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मिठाइयों की वो बात जो हर दिल को भाए

खास मिठास
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देश के तमाम प्रदेशों और हिस्सों में दिवाली और दूसरे तीज-त्योहारों पर अलग-अलग नामों और ज़ायकों की मिठाइयों का चलन सदियों से है। मौके-बेमौके पर मिठाइयां खाने-खिलाने की चाह हर किसी को होती ही है। इसीलिए हर तीज-त्योहार से किसी न किसी मिठाई का खास जुड़ाव रहता है।

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दिवाली मिठाइयां बांटने, खाने और मुंह मीठा करने-कराने का महापर्व भी है। देश के तमाम प्रदेशों और हिस्सों में दिवाली और दूसरे तीज-त्योहारों पर अलग-अलग नामों और ज़ायकों की मिठाइयों का चलन सदियों से है। मौके-बेमौके पर मिठाइयां खाने-खिलाने की चाह हर किसी को होती ही है। इसीलिए हर तीज-त्योहार से किसी न किसी मिठाई का खास जुड़ाव रहता है। दिवाली के बहाने मुंह मीठा करने की शुरुआत उत्तर भारत से करते हैं। सारा साल ही जम्मू और वैष्णो देवी के आधार शिविर कटरा के हलवाई चॉकलेट नाम की देसी घी की मिठाई के लिए मशहूर हैं। इसे कई बार जम्मू वाली बर्फी के नाम से भी जानते हैं। लेकिन दिल्ली समेत देश के कई शहरों में यह दिवाली से मिलने लगती है। इसे जितना चबाएंगे, मुंह में उतना स्वाद आता जाता है। स्वाद का राज है कि इसमें दूध, खोया, चीनी और देसी घी के अलावा कुछ भी नहीं है। इसे बनाने में 3 घंटे से ज्यादा लगते हैं क्योंकि इतना भूनना पड़ता है कि भून-भूनकर चॉकलेट की तरह रंग एकदम गाढ़ा हो जाए। उधर बाल मिठाई उत्तराखंड की लोकप्रिय मिठाई है। यह भुने खोए पर चीनी की छोटी-छोटी सफेद बिंदुओं को चिपकाकर बनती है और दिखने में भूरे चॉकलेट जैसी ही होती है। उत्तराखंड के सभी हलवाई सारा साल ही खूब बनाते-खिलाते हैं।

अटल जी ने खिलाई खुरचन

मथुरा के पेड़े और आगरा के पेठा के तो क्या ही कहने। मथुरा-वृंदावन के मंदिरों में खोए के पेड़ों का ही भोग लगता है, और तीर्थ यात्री मथुरा के प्रसाद के तौर पर पेड़े ही लेकर घर लौटते हैं। लेकिन दिल्ली की कलाकंद, मिल्क केक और खुरचन लोकप्रियता में मिठाइयों का राजा ही समझिए। एक-दूसरे से मिलती-जुलती सभी दूध की मिठाइयां हैं। सभी को दूध और चीनी को घंटों काढ़-काढ़कर बनाते हैं, केवल कम या ज्यादा घंटों का फर्क होता है। हलवाई बताते हैं कि करीब 15 लीटर दूध को 3-4 घंटे काढ़कर महज़ 4 किलो ही कलाकंद बन पाता है। दूध की मिठाइयों की तारीफ इस हद तक कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जब बस से लाहौर दोस्ती का हाथ मिलाने गए, तो अपने संग पड़ोसी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का मुंह मीठा कराने दिल्ली के सौ साल पुराने ‘हजारी लाल जैन खुरचन वाले’ की दुकान की खुरचन और रबड़ी के थाल भरकर ले गए थे।

दक्षिण भारत की खास मिठाइयां

दक्षिण भारत की देसी घी की मिठाइयों की अपनी पहचान और कद्र है। तरह-तरह के लड्डुओं के लिए पंजाब और उत्तर प्रदेश ही नहीं जाने जाते, कर्नाटक में मा लड्डू, रावा लड्डू, खजूर लड्डू, गौंद गीरी लड्डू वगैरह खूब चाव से खाए जाते हैं। लड्डू ही नहीं, अन्य मिठाइयों में बेसन व देसी घी की मैसूर पाक क्या बात है। मिल्क मैसूर पाक की भी तारीफ कम नहीं है। दक्षिण की एक और खासमखास मिठाई है — आधीरसम। आधीरसम गुड़ और चावल की मट्ठी ही समझिए।

