बीते कुछ समय की बात करें तो दिल्ली-एनसीआर समेत देशभर में भूकंप के कई झटके महसूस किये गये। आशंका हुई कि कहीं ये किसी बड़ी आपदा के संकेत तो नहीं । भूकंप के खतरे की विभीषिका के हिसाब से उत्तर भारत के ज्यादातर इलाके सर्वाधिक खतरे वाले जोन-5 या जोन-4 में आते हैं। भूकंप के आने या इसकी तीव्रता का सटीक पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता, लेकिन आपदा से निपटने के लिए जागरूकता और उचित संसाधनों की जरूरत होती है जिसमें हम अभी बहुत पीछे हैं। पूरी स्थिति का आकलन कर रहे हैं अभिषेक कुमार सिंह
कोरोना का कहर, आसमानी बिजली का प्रकोप, बाढ़ और कई अन्य आपदाओं के साथ हाल में भारत के अलग-अलग हिस्सों में डेढ़ दर्जन से ज्यादा बार भूकंप के झटके लग चुके हैं। कई तरह की आशंकाएं जन्म लेने लगीं। लगता है कि बीती सदियों में इंसानी गतिविधियों से प्रकृति का जो संतुलन बिगड़ा है, उसके नतीजे में ये आपदाएं एक साथ हमारा दरवाजा खटखटाने लगी हैं। दिल्ली-एनसीआर, जम्मू-कश्मीर, लद्दाख, मिजोरम आदि में हाल के भूकंप भले ही हल्के या मध्यम दर्जे के कहलाएं, पर इनके संदेश बड़े हो सकते हैं। आकलन है कि पिछले दो साल में दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में दो सौ छोटे-मोटे भूकंप आ चुके हैं। कहीं ये झटके किसी बड़े भूकंप की आहट तो नहीं हैं।
आखिर क्यों हिलती है धरती
दिल्ली-एनसीआर समेत पूरे उत्तर भारत में भूकंप की बारंबारता के लिए हिमालय पर्वत शृंखला में मौजूद सक्रिय भूकंपीय पट्टी को जिम्मेदार माना जाता है। इस बीच, पूरी दुनिया में भूकंप आने की रफ्तार बढ़ी है। इसका एक कारण तीन साल पहले यूनिवर्सिटी ऑफ कोलोराडो के रोजर बिल्हम और यूनिवर्सिटी ऑफ मोंटाना की रेबेका बेंडिक ने दिया था। चर्चित भूगर्भशास्त्री ने अपने शोध के आधार पर दावा किया था कि वर्ष 2018 और उसके बाद दुनिया के विभिन्न हिस्सों में बड़े जलजले आ सकते हैं। बड़े भूकंप आने की आशंका इसलिए है क्योंकि पृथ्वी के घूमने की रफ्तार कम होती जा रही है। यह एक स्थापित धारणा है कि पृथ्वी के चक्कर लगाने (धुरी पर घूर्णन) की गति में कमी आने से सीस्मिक एक्टिविटी बढ़ती है और बड़े भूकंप आते हैं। इन भूगर्भवेत्ताओं के अनुसार पृथ्वी के घूमने की रफ्तार और दुनियाभर में भूकंप संबंधी बदलावों में सीधा संबंध होता है। इन्होंने अपने शोध की जानकारी जियोलॉजिकल सोसायटी ऑफ अमेरिका को दी थी। इस रिसर्च में वर्ष 1900 के बाद आए रिक्टर पैमाने पर सात या उससे ज्यादा की तीव्रता वाले भूकंपों की प्रकृति (नेचर) को समझा गया था। इन भूगर्भवेत्ताओं ने कहा कि बीते कुछ वर्षों में दुनियाभर में धरती के अंदर उथल-पुथल की घटनाएं बढ़ी हैं। हालांकि उन्होंने अपने शोध में साफ तौर पर यह नहीं बताया कि दुनिया के किस इलाके में ये भूकंप आएंगे, लेकिन उन्होंने जिन बदलावों के आधार पर यह आशंका जताई है, वे परिवर्तन भूमध्य रेखा (इक्वेटर) के आसपास ज्यादा देखे गए हैं। इससे भारत और उसके पड़ोसी देशों को सर्वाधिक भूकंपों वाले क्षेत्र में माना गया है। रेबेका और रोजर के मुताबिक पिछली सदी में पांच बार ऐसा हुआ जब रिक्टर पैमाने पर 7 की तीव्रता वाले भूकंप आए। हर बार इन भूकंपों का संबंध पृथ्वी की घूमने की रफ्तार से जुड़ा पाया गया। रेबेका और रोजर ने यह दावा भी अपनी रिसर्च में किया था कि भूकंप से जुड़े खतरों के लिए पांच या छह साल पहले एडवांस वार्निंग दी जा सकती है। ऐसे में कोरोना काल की इस अवधि में आए भूकंप बड़े जलजले की चेतावनी प्रतीत हो रहे हैं।
बार-बार चेता रहे हैं विशेषज्ञ
बड़े भूकंप की चेतावनी सिर्फ रेबेका और रोजर ने ही नहीं दी है, बल्कि चार साल पहले केंद्रीय गृह मंत्रालय के आपदा प्रबंधन विशेषज्ञों ने भी चेताया था कि अब देश में कभी भी रिक्टर पैमाने पर आठ की तीव्रता वाला भूकंप आ सकता है। आपदा प्रबंधन विशेषज्ञों ने इसके पीछे मणिपुर से पहले नेपाल में 7.3 तीव्रता (मई, 2015) और वर्ष 2011 में सिक्किम में आए 6.9 तीव्रता के भूकंपों के बीच एक कड़ी की मौजूदगी को वजह बताया था। उनका कहना था कि इन भूकंपों के कारण इस इलाके की भूगर्भीय प्लेटों में उथल-पुथल हो गई है। पहले के झटकों के दौरान इनमें दरारें पैदा हो गई थीं, लेकिन पिछले भूकंपों के कारण ये दरारें और चौड़ी हो गई हैं। इससे धरती के भीतर जमी ऊर्जा दरारें के जरिये फूटकर बाहर निकल सकती है, जो भूकंप का कारण बनेगी। यह सिर्फ एक आशंका भर नहीं है। नेपाल में आए भूकंप के बाद राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (एनआईडीएम) के विशेषज्ञों ने चेतावनी दी थी कि पूरे पूर्वोत्तर क्षेत्र में भूकंप का खतरा बढ़ गया है क्योंकि नेपाल, भूटान, म्यांमार और भारत की भूगर्भीय प्लेटें आपस में जुड़ी हुई हैं। यह भूकंप पूर्वोत्तर से लेकर बिहार, यूपी, दिल्ली और उत्तराखंड के कई इलाकों को प्रभावित करने की स्थिति में हो सकता है। खास तौर से पर्वतीय इलाकों (विशेषत: उत्तराखंड) को लेकर ऐसी चेतावनी काफी पहले आ चुकी है। छह साल पूर्व (2014 में) आपदा प्रबंधन विभाग ने नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों के तीन साल के अध्ययन का हवाला देकर बताया था कि उत्तराखंड की पहाड़ियों पर अलग-अलग ढंग की ढांचागत संरचनाएं मिली हैं जिनसे इस पूरे इलाके की जमीन के भीतर भारी मात्रा में ऊर्जा जमा होने की संभावना है। जमीन के अंदर वर्षों से जमा यह ऊर्जा जब एक झटके में बाहर निकलने का प्रयास करेगी, तो उत्तराखंड समेत पूरे हिमालय क्षेत्र में भारी भूकंप आ सकता है। इस साल अप्रैल के बाद के हालिया तीन महीनों में आए भूकंपों से लगने लगा है कि इन चेतावनियों की अनदेखी काफी गंभीर हो सकती है।
खतरे के मुहाने पर उत्तर भारत : भूकंप की तीव्रता के हिसाब के चार हिस्सों (जोन) में बंटे भारत के नक्शे में दिल्ली-एनसीआर का इलाका जोन-चार में आता है। बड़े भूकंप की सर्वाधिक आशंका जोन-पांच में होती है। इसमें पूरा पूर्वोत्तर भारत, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर का कुछ इलाका, गुजरात का भुज क्षेत्र और अंडमान-निकोबार सर्वाधिक खतरे (वैरी हाई) वाले रिस्क जोन-5 में आते हैं। इसके बाद हाई रिस्क जोन-4 समूचा जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तर प्रदेश व बिहार के कुछ इलाके और सिक्किम तक फैला हुआ है। तीसरी श्रेणी में (मॉडरेट) रिस्क जोन में यूपी, बिहार, बंगाल, मध्य प्रदेश के कुछ इलाके, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान व केरल के आंशिक इलाके आते हैं। शेष भारत सबसे कम खतरे वाले रिस्क जोन-2 में आता है। इस दृष्टि से देखें तो देश की राजधानी का यह क्षेत्र बड़े जलजले के खतरे से सिर्फ एक पैरामीटर नीचे है। यही वजह है कि आईआईटी-कानपुर, आईआईटी धनबाद के डिपार्टमेंट्स ऑफ अप्लाइड जियोफिजिक्स और सीस्मोलॉजी और नेशनल सेंटर ऑफ सीस्मोलॉजी से जुड़े रहे भूगर्भवेत्ता हल्के झटकों को एक अहम चेतावनी की तरह देखने की बात कह रहे हैं। यह इलाका भूकंप की दृष्टि से ‘गंभीर’ या संवेदनशील माने जाने वाले जोन-चार में आता है। दूसरे यह क्षेत्र बड़े भूकंपों को झेल चुके इलाकों से ज्यादा दूर नहीं है। हिमाचल के कांगड़ा से 370 किलोमीटर और उत्तरकाशी से 260 किलोमीटर की दूरी पर है दिल्ली-एनसीआर। ये दोनों ही जगह बड़े भूकंप के लिए जानी जाती हैं। कश्मीर से अरुणाचल प्रदेश तक जाने वाली हिमालय पर्वत शृंखला में मौजूद सक्रिय भूकंपीय पट्टी (मुख्य सीमा थ्रस्ट-एमबीटी) से 280 से 350 किमी की दूरी पर स्थित यह इलाका बड़ी भूगर्भीय हलचलों के नजरिए से ज्यादा दूर नहीं माना जाता। ऐसे में यदि हिमालय में कोई बड़ी हलचल होती है तो उसका बड़ा असर दिल्ली से लेकर बिहार तक हो सकता है। ध्यान रहे कि 2001 में भुज में आए भूकंप ने करीब 300 किमी दूर अहमदाबाद में भी बड़े पैमाने पर तबाही मचाई थी और दिल्ली में भी उसका असर महसूस किया गया था। भूकंप की दृष्टि से अति संवेदनशील सीस्मिक जोन-4 में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, बहराइच, मुरादाबाद, बुलंदशहर, पीलीभीत, हरियाणा के अंबाला, पंजाब के लुधियाना और हिमाचल प्रदेश के शिमला को शामिल किया गया है। जहां तक देश की राजधानी की बात है, तो दिल्ली और एनसीआर के इर्द-गिर्द जमीन के नीचे मौजूद फॉल्ट लाइंस इस इलाके को भी संवेदनशील इलाके में ला देते हैं। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में हल्के भूकंपों (रिक्टर पैमाने में डेढ़ से दो की शक्ति वाले) ने राजधानी दिल्ली की जमीन में गहरी जमा होती ऊर्जा को निकालकर यहां बड़े भूकंप की आशंका पर कुछ अंकुश लगाया है, तो भी विशेषज्ञ इसे बहुत बड़ी राहत नहीं मानते।
भूकंप और हिमालय : अनुमान है कि हर साल पृथ्वी पर करीब 10 करोड़ भूकंप आते हैं। इनमें से ज्यादातर यानी 98 फीसदी समुद्रतल में आते हैं। दो से तीन फीसदी भूकंप जमीन पर आते हैं। इनमें से हमारा ज्यादा वास्ता हिमालय क्षेत्र में आने वाले भूकंपों से पड़ता है। असल में, जमीन के भीतर भारतीय और यूरेशिया प्लेटों की आपसी टकराहट ने पूरे हिमालयी क्षेत्र को भूकंप की सर्वाधिक आशंका वाले इलाके में तब्दील कर रखा है। भारतीय हिमालय और अफगानिस्तान की हिंदूकुश पर्वत शृंखला ऐसे ही संवेदनशील इलाके में आती है। भूगर्भवेत्ताओं की चेतावनी है कि इसकी भीतरी परतों में हो रही हलचल किसी दिन भारी विनाश का कारण बन सकता है। इसकी वजह यह है कि पूरे हिमालयी क्षेत्र में भूगर्भीय प्लेटों की वर्षों से चल रही टकराहट के कारण भारी मात्रा में ऊर्जा जमा हो गई है, जो बाहर निकलने का रास्ता खोज रही है। भूगर्भशास्त्रियों के मुताबिक ये प्लेटें प्रति वर्ष 40-50 मिलीमीटर तक एक दूसरे से टकराते हुए धंस रही हैं, इसी से यह ऊर्जा जमीन के अंदर जमा हुई है। भूगर्भवेत्ता यह भी कहते हैं कि हिमालयी क्षेत्र का भीतरी भूभाग कुल 13 सेंटीमीटर से ज्यादा का दबाव सहन नहीं कर सकता है। इसीलिए दबाव से पैदा होकर चट्टानों सेे उत्पन्न हुई घनीभूत ऊर्जा धरती के भीतर से फूट कर बाहर निकलने को तैयार बैठी है। इसी कारण हिमालयी इलाकों में लगभग नौ की तीव्रता तक के भूकंप की आशंका बनी रहती है। ऐसा एक अध्ययन अमेरिका के कोलाराडो विश्वविद्यालय के भूविज्ञानियों- रोजर विल्म, पीटर मोलनार और बेंगलुरू स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर एस्ट्रोफिजिक्स के विनोद गौड़ कर चुके हैं। इस टीम ने भी काफी पहले से भारत, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान और पाकिस्तान के हिमालयी क्षेत्र में तेज़ भूकंप आने और करीब पांच करोड़ लोगों पर उसका असर पड़ने की घोषणा कर रखी है।
बुनियादी आपदा प्रबंधन की जरूरत : विकसित देश भले ही प्राकृतिक आपदाओं को न रोक पाएं या आपदा का आकलन करने में समर्थ न हो पाए हों, पर इतना तो है कि भूकंप जैसी त्रासदी से वहां ज्यादा बड़ा नुकसान नहीं होता। जितनी तीव्रता के भूकंप जापान, मैक्सिको आदि में आए हैं, उतनी ताकत वाले भूकंपों से तो नेपाल-भारत जैसे मुल्क बुरी तरह हिल जाते हैं। जापान तो भूकंप से सबसे ज्यादा पीड़ित देशों में है, लेकिन हादसों की बारम्बारता से सबक लेकर वहां बेहद मजबूत और भूकंपरोधी इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा किया गया है। वहां समय-समय पर लोगों को भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं के वक्त किए जाने वाले बचाव के उपायों की जानकारी भी असरदार तरीके से दी जाती है। भूकंप का खतरा नेपाल-भारत-पाकिस्तान-अफगानिस्तान जैसे देशों में भी उतना ही है, लेकिन इन देशों में आज भी पुरानी जर्जर इमारतों में लाखों-करोड़ों लोग भूकंप की परवाह किए बगैर रह रहे हैं। दिल्ली और उसके आसपास के राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्र में तो ऐसी सैकड़ों बहुमंजिला इमारतें बन चुकी हैं, जिन्हें साधारण शक्ति वाला भूकंप कभी भी ढहा सकता है। वैसे तो वर्ष 1992 में केंद्र सरकार ने नौ करोड़ रुपये खर्च करके प्राकृतिक आपदा प्रबंधन कार्यक्रम की शुरुआत भी कर दी थी और इसके तहत हर साल कुछ आयोजन करके जनजागरूकता के कार्यक्रम भी चलाए जाते हैं, लेकिन इनसे ज्यादा प्रेरणा नहीं ली जा रही है। यही वजह है कि अब तक देश के कुछ ही राज्यों ने भूकंप जैसी आपदा से निपटने की गिनी-चुनी तैयारियां की हैं।