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प्रतिबंधित साहित्य में दर्ज आज़ादी के मुखर स्वर

79वां स्वतंत्रता दिवस
चित्रांकन संदीप जोशी
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भारत के स्वाधीनता संग्राम के दौरान अनेक भाषाओं में साहित्यकारों ने अंग्रेजों के अन्यायकारी कृत्यों को उजागर करने और जनचेतना जगाने का बीड़ा उठाया। अंग्रेजी दस्तावेजों के इतर यह देशी साहित्य अधिक मुखर और जन-पक्षीय था इसलिए ब्रितानी सरकार भयभीत हो गयी। उसने ऐसी पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं को जब्त कर ब्रिटेन भेज दिया। यह साहित्य हमारे आजादी के इतिहास का हिस्सा नहीं बन सका। सरकारी संस्थाओं, विश्वविद्यालय के संबंधित विभागों या अन्य संगठन द्वारा ऐसी कोशिशें नगण्य रहीं। जबकि आमजन की आकांक्षाओं, दुःख-दर्द से भरी इन हजारों जब्त पुस्तकों की खोज अपेक्षित थी। लंदन स्थित इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी से जब्त साहित्य को खोजकर लाने में लेखिका के प्रयास उल्लेखनीय हैं।

 

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‘उन्हें यह फिक्र है हरदम नई तर्ज जफा क्या है/ हमें यह शौक है देखें कि इसकी इंतेहा क्या है/ गुनहगारों में शामिल हैं गुनाहों से नहीं वाकिफ/ सजा को जानते हैं हम खुदा जाने खता क्या है।’

आजादी के मतवालों द्वारा गाए जाने वाले ये तराने न केवल क्रांतिकारियों के मनोभावों को व्यक्त करते हैं बल्कि अंग्रेजी हुकूमत को चेतावनी देते हैं कि उनकी यन्त्रणाएं उनके आजादी प्राप्त करने के पावन उद्देश्य को कुंद नहीं कर सकती। — देशभक्ति से ओतप्रोत और रोमांचित करने वाले इसी तरह के दस्तावेजों की हम उन्नीस सौ नब्बे के दशक में आमजन को इतिहास से रूबरू कराने के लिए प्रदर्शनियां लगाते थे। ऐसा ही एक दस्तावेज 26 जनवरी 1930 को ‘स्वतन्त्रता दिवस’ के रूप में मनाने के सम्बन्ध में था। वो यह कि सोनीपत (हरियाणा) के तत्कालीन म्युनिसिपल कमिश्नर, लाला कांशीराम जुलूस के साथ उस आयोजन में शामिल होते हैं, तिरंगा फहराते हैं और एक नज्म गाते हैं :

‘शहीदों के खूं का असर देख लेना/ मिटायेंगे जालिम का घर देख लेना/किसी के इशारे के मुन्तजिर हैं/ बहा देंगे खूं की नहर देख लेना’।

उक्त आयोजन और नज्म के गाये जाने से ब्रितानी हुकूमत की भवें तन जाती हैं। कांशीराम को नज्म पढ़ने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया जाता है। इल्जाम यह कि यह नज्म राष्ट्र-विरोधी है जिसे प्रतिबंधित किया जा चुका है। कांशीराम सफाई में कहते हैं कि यह नज्म सिर्फ ‘जोशीली’ है राष्ट्र विरोधी नहीं और जिस पुस्तिका से पढ़ी गई है वह अभी तक प्रतिबंधित या जब्त नहीं की गई है। परन्तु उनकी कोई दरख्वास्त नहीं सुनी गई और तुरंत पद से बर्खास्त कर दिया गया।

प्रतिबंधित साहित्य की खोज का विचार

तभी से लेखिका के मन में एक तीव्र विचार प्रतिबंधित साहित्य की खोज में बीज-तत्व बनकर मन:पटल की उष्ण भूमि में रोपित हो गया। खोज शुरू हुई कि कौन हैं इस नज्म के रचयिता? कहां है वह पुस्तक जिसमें संगृहीत एक नज्म का अंश भर पढ़ने से अंग्रेजी हुकूमत इस कदर आक्रोशित और भयभीत हुई कि उस म्युनिसिपल कमिश्नर को पद से हटा दिया गया और गिरफ्तार कर लिया गया? क्या यह केवल एक प्रशासनिक या राजनीतिक घटना थी या फिर यह समझा जाये कि अंग्रेजी ऐतिहासिक सन्दर्भों और दस्तावेजों के इतर ‘कलम’ का यह देशी नैरेटिव या देशी साहित्य अधिक मुखर और अधिक जन-पक्षीय था इसलिए ब्रितानी सरकार भयभीत हो उठती और अविलम्ब न सिर्फ इस साहित्य को प्रतिबंधित कर देती बल्कि अधिकांश कृतियों को जब्त करके देश की सीमाओं से बाहर अर्थात इंग्लैंड ले जाकर पटक देती।

सृजन की ज्वाला से सहमी अंग्रेज सरकार

साहित्य समाज का दर्पण होता है, दीपक भी होता है और मशाल भी। समाज की विचारधारा का प्रतीक भी होता है और अक्स भी। भारत के स्वाधीनता संग्राम में विशेषकर जलियांवाला बाग काण्ड (1919) से लेकर भगतसिंह की शहादत (1931) तक गुलाम देश की कलम से जो क्रान्ति- ज्वाला निकली उसने देश की समस्याओं, दुर्गति, अन्यायों, अत्याचारों को उजागर करने, आमजन में जागृति पैदा करने के उद्देश्य से जो वृहत, निर्भीक साहित्य रचा उसने अंग्रेज सरकार की नींद हराम कर दी। हुकूमत तत्परता से उसे प्रतिबंधित करने के नोटिफिकेशन जारी करती रही और इन प्रकाशनों को जब्त करती रही।

नज्म के साथ तलाशी पुस्तकें भी

इस साहित्य की मेरी खोज का सफर भारतीय अभिलेखागार, राज्य अभिलेखागारों और अंततः आखिरी पड़ाव के रूप में इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी लंदन (अब ब्रिटिश लाइब्रेरी) तक पहुंचा। यह संकेत भी देती चलूं कि इस प्रतिबंधित और जब्त साहित्य की खोज के दौरान मुझे उक्त नज्म भी मिली और वह पुस्तकें भी मिल गईं जिनमें यह नज्म शामिल थी। ये दोनों ही पुस्तकें जब्त कर ली गई थीं और इस अब उक्त पुस्तक के तेईसवें नम्बर पर ‘शहीदे वतन’ जो कलकत्ता से प्रकाशित हुई थी तथा दूसरी अबोहर (पंजाब) से छपी ‘राष्ट्रीय गान’ पुस्तक के तीसवें नम्बर पर समाहित हैं, नज्म के रचनाकार खुजंदी थे। इन्हें मैंने लन्दन स्थित इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी से प्राप्त किया। ऐसी रचनाएं यहां-वहां कई पुस्तिकाओं में प्रकाशित होती रहती थीं।

उठाया जनचेतना जगाने का बीड़ा

यूं तो अंग्रेजों के भारत में काबिज होते ही प्राच्य ज्ञान, संस्कृति और मूल्यों पर पाश्चात्य असर दृष्टिगोचर होने लगा था। सभ्यताओं के बीच की खाई से जागरूक लोग भारतीय जनता के एक हिस्से के उदीयमान राष्ट्रीय प्रतीक बन रहे थे। परंपरागत चिंतन और पाश्चात्य प्रभाव से राष्ट्रीय चेतना का ढांचा गुना-बुना जाने लगा जिसको साहित्य, कला, राजनीतिक-सामाजिक सुधार आंदोलनों और बौद्धिक–साहित्यिक संगठनों के माध्यम से अभिव्यक्ति मिली। अनेक भाषाओं में भारतीय साहित्यकारों ने अंग्रेजों के अन्यायकारी कुकृत्यों को उजागर करने और जनचेतना जगाने का बीड़ा उठाया। यह साहित्य ब्रितानी हकूमत के लिए भयभीत करने वाला और असहनीय था। अत: उन्होंने उन कृतियों/ रचनाओं को सीआईडी तथा 1860 में बने आईपीसी कानून की धारा 124 ए के तहत प्रतिबंधित/जब्त कर लिया। कलमकारों, प्रकाशकों व मुद्रकों को यातनाएं दी गईं, मुद्रणालयों पर छापे पड़े, जुर्माने और दण्ड दिये गये पर वे अपने नाम-पते के साथ आगे आते रहे।

यह साहित्य उसी दौर में लिखा जा रहा था जब छायावाद की भूमि नम और उर्वर थी और प्रगतिवाद अपनी उपयोगिता व अर्थवाद के पन्ने खोल रहा था। वहीं दूसरी तरफ कुछ अनजाने-अबूझे साहित्यकार देश में गुलामी की छटपटाहट को गम्भीरता से महसूस कर रहे थे और उन बेड़ी-बंधनों को तोड़ने के लिए हर तरह से प्रयासरत थे। आमजन को इस प्रयास में शामिल करने के लिए जागृत कर रहे थे। कविता, नज्म, नाटक, गीत, कव्वाली, कजरी, गज़ल आदि अनेक विधाओं में अपनी कलम के जौहर दिखाते हुए देश को आजाद कराने में अपनी भूमिका निभा रहे थे। ये रचनाएं क्रान्ति -वीरों की देशप्रेम में हिलोरें मारती जवानियों को हवा दे रही थी। राजनैतिक चेतना जगाने वाले इस साहित्यिक काल को ‘चेतना काल’ की संज्ञा दी जा सकती है।

जब्तशुदा साहित्य की अनदेखी

इस प्रतिबंधित और जब्तशुदा साहित्य को हिन्दी साहित्य के इतिहास में वह स्थान नहीं मिला जो मिलना चाहिए था जबकि देश की अन्य भाषाओं की अपेक्षा हिन्दी में सबसे अधिक लिखा गया। देश के मुक्ति-आन्दोलन में हिन्दी स्वदेशी की पहचान के तौर पर बरती जा रही थी। लेकिन हिन्दी के इतिहास की कोई पुस्तक उठाकर देख लीजिये इस साहित्य की मात्र निशानी मिलती है और कहीं तो वह भी नहीं मिलती। यह अचम्भित करता है। अफ़सोस है कि हम आज भी हिन्दी को उस समावेशी स्वरूप में नहीं देख रहे हैं। हिन्दी-प्रेमियों की ओर से जो थोड़ी-बहुत आवाजें यदा-कदा उठती हैं उनके आशय भी अस्पष्ट हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो क्या इतना विपुल साहित्य भण्डार जिसने ब्रितानी हुकूमत की चूलें हिला दी थी आज तक हिन्दी साहित्य की किताबों, साहित्य के इतिहास, हिन्दी के शोध-प्रबंधों या पाठ्यक्रमों में अपनी महती भूमिका की वजह से सम्मिलित नहीं होता? क्या राष्ट्र, राष्ट्रीय, राष्ट्रवाद और हिन्दी का मंचों से गुणगान करने वालों द्वारा उसे खोज कर प्राप्त करने और शिक्षण-संस्थानों व पुस्तकों में राष्ट्रीय-अस्मिता के प्रतीक इस साहित्य को यथा-योग्य स्थान दिया जाना अपेक्षित नहीं है? इसमें लोक है, जन है, जन-भावना है, जन-साहित्य है, जन-चिन्तन है और उत्कट राष्ट्र-भक्ति है।

साहित्य का हिस्सा या इतिहास का!

यहां जब्तशुदा साहित्य को हिन्दी साहित्य के इतिहास में वाजिब स्थान नहीं मिलने के कारणों का उल्लेख करना मेरा मकसद नहीं। इसलिए कि अधिकांश साहित्य को प्रकाशित होते ही जब्त करके या तो देश के अभिलेखागारों में बन्द कर दिया गया या फिर देश में छोड़ा ही नहीं गया तो क्योंकर ऐसे साहित्य को इतिहास का हिस्सा बनाया जाता! दूसरे यह कि हिन्दी-प्रेमियों ने इस क्रान्तिकारी-साहित्य को इतिहास का हिस्सा मान कर हाथ नहीं डाला, उधर इतिहासकारों ने इसे साहित्य मान कर अपने पारम्परिक स्रोतों में बहुत अधिक स्पेस नहीं दिया। लेकिन अगर साहित्य समाज का दर्पण, दीप, या मशाल है तो समाज, साहित्य और इतिहास आपस में जुड़े हुए हैं। वे एक दूसरे के विरुद्ध नहीं, अपितु पूरक हैं। इतिहास के बगैर साहित्य अधूरा है और साहित्य के बगैर इतिहास अध्ययन सम्पूर्ण नहीं।

वापस लाने की नहीं हुई कोशिश

प्रश्न तो उठता है कि क्या किसी सरकारी संस्था, विश्वविद्यालय के हिन्दी या इतिहास विभागों या अन्य संगठन द्वारा ऐसी कोई कोशिश हुई है कि गुलामी के दौर में तलवार की धार पर चलकर रचनाकारों ने जो चेतनता का मूल-साहित्य रचा जिसमें आमजन की छटपटाहट है, आकांक्षाएं हैं, दुःख-दर्द हैं उन हजारों जब्त पुस्तकों को खोज निकाला जाए? और जो प्रकाशन ब्रिटिश हुकूमत यहां से ढोकर ले गई उन्हें वापस लाने के प्रयास किसी स्तर पर किये जाएं? क्या यह हमारी सोच, इतिहास-बोध, परम्परा, साहित्यिक-दृष्टि पर प्रश्न चिन्ह नहीं है कि आज तक हम उन कलम-साधकों के नामों और रचनाओं से अनभिज्ञ हैं?

चेतनता के कालजयी साहित्य का लक्ष्य

व्यवस्थाएं रचनाकार को सृजन की मानसिक भूमि प्रदान करती रही हैं, वह जिस दुर्व्यवहार का अनुभव करता है, गुजरता है, पीड़ा-व्यथाओं का भोगी होता है, वही अनुभव एवं स्मृतियां उसे लिखने को प्रेरित करती हैं। पर जब वह सृजन करता है तो ये ही व्यवस्थाएं उसे गुनहगार बना देती हैं क्योंकि यह लेखन उस तरह का नहीं होता जो जन-भावनाओं की अपेक्षा मनभावन अहसासों या वाणिज्य को केंद्र में रखकर रचा जाता है। इस साहित्य का महत्व और उद्देश्य भिन्न होता है जो सुकोमल मनोभावों पर सृजित साहित्य से भी बड़ा हो सकता है और उसका अपना विशेष पाठक वर्ग होता है। यह साहित्य व्यवस्थाओं की ज्यादतियों, जुल्मों को उजागर करता है और उनकी नाक के नीचे हर तरह की मुसीबतें झेलते हुए रचा जाता है इसलिए हुकूमत की आंखों में चुभता है। इसका कोई बंधा-बंधाया पाठक नहीं होता न ही इसे लोकप्रियता की कसौटी पर परखा जा सकता है। लेकिन यह कालजयी होता है। इसका अपना अलग वैशिष्ट महत्व और नैतिक कर्तव्य होता है। समाज में अपनी भूमिका को पहचानना, समाज को जागृत करना, आततायियों के कृत्यों से परिचित करवाना और एक संगठित शक्ति बनकर अन्याय के विरुद्ध खड़ा होने के लिए लोगों में हौसला पैदा करना इस साहित्य का असल ध्येय होता है। जनचेतना जगाने का साहित्य किसी नामी-गिरामी साहित्यकार की कृतियों तक सिमित नहीं होता। यूं तो बीसवीं सदी के आरम्भ (1908) में ही मुंशी प्रेमचंद रचित कहानियों का संग्रह ‘शोजे वतन’, 1932 में उर्दू कहानियों का संग्रह ‘अंगारे’ या कुछ अन्य साहित्यिक रचनाओं को जब्त किया गया था जिनका जिक्र साहित्य में यदा–कदा आता रहता है। परन्तु इस पुस्तक में नामी साहित्यकारों के इतर वे रचनाकार और रचनाएं सम्मिलित हैं जो लोक-समाज के भीतर से निकली हैं, जिनकी बोली- वाणी जमीनी है, जिनका एक सामूहिक संत्रास है और आततायी भी एक ही है।