उत्तर की खीर और लड्डुओं की मिठास

शरद पूर्णिमा में दूध-चावल-चीनी की खीर खाने-खिलाने की प्रथा है। खीर तो पंजाबी परिवारों में सावन के दिनों में भी घर-घर बनाई-खाई जाती है। दिवाली से ठंड की शुरुआत के साथ ही झांग के हलवाई एक और मिठाई बनाने लगते हैं, जिन्हें कहते हैं — गुड़ के चीड़ के लड्डू। बीच में मैदे के गुड़ पारे हैं और ऊपर गुड़ की मोटी परत। खाते-खाते गुड़ की ऊपरी मोटी परत दांतों में चिपक-चिपक जाती है, जिससे मुंह में अलग ही तरह का जायका घुलता है। मट्ठी के पारंपरिक मित्र गुड़ पारों से हटकर है।

घेवर, पेठा और डोडा की शान

सावन में पेश मलाई घेवर और होली पर गुझिया के चर्चे अब राजस्थान से निकलकर देश-दुनिया में होने लगे हैं। दोनों मिठाइयां बेशक राजस्थान की मानी जाती हैं, लेकिन घेवर तो हरियाणा के सोनीपत और उत्तर प्रदेश के बागपत के बड़े मशहूर हैं। खासियत है कि देसी घी के हैं और मुंह में खुद-ब-खुद घुल जाते हैं। सबसे खास वैरायटी लाल, दूध और मलाई घेवर होती है। उत्तर प्रदेश ख़ासतौर से कानपुर के मोतीचूर लड्डुओं का अपना रुतबा है। कानपुर के तिवारी ब्रदर्स के देसी घी के मोतीचूर लड्डू तो क्या मस्त हैं। इस हलवाई की मुंबई स्थित शाखा से तो बिग बी अमिताभ बच्चन भी खास दिनों में मंगवाकर खाते-खिलाते हैं। बताया जाता है कि अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे, तब अपने होली मिलन समारोह में आमंत्रित मेहमानों का मुंह मीठा गुझिया की बजाय इन्हीं के मोतीचूर लड्डुओं से करवाते थे।

पेठा और अंगूरी पेठा आगरा का है, तो डोडा बर्फी पंजाब और जम्मू की लोकप्रिय मिठाई है। अंकुरित गेहूं को सुखा और पीसकर तैयार अंगूरी से बनाते हैं। अंगूरी, दूध, चीनी वगैरह की कड़ाही में घंटों काढ़-काढ़कर डोडा को काजू-पिस्ता की टॉपिंग कर, बर्फी की शेप में बनाते हैं। कराची हलवा और सोहन हलवा ठेठ दिल्ली की मिठाइयां कहलाती हैं। सोहन हलवा देखने में बेशक सख़्त लगता है, लेकिन खाने में कुरमुरा है, बावजूद इसके ज्यादा चबाना नहीं पड़ता क्योंकि इसमें करीब 70 फ़ीसदी देसी घी ही होता है। मुस्लिम बिरादरी मिठाइयों में हब्शी हलवा खाना पसंद करती है। दूध, समलख (अंकुरित गेहूं), देसी घी, जाफरान, केसर, मेवे, चीनी वगैरह को कड़ाहियों में 10–12 घंटे पका-पका कर बनाते हैं।

बंगाली, पंजाबी मिठाइयों का ज़ायका

पंजाब की उड़द दाल को भूनकर बनी पिन्नियों की चाह कम नहीं है। पंजाब की ही सर्दियों की खास मिठाई तिल बुग्गा—खोए-चीनी को भूनकर, तिल और मेवे मिलाकर, लड्डुओं की शक्ल में बनाते हैं। रसोगुल्ला, मोहन भोग, रसकदम, रसो माधुरी, संदेश वगैरह ज़्यादातर बंगाली मिठाइयों की दुर्गा पूजा से काली पूजा तक बहार रहती है। बंगाली मिठाइयां गाय के खालिस दूध की छैना से जो बनाई जाती हैं, इसीलिए उम्र दो दिन ही है।

मिक्स मिठाई का डिब्बा

दिवाली के बाद मुरैना, मेरठ, आगरा, रोहतक वगैरह देश के कई शहरों से आकर, ज्यादातर रेवड़ी-गजक वाले देश के सर्द इलाक़ों में छा जाते हैं। बिस्कुटों की तरह दो-तीन महीने खाने लायक रहने की वजह से पतीसे का भाई-बहन सोनपापड़ी भी बीते कुछ दशकों से दिवाली में बांटने के लिए चलने लगा है। काजू कतली, बेसन लड्डू और बालूशाही ज्यादा दिन चलती है। इसलिए खोया बर्फ़ी के मुक़ाबले काजू कतली खूब पसंद की जाती है। काजू कतली बनाने के लिए काजू को भिगोकर पीसते हैं, फिर चीनी के साथ मिलाकर, बर्फी की शक्ल में ढालते हैं। ऊपर चांदी का वर्क शोभा बढ़ाता है।

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