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बहते पानी सा संवादों का लहजा

फिल्मों की हिंदी में बदलाव
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हिंदी फिल्मों की शुरुआत से लेकर अस्सी के दशक तक पर्दे पर कलाकारों की भाषा में खास ठहराव और ‘दबाव’ होता था। एक तरह का शास्त्रीय और मंचीय प्रभाव। जिससे कभी-कभी बनावटीपन लगता था। लेकिन आज के अभिनेताओं-अभिनेत्रियों की फिल्मी भाषा में सहज प्रवाह और लचीलापन है। संवाद असल जिंदगी से जुड़े महसूस होते हैं।

डी.जे.नंदन

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अगर आपसे यह सवाल किया जाए कि क्या बॉलीवुड फिल्मों में बोली जाने वाली आज की हिन्दी, पिछली सदी के पचास, साठ, सत्तर और अस्सी के दशकों की बॉलीवुड फिल्मों की हिंदी से बेहतर है? तो इस सवाल का कोई सटीक जवाब नहीं हो सकता। फिर भी बेशक आज की फिल्मों की हिंदी अगर पहले की फिल्मों से बेहतर नहीं भी है, तो भी यह पहले से ‘अलग और असरदार’ है। आज की हिन्दी ज्यादा लचीली, संवादधर्मी और ग्लोबल शहरी अनुभव से जुड़ी है।

संवादों में सहजता

आज की पीढ़ी के अभिनेता और अभिनेत्रियां हिंदी को कहीं ज्यादा आत्मविश्वास से बोलते हैं। विक्की कौशल (फिल्म- सरदार ऊधम) को देखिये वह आत्मविश्वास और गहराई के साथ हिंदी बोलते हैं। न संवादों में कोई बनावट, न हिचक- जैसे ‘जो लहू नहीं खोला, वो लहू नहीं...’ इस उच्चारण में हिंदी के लिए गर्व और सहजता दोनों दिखते हैं। पिछली सदी के सत्तर और अस्सी के दशक में अमिताभ बच्चन की हिन्दी बहुत समृद्ध लेकिन नाटकीय थी, ‘संवाद अदायगी’में मंचीय असर था। जबकि आज की हिंदी में एक सहज बहाव है।

‘राज़ी’ की मिसाल

आजकल बॉलीवुड फिल्मों में सहज भाषाई फ्लो का एक खूबसूरत उदाहरण आलिया भट्ट की फिल्म ‘राज़ी’ है। इस फिल्म में आलिया ने जिस तरह की हिंदी बोली है, उसमें पानी जैसा बहाव है। कोई शब्द अतिरिक्त ज़ोर देकर नहीं बोला गया था, फिर भी शब्द असरदार थे। जबकि अपने दौर में अमिताभ बच्चन संवाद में ज्यादा ही मंचीयता भर देते थे। उनसे पहले दिलीप कुमार अपने डायलॉग को इतना ज्यादा अभिनय सेंट्रिक कर देते थे कि दर्शक डायलॉग को सुनने की जगह देखने लगता था।

क्षेत्रीयता से मुक्त उच्चारण

अपने जमाने की महान अभिनेत्री स्मिता पाटिल (फिल्म भूमिका) भी बहुत अच्छी हिन्दी बोलती थीं; लेकिन उनकी हिंदी गूंजदार, ठहराव से भरी होती थी। उच्चारण नाटकीय लगता था। लेकिन आज के ज्यादातर अभिनेता-अभिनेत्रियों का उच्चारण और लहजा क्षेत्रीयता से मुक्त है? मसलन जान्हवी कपूर ने फिल्म- गुड लक जैरी में पंजाबी पृष्ठभूमि की भूमिका निभाई, फिर भी उच्चारण ‘न्यूट्रल शहरी हिन्दी’ में रहा.. न पंजाबी झलक, न दक्षिण भारतीय प्रभाव। इसके उलट राजकुमार ( पाकीज़ा, वक्त) के उच्चारण में भारी उर्दू-शैली का असर था। आज की हिन्दी स्मूद है? कुछ लोग इसे ‘नेटफ्लिक्स हिन्दी’ कहते हैं। सिद्धांत चतुर्वेदी ने (फिल्म गली बॉय) हिन्दी, उर्दू और स्ट्रीट स्लैंग का मिश्रित रूप स्मूद ढंग से पेश किया - संवादों में बनावटीपन नहीं।

भाषाई सौंदर्य बनाम सहज भाव

अपने जमाने में राजेश खन्ना या शत्रुघ्न सिन्हा जैसे अभिनेता अक्सर अपने मूल क्षेत्रीय लहजों को पूरी तरह छोड़े बिना हिन्दी बोलते थे- जो उस दौर में ‘स्वाभाविक’ मानते थे। जबकि आज की पीढ़ी की हिंदी ज्यादा कैज़ुअल, लचीली और ‘असल ज़िंदगी से जुड़ी’ लगती है। पहले की हिन्दी में ‘भाषाई सौंदर्य’ था, आज की हिन्दी में ‘संवादिक सहजता’ है। शायद आज की हिंदी ज्यादा असरकारी होने का कारण यह भी कि हिंदी सिर्फ संवाद की भाषा नहीं है, इसमें भावनात्मक गहराई भी है?

पर्दे पर हिंदी को जीने का हुनर

आज के अभिनेताओं को मंचीय प्रशिक्षण, स्क्रिप्ट वर्कशॉप्स और संवाद को स्वाभाविक बनाने की ट्रेनिंग मिलती है। उन्हें ‘कैज़ुअल फ्लुएंसी’ की ज़रूरत होती है, मतलब, हिंदी ऐसे बोलना, जैसे रोज़मर्रा की ज़िंदगी की भाषा हो। विक्की कौशल, राजकुमार राव, तापसी पन्नू, भूमि पेडनेकर... सभी संवादों में हिन्दी को आत्मसात कर बोलते हैं। ये हिंदी को परफॉर्म नहीं करते, ‘जीते’ हैं। पिछली सदी के 70 और 80 के दशक में, अभिनेता हिंदी को ठहराव और ‘दबाव’ से बोलते थे। यह ‘शास्त्रीय लहजा- था जैसे दिलीप कुमार, अमिताभ, शबाना, स्मिता पाटिल, नसीरुद्दीन शाह आदि। जबकि आज की हिन्दी प्राकृतिक, तेज़, और हल्की लय में आती है.. मगर इसमें ‘भार’ अक्सर कम होता है।                                    -इ.रि.सें.

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