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फीकी पड़ रही है सिक्कों की चमक

ऑनलाइन भुगतान के बढ़ते चलन का असर
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हाल ही में एक बुजुर्ग दंपति की चंद सिक्कों से मंगलसूत्र खरीदने की चाह व कोशिश की मार्मिक घटना ने सिक्कों को चर्चा में ला दिया। दरअसल देश में जैसे-जैसे डिजिटल लेन-देन बढ़ रहा है, वैसे-वैसे हमारी वाणिज्यिक दुनिया और संस्कृति का आधार रहे सिक्के गुमनामी में जा रहे हैं। बेशक कुछ ग्रामीण अंचलों में अभी उनका चलन है। सिक्कों की भावनात्मक गूंज भारत की सामूहिक स्मृतियों में है। वे इतिहास में संप्रभुता, शासन और पहचान के प्रतीक रहे हैं। सिक्कों का भविष्य अनिश्चित है। ऐसे में ‘सिक्का चलना’जैसी कहावतें अर्थ खो सकती हैं व गुल्लकों में इनकी खनकार भी।

डॉ. संजय वर्मा (मीडिया यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर)

महाराष्ट्र के छत्रपति संभाजीनगर की हालिया घटना है। निवृत्ति शिंदे नाम के 93 वर्षीय बुजुर्ग संभाजीनगर की एक गली में जौहरी की दुकान में पहुंचे, तो उनके हाथ में मौजूद पोटली में 1120 रुपये के सिक्के थे। जालना जिला निवासी सफेद धोती-कुर्ता पहने शिंदे का मकसद था कि वह अपनी जिंदगी रहते पत्नी शांताबाई के लिए सोने का एक सस्ता मंगलसूत्र खरीदे। दो बेटों और एक बेटी के पिता शिंदे के एक बेटे की मौत कुछ साल पहले हो गई थी और दूसरा बेटा अपने मां-बाप की देखभाल करने में असमर्थ था। लिहाजा संभाजीनगर में एक मंदिर परिसर में बीते कई सालों से दान-दक्षिणा लेकर गुजारा करने वाले शिंदे दंपति ने पाई-पाई जमा करते हुए यह ‘बड़ी रकम’ जुटाई थी। लेकिन इतनी नहीं थी कि एक लाख रुपये तोले तक पहुंच चुके सोने का हल्का और सस्ता आभूषण भी खरीद सकें। चार ज्वैलर्स जुटाए गए इन सिक्कों को बेकार बताकर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा चुके थे। पांचवें दुकानदार से भी उन्हें खास उम्मीद नहीं थी। लेकिन आशाओं की पोटली में बंधे उनके सिक्कों का वजन देखकर इस ज्वैलर ने महज 20 रुपये के सिक्कों के बदले एक मंगलसूत्र देने की पेशकश कर दी। सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो में कैद इस जोड़े के कृतज्ञता भरे आंसू एक ऐसी दुनिया की कहानी बयां करते हैं, जहां सिक्कों का अभी भी बहुत महत्व है - न केवल मौद्रिक, बल्कि भावनात्मक भी। फिर भी, दिल छूने वाली यह कहानी आधुनिक भारत में एक विसंगति की तरह है, जहां सिक्कों की झंकार मंद हो रही है और चमक फीकी पड़ रही है। कारण है यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (यूपीआई) का चकाचौंध भरा डिजिटल करिश्मा, जिसने रुपयों-पैसों का लेनदेन और भुगतान प्रक्रिया को बेहद आसान कर दिया है, लेकिन उसकी धमक के आगे सिक्के अपनी खनक खोते जा रहे हैं।

