विहंगम दृश्य देखने को मिलता है। इस पर्व की शुरुआत करने के लिए गांवों में टोले और मोहल्ले के लोग इकट्ठे होकर पशुओं की सामूहिक सुरक्षा के उपाय करते हैं। पर्व के दौरान पूरे मोहल्ले और टोले का सामूहिक भोजन बनता है, आग जलाई जाती है और उस आग के चारों तरफ बैठकर खान-पान और नाचने-गाने का कार्यक्रम होता है। इस पर्व के दौरान यह भी तय किया जाता है कि गांव या मोहल्ले में जिन लोगों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है, वे आगामी सर्दी का सामना कैसे करेंगे, इसकी एक सामूहिक व्यवस्था करने की कोशिश की जाती है। इस पर्व के दौरान सामूहिक रूप से सफाई और सामाजिक जिम्मेदारियों को आपस में बांटने का भी चलन होता है। चूंकि सर्दियों की शुरुआत में सर्दी, खांसी और संक्रमण जैसी स्वास्थ्य समस्याएं काफी ज्यादा होती हैं, ऐसे में कई जगहों पर यह लोकमान्यता है कि जाड़ा पर्व मनाने से इस तरह की समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता। क्योंकि इस पर्व में खान-पान और सामूहिक सक्रियता की गर्मी महसूस होती है, इसलिए इस पर्व से वास्तव में सर्दी, जुकाम और खांसी की समस्याओं का बचाव होता है।

यह लोक विश्वास है कि जाड़ा पर्व मनाने से जाड़े में होने वाली आमतौर पर स्वास्थ्य समस्याएं पास नहीं फटकतीं। यही कारण है कि इस पूजा में गांव के चौपालों, सार्वजनिक रास्तों आदि में धूप, धुएं और नीम की पत्तियों व सरसों के तेल से विशेष रूप से यज्ञ-धुआं किया जाता है ताकि सकारात्मक ऊर्जा फैले और नकारात्मक ऊर्जा का नाश हो। जाड़ा पर्व के अवसर पर पूरा गांव या एक पूरा मोहल्ला मिलकर सामूहिक रूप से गांव, तालाब, सड़क और अपने देव स्थलों से लेकर चौपालों तक की सफाई मिलकर करते हैं।

पूजा के दौरान गांव के बीच पेड़ के नीचे या चौपाल में छोटा-सा स्थान बनाया जाता है जिसे जाड़ा स्थान कहते हैं। यह स्थान मिट्टी का एक टीला होता है, जिसमें पवित्र घासें लगाई जाती हैं और इसके इर्दगिर्द सुबह-शाम दीपक जलाया जाता है तथा धान की कटी हुई फसल, कुछ पौधे रखे जाते हैं। यह मिट्टी का छोटा-सा टीला जहां बनाया जाता है, उसके ऊपर एक मंडप छाया जाता है और वहां चावल, हल्दी, फूल तथा पानी से भरे मिट्टी के घड़े रखे जाते हैं और उन घड़ों के ऊपर दीए जलाकर रखे जाते हैं। इस तरह से सांकेतिक रूप से यह दीप दान की अग्नि पूजा का भी उत्सव है। वैसे सर्दी के स्वागत का अर्थ ही है कि अंधेरे और ठंड के बीच प्रकाश की ऊष्मा का पर्व है। इसलिए इस जाड़ा पर्व में तेल के दीए और धूनी का अत्यंत महत्व होता है। गांव की औरतें गोबर के उपलों की सामूहिक आग जलाती हैं, जिनमें कई तरह के पकवान बनाए जाते हैं। कुल मिलाकर जाड़ा पूजा गर्मी और सुरक्षा की सामूहिक गतिविधि का इंद्रधनुषी पर्व है, जिसके केंद्र में प्रकृति देवी या वन देवी होती है। इस पूजा में जो भी अर्पित किया जाता है, वह वन देवी को ही अर्पित किया जाता है और उसके बाद पूरे गांव या मोहल्ले के लोग मिलकर सामूहिक रूप से भोजन करते हैं।

आदिवासी इलाकों में इस दौरान खूब लोकगीतों की धूम रहती है, जो विशेष तौर पर कर्मा गीत, जाड़ा गीत और नाचा गीत होते हैं। गीतों के साथ नृत्य भी होता है और ढोल तथा मांदर की थाप में यह उत्सव संपन्न होता है। इ.रि.सें.

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