दशहरे की रात दिल्ली के सुभाष नगर में रावण के रंग-रूप के भव्य पुतलों की अनूठी नुमाइश होती है, जो देश के किसी और शहर में शायद ही देखी जाती हो। यहां हर साल 30-35 विविध आकारों के पुतले बनाए जाते हैं, जिन्हें दशहरे की शाम भव्य तरीके से जलाया जाता है, जिससे यह त्योहार और भी खास बन जाता है।
दशहरे की रात रावण के विविध रंग-रूप के पुतलों की जैसी नुमाइश दिल्ली के सुभाष नगर में नज़र आती है, वैसी देश के किसी अन्य शहर में शायद ही नज़र आती है। दशहरा पर्व मनाने में कुल्लू और मैसूर की विशिष्ट पहचान है। दिल्ली का दशहरा भी खास है। ज्यादातर दिल्ली वाले रावण दहन देखने पुरानी दिल्ली स्थित लाल क़िले के आगे मैदान पर हो रहीं सौ-सौ साल पुरानी रामलीलाओं में उमड़ते हैं। पिछले साल प्रधानमंत्री मोदी पश्चिमी दिल्ली के द्वारका की रामलीला के दशहरे में शामिल हुए थे, जहां दिल्ली का सबसे ऊंचा रावण का पुतला बना था। लेकिन कहते हैं कि दिल्ली में रहकर अगर सुभाष नगर के दशहरे की धूम नहीं देखी, तो क्या देखा।
दर्जनों रावण के पुतले
पश्चिमी दिल्ली के सुभाष नगर में दशहरे पर अलग ही नजारा होता है। इसकी महाशय वासुदेव मार्ग से जुड़ी दो-चार सड़कों पर थोड़े- थोड़े फासले पर, क़रीब आधा किलोमीटर के घेरे में अलग-थलग आकार-प्रकार के 30-35 रावण के पुतले खड़े होते हैं। कोई बाइक या स्कूटी पर सवार है, तो कोई सिंहासन पर विराजमान। कोई राक्षसों की सेना के साथ है, तो किसी का सिर धड़ से अलग।
अलग-अलग थीम
हर दशहरे पर भी अलग-अलग थीम के रावण बनाए जाते हैं। पुतलों को टेंटों में छुपा कर बनाया जाता है, ताकि लोग दशहरे के दिन का इंतज़ार करते रहें और दशहरे की ऐन सुबह 10 बजे तक सारे पुतले खड़े हो जाते हैं। पुतलों की ऊंचाई 35 से 55 फुट के बीच होती है। वहीं रहने वाले बच्चे-बड़े सभी मिल-जुलकर अपनी मेहनत और पैसों से बनाते हैं।
बनाना और जलाना
बीते दसेक सालों से श्रीराम ड्रामेटिक क्लब के सदस्यों के साथ मिलकर पुतला बना रहे 26 साल के सत्यम साहू ने बताया कि दशहरे की रात साढ़े 7 बजे पुतले जलने शुरू होते हैं। सड़कों पर यहां-वहां खड़े रावणों का एक के बाद दूसरे के जलने का सिलसिला रात साढ़े 9 बजे तक जाकर कहीं थमता है।
रामलीलाओं की राजधानी
यूं भी, दिल्ली रामलीलाओं की राजधानी है। यहां छोटी-बड़ी करीब 3,400 रामलीलाओं में से सबसे ज़्यादा उत्तरी और पश्चिमी दिल्ली में होती हैं। इन इलाक़ों की कई कॉलोनी में बड़े स्तर की 6-8 रामलीलाएं होती हैं, और छोटी लीलाओं की तो कोई गिनती ही नहीं है।
दहन की शृंखला
सुभाष नगर में ही महज 250-300 मीटर की दूरी पर दो रामलीला मैदान हैं। दोनों में सालों से रामलीला होती है और दशहरा मनाया जाता है। पहले दोनों मैदानों में रावण, कुम्भकर्ण और मेघनाद के पुतलों का दहन होता है। फिर लोग रामलीला मैदानों से निकलकर, इन पुतलों वाली सड़कों से होकर वापस जाने लगते हैं, तो बारी-बारी एक-एक पुतला जलाने का क्रम शुरू हो जाता है।
तितारपुर के पुतले
दशहरे की रात रावण के ऐसे विविध रंग-रूप के पुतलों की नुमाइश दिल्ली ही नहीं, देश के किसी शहर में शायद ही लगती है। लोग आसपास की कॉलोनियों से देखने सुबह से ही आने लगते हैं। उल्लेखनीय है कि नजदीक ही तितारपुर में थोक के हिसाब से छोटे-बड़े रावण बनते हैं और पूरी दिल्ली को सप्लाई किए जाते हैं। लगता है कि उन्हें देखकर ही सुभाष नगर के बच्चे-बड़े ऐसी अनूठी परम्परा शुरू करने के लिए प्रेरित हुए होंगे।
सुभाष नगर की प्रसिद्धि
दिल्ली में रहने वालों के लिए सुभाष नगर पहुंचना आसान है। इसके नजदीक दो मेट्रो स्टेशन हैं—पहला, सुभाष नगर और दूसरा, टैगोर गार्डन। सुभाष नगर इन दोनों स्टेशनों के बीच में बसा और फैला है। आज़ाद हिंद फ़ौज के संस्थापक सुभाष चंद्र बोस के नाम पर, यह 1962 से पहले बसी कॉलोनी है। बंटवारे के वक्त अब पाकिस्तान से दिल्ली आए कुछ रिफ्यूजियों को यहां बसाया गया था।
फिल्मों की शूटिंग भी
साल 2009 के आसपास इस कॉलोनी में हिंदी फ़िल्म ‘बैंड बाजा बरात’, फिर 2014 में एक और हिंदी फिल्म ‘बैंग- बैंग’ और 2020 में हिंदी वेब सीरीज़ ‘ब्रीथ इनटू द शैडोज़’ की शूटिंग भी हो चुकी हैं।