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हमारे देश में जैसे-जैसे डिजिटल लेन-देन बढ़ रहा है, वैसे-वैसे मामूली सिक्के, जो कभी हमारी वाणिज्यिक दुनिया और संस्कृति का आधार था, गुमनामी की गर्त में जा रहे हैं। हाल में जारी भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की रिपोर्ट ने 2023-24 की तुलना में 2024-25 में प्रचलन में सिक्कों की मात्रा में मात्र 3.6 फीसदी वृद्धि दर्ज की है, जो 2016-17 की 8.5 फीसदी बढ़ोतरी के मुकाबले बहुत कम है। यह वही वित्तीय साल (2016-17) था, जिस वर्ष यूपीआई लॉन्च किया गया था। इस वित्त वर्ष यानी 2024-25 में सिक्कों का मूल्य केवल 9.6 फीसदी बढ़ा, जो 2016-17 के 14.7 फीसदी से कम है। नेशनल पेमेंट्स कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (एनपीसीआई) के अनुसार, मार्च 2017 में यूपीआई लेनदेन 6.4 मिलियन (₹2,425 करोड़) से बढ़कर मार्च 2025 तक 18.3 बिलियन (₹24,77,221 करोड़) हो गया। ये तथ्य व आंकड़े ऐसी कहानी सुनाते हैं, जिसमें दर्ज होते नए किस्से यूपीआई की चमक से सिक्कों का भविष्य धुंधलके में ठेलते जा रहे हैं।

धातु और चमड़े में गढ़ी हमारी विरासत

भारत में सिक्के का महत्व केवल मुद्रा के रूप में या वित्तीय लेनदेन के मुकाबले कहीं अधिक रहा है। वे प्रागैतिहासिक काल से ही सत्ता, शासन और पहचान के प्रतीक रहे हैं। मौर्यकालीन पंच-मार्क वाले सिक्कों से लेकर गुप्तों के सोने के दीनार तक, मुद्रा पर शासक वंश की मुहर लगी हुई थी, जो संप्रभुता का प्रतीक थी। तुगलक काल के दौरान, पीतल और तांबे से बने टोकन सिक्कों सहित मुद्रा के साथ मुहम्मद बिन तुगलक के प्रयोगों ने नवाचार और अराजकता दोनों को दर्शाया। सिक्के हमेशा धातु के नहीं होते थे; कुछ कालावधियों में चमड़े के सिक्कों का इस्तेमाल भी किया गया। ऐसे उदाहरण धातुओं की अनुपलब्धता और टकसालों द्वारा पर्याप्त मात्रा में ढलाई नहीं कर पाने के हालात में मुद्रा की अनुकूलनशीलता के प्रमाण थे। सभी किस्सों के ये सिक्के केवल व्यापार के उपकरण नहीं थे, बल्कि हमारे इतिहास के वाहक थे, जो उनके निर्माताओं की महत्वाकांक्षाओं और सौंदर्यशास्त्र से उकेरे गए थे। सिक्कों और रुपयों की अनंत कहानियां हैं जिसमें आधुनिक किस्म के ब्रिटिश काल की मुद्राएं शामिल होती हैं। इनमें इकन्नी-दुअन्नी (1 पैसा, 2 पैसा) भी था और वजनदार एक रुपया भी था, जो एक आम इंसान के लिए बड़ी उपलब्धि हुआ करता था। हालांकि बात सिक्कों की हो रही है, लेकिन इस पूरे सिलसिले में रुपया भी आता है। चाहे वह नोट की शक्ल में हो या सिक्कों के रूप में, इस भारतीय रुपये का अपना एक गौरवशाली इतिहास है। 20वीं सदी के मध्य में, हमारा यह रुपया ओमान, दुबई, कुवैत, बहरीन, कतर, केन्या, युगांडा, सेशेल्स और मॉरीशस तक में आधिकारिक मुद्रा हुआ करती थी। इन देशों द्वारा अपनी मुद्राएं अपनाने के बाद भी, लंबे अरसे तक भारतीय रुपये का प्रभाव बना रहा। सोने की तस्करी पर लगाम लगाने के लिए 1960 के दशक में भारत द्वारा शुरू किया गया खाड़ी रुपया (गल्फ रुपी) कई खाड़ी देशों में तब तक स्वीकार किया जाता था, जब तक कि 1966 में रुपये के अवमूल्यन ने उन्हें अपनी मुद्राएं स्थापित करने के लिए प्रेरित नहीं किