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भागीदारी का मूल्य समझ सम्मान संग मिले हिस्सेदारी

घर-गृहस्थी में स्त्री शक्ति का योगदान
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हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट ने स्त्री शक्ति की अहमियत समझने के भाव से जुड़ा एक अहम निर्णय दिया। न्यायालय द्वारा परिवारों में गृहिणियों के योगदान को मान्यता देने की वकालत की। दिल्ली उच्च न्यायालय के अनुसार, अब समय आ गया है कि घर-परिवार संभाल रही स्त्रियों की भूमिका को संपत्ति के स्वामित्व संबंधी अधिकारों के संदर्भ में मान्यता दी जाए, क्योंकि घर बनाने और चलाने में गृहिणियों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। असल में यह फैसला स्त्री शक्ति के उस रूप की ओर ध्यान दिलाता है, जिसकी भागीदारी अकसर अनदेखी रह जाती है। यह निर्णय कहता है कि स्वयं को भूलकर बच्चों पर प्यार लुटाने और संस्कार पोसने वाला मातृशक्ति का यह रूप भी मान पाने योग्य है। असल में बड़े-बुजुर्गों की संभाल से लेकर आंगन में अपनेपन को कायम रखने तक, गृहिणियों को भी सम्मान मिलना चाहिए। बावजूद इसके ज़िम्मेदारियां निभाने में पूरा जीवन लगा देने वाली बहुत सी घरेलू स्त्रियों के हिस्से कुछ नहीं आता। मान-सम्मान के मोर्चे पर उपेक्षा ही नहीं, आर्थिक पहलू पर असुरक्षा भी उनके मन को घेरे रहती है। ऐसे में कोर्ट का फैसला सचमुच स्त्री शक्ति की इस भूमिका की गरिमा समझने की बात लिए है। आंगन तक सिमटी इस भागीदारी के मूल्य को समझकर सम्मान देने का आह्वान करता है।

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सब कुछ होकर भी कुछ नहीं

मां, पत्नी, बहू, बेटी के रूप में महिलाओं को बताया जाता है कि सब उनका ही तो है। महिलाएं भी जब तक किसी संकट में ना फंस जाएं यही मानती हैं कि घर के आर्थिक मामलों में अपनी बात रखने की जरूरत ही क्या है? अलग से किसी तरह के मालिकाना हक की चिंता करनी ही क्यों है? वे तो घर को संभालने-चलाने से जुड़ी अपनी फाइनेंशियल वैल्यू भी नहीं आंकतीं। परिजन-स्वजन तो इस विषय में सोचते ही नहीं। तभी तो बहुत से बदलावों के बावजूद यह अनदेखी कायम है। ऐसे में इस निर्णय से घर, परिवार और बच्चों की देखभाल में गृहिणियों के योगदान को आंकते हुए मालिकाना अधिकारों का फैसला लेने में मदद मिलेगी। दिन-रात अपनों को बिना मांगे मिलने वाले उस सहयोग का मूल्य तय किया जा सकेगा, जिसे आर्थिकी के किसी खांचे में नहीं रखा जाता। कोर्ट ने भी कहा कि घरों में पूर्णकालिक गृहिणियों की मौजूदगी से विशेष मदद मिलती है। साथ ही हमारे देश के बहुत से परिवारों में घरेलू सहायक भी नहीं हैं। स्पष्ट है कि इन परिवारों में फुलटाइम गृहिणियों की मौजूदगी बहुत से खर्चों को बचाती है। इस तरह होने वाली बचत भी कई परिवारों को संपत्ति खरीदने की स्थिति तक लाती है। महिलाओं की इस बचत से कई परिवार अपना घर बना पाते हैं। सुख-सुविधाएं जुटा पाते हैं। बावजूद इसके पारिवारिक संपत्ति के स्वामित्व और गृहिणियों को लेकर कोई बात ही नहीं होती। ‘सब तुम्हारा ही है’ कहने वाले हमारे परिवेश में स्त्रियों के पास सब कुछ होकर भी कुछ नहीं होता।

नि:शुल्क कार्यों की अंतहीन सूची

गृहिणी के रूप में महिलाओं की आर्थिक भागीदारी की अनदेखी का भाव सदा से रहा है। उनके मालिकाना हक को लेकर न सोचने के पीछे भी यही सोच रही है। जबकि गृहिणियां अपनी दिनचर्या का बड़ा हिस्सा उन अवैतनिक कार्यों को करने में बिताती हैं, जिनके लिए घरेलू सहायक अच्छी-ख़ासी तनख्वाह लेते हैं। महिलाओं को उनके कामों के लिए आर्थिक लाभ देने में ही नहीं इस भूमिका को सम्मानजनक बनाने का भाव भी नदारद है। हमारे यहां महिलाओं के हिस्से विकसित देशों की स्त्रियों से ज्यादा काम हैं व सुविधाएं कम हैं। देश में गृहिणियों की सेविंग समूची बचत का 24 फीसदी है जो दुनिया भर में सबसे ज्यादा है। कहना गलत नहीं होगा कि उनसे मिले स्नेह, सहयोग और संबल का आर्थिक मोल आंकना तो असंभव ही है। ऐसे में घरेलू महिलाओं के योगदान की मॉनिटरी वैल्यू समझना आवश्यक है। साथ ही गृहिणी की पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक भागीदारी की अनदेखी को रोकने के लिए संपत्ति स्वामित्व में उनके अधिकारों को रेखांकित करना जरूरी है।

श्रमशक्ति का अहम हिस्सा

घरेलू महिलाएं भी देश की श्रमशक्ति का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। कमोबेश हर अध्ययन अर्थव्यवस्था में उनकी भागीदारी की बात कहता है। ऐसे में संपत्ति के अधिकार की मांग से जुड़ा यह ताजा मामला और फैसला दोनों विचारणीय हैं। दरअसल, एक महिला द्वारा उच्च न्यायालय से मांग की गई थी कि विवादित संपत्ति में उसका भी समान और वैध अधिकार घोषित किया जाये। उसने परिवार की देखभाल के लिए अपनी नौकरी तक छोड़ दी थी। मामले में हाईकोर्ट ने कहा कि ससुराल में पत्नी का रहना मात्र उसे पति के नाम पर मौजूदा संपत्तियों पर मालिक होने का अधिकार प्रदान नहीं कर सकता है। इसके लिए ठोस साक्ष्य और घरेलू योगदान को स्थापित करना जरूरी है। न्यायालय की यह टिप्पणी बहुत जरूरी बात लिए है। देश की बहुत सी गृहिणियां श्रम शक्ति में भागीदारी निभाने के बावजूद संपत्ति के अधिकार से वंचित हैं। जरूरी है कि उनकी आर्थिक भागीदारी की अहमियत हर मोर्चे पर पहचानी जाए।

डॉ. मोनिका शर्मा

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