देसी लेखकों की रचनाएं जनता में गूंजी

बीसवीं सदी में जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड, असहयोग आन्दोलन, क्रान्तिकारियों के साहसपूर्ण कृत्यों, भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव की फांसी जैसी घटनाओं ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। अंग्रेजी स्रोतों के बरअक्स देशी साहित्यकारों ने इन घटनाओं पर अनेक साहित्यिक विधाओं के माध्यम से भारतीय दृष्टिकोण को व्यक्त किया। इनमें अधिकतर बुद्धिजीवी लेखक नहीं अपितु जनभाषा में लिखने वाले रचनाकार थे। गुलाम देश की ये देसी रचनाएं लोगों द्वारा कंठस्थ कर ली जातीं और गा-गाकर लोगों तक पहुंचतीं और प्रेरित करती थीं। ‘मेरा रंग दे तिरंगी चोला’ गाते हुए मेलों, पर्वों, आयोजनों में शामिल होते और जन-सभाओं में ये रचनाएं लोक-चेतना को जाग्रत करती। ये पढ़ी कम गईं लेकिन गायी ज्यादा गईं।

जलियांवाला बाग पर सुभद्रा कुमारी चौहान की रचना

‘परिमल हीन पराग दाग सा बना पड़ा है/ हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है। आओ! प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना/ यह है शोक स्थान, यहां मत शोर मचाना।’ (लेखिका की पुस्तक ‘जलियांवाला बाग की कराहें’ प्रतिबंधित हिंदी साहित्य से)

जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए साहित्य

अंग्रेजों की इस नृशंसता को हिन्दुस्तानियों ने अपनी आत्माओं पर झेला, अपनी आंखों से देखा और साहित्यकारों ने उसे अपनी कलम से उकेरा। यह जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए लिखा गया साहित्य है। इस विषय पर प्रतिबंधित हिन्दी पुस्तकों में बनारस से छपी ‘जलियांवाला बाग का महात्म्य’; जबलपुर से 1922 में प्रकाशित ‘पंजाब का खून’; हाथरस से 1923 में ‘ बागे जलियां –सांगीत’; बुलन्दशहर से 1921 में लाला रतनलाल ‘जमर्रुद’ लिखित ‘पंजाब का हत्याकाण्ड’; सूरजभान मटेर राजपूत की अमृतसर से ‘ओडायर शाही यानी मजलूम ए पंजाब’ आदि हैं और लाला किशनचन्द ज़ेबा द्वारा 1922 में लिखा और लाहौर से प्रकाशित एक ड्रामा ‘जख्मी पंजाब’ भी है। इसका एक अंश :

‘अगर चलती रही गोली, यूं ही निर्दोष जानों पर। तो कोए और कबूतर ही, रहेंगे इन मकानों पर।। मिटा डालेंगे गर इस तरह, हाकिम अपनी प्रजा को। हकूमत क्या करेंगे फिर वह, मरघट और मसानों पर।।’ (सन्दर्भ पुस्तक ‘जलियांवाला बाग की कराहें’)

अत: जो साहित्य सिर्फ किताबी न रह कर लोक-गीतों, लोक-धुनों और जन-मानस के भावों में व्यक्त होता है, गूंजता है, जन-भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है वह जन-साहित्य बन जाता है। इसमें सांस्कृतिक और भाषायिक प्रवृतियां, धर्म एवं विश्वास, रीतियां-नीतियां कोई मायने नहीं रखतीं। ये बन्धन स्वत: टूट जाते हैं। इसकी पृष्ठभूमि में एक महान उद्देश्य अवश्य होता है। इसके तत्व इतने प्रभावी, सर्वव्यापी और सुदृढ़ होते हैं कि वे ही इसका औचित्य और मूलाधार बन जाते हैं। यही दृढ प्रतिज्ञा इस साहित्य की शक्ति होती है जिससे सत्ताएं असुरक्षित महसूस करती हैं।.

ब्रिटिश लाइब्रेरी लन्दन से हासिल प्रतिबंधित पुस्तकें

लेखिका ने ब्रिटिश लाइब्रेरी लन्दन से पचास से अधिक प्रतिबंधित/जब्त हिंदी साहित्य की पुस्तकों को खोजा, अवाप्त यानी प्राप्त किया और अपनी पुस्तकों का आधारभूत स्रोत बनाया। कुछेक के नाम यहां दिये जा रहे हैं : प्रतिबंधित काव्य-पुस्तकें : बलिवेदी पर ‘सरदार’, युवक हृदय, 1931, भगत सिंह, कानपुर, 1931, आजादी की तोप, काशी, 1930, अंग्रेजों की बोलती बंद, आगरा, 1931, चंद्रशेखर आजाद, कानपुर, 1931, भारतीय वीर, दिल्ली, 1932 , राष्ट्रीय आल्हा यानी भगतसिंह की लड़ाई, कानपुर, 1931 , कजली बमकेस उर्फ भगतसिंह की फांसी, गया और बनारस सिटी, 1931, क्रांति का पुजारी, कानपुर, 1931, मर्दाना भगत सिंह, अलीगढ़, 1931, वीरों का झूला, काशी, 1931, फांसी के शहीद, संग्रह व प्र. राजाराम नागर, प्रयाग, 1931, भारतीय तराने, 1931, सरदार भगतसिंह की नई कजरी: सावन का सिंह, ले. गोपाल लाल गुप्त, बनारस सिटी, 1931 , खून के आंसू, कोलकाता, 1931, अंग्रेजों की अकड़फूं निकल गई, आगरा, 1931.

‘अंग्रेजों की अकड़फूं निकल गई’ से एक कविता

‘अंग्रेजों की अकड़फूं निकल गई’ पुस्तक 1931 में जैतपुर कलां, आगरा से प्रकाशित हुई और 17 जुलाई 1931 को इंडिया ऑफिस लंदन में दर्ज की गई। लेखिका द्वारा वहीं से प्राप्त की गई। यह हरियाणा के लेखक जसवंतसिंह टोहानवी द्वारा लिखी गई थी, यह दावा उनके पौत्र अमरजीत माड़िया द्वारा किया गया है। भाषा के स्वरूप एवं लहजे से (रोहतक व हरियाणा की तर्ज पर लिखे गायन से) यह दावा उचित भी प्रतीत होता है। इसमें से एक कविता के कुछ पद प्रस्तुत हैं जो अंग्रेज की तरफ से उनके हालात पर लिखे गये हैं :

एक साहब कहते थे सर पीट-पीट यूं/ निकल गई माई लॉर्ड सारी अकड़ फूं/ माना कि इब्तिदा में हम बिल्कुल कंगाल थे। घर में नहीं हमारे दो पैसे का माल था।। अच्छे बुरे का भी नहीं हमको ख्याल था। जो जिस तरह से मिल गया वह ही हलाल था।। लेकिन मैं देसी बातों का अब जिक्र क्या करूं।। निकल गई ...

जब से हमारे इंडिया कब्जे में आ गया। अदवार और इफ्लास तो एकदम चला गया।। मी! बाय! सर! हजूर तक हम को कहा गया। हर इंडियन पर इस कदर था रौब छा गया।। ताकत न थी किसी की कि चीं करे या चूं।। निकल गई ...

लेकिन जमाना आ गया अब तो कुछ और ही। एक दम से बदल गया जमाने का दौर ही।। न वह इंडियन रहे न वह उनके तौर ही। करते नहीं हमारे हुकुम पर यह गौर ही।। हम हुकम दें तो कहते हैं बकते हो मुफ्त क्यूं।। निकल गई...। 

-लेखिका हरियाणा अभिलेखागार की पूर्व उपनिदेशक एवं आईसीएचआर की सीनियर अकादमिक फेलो हैं।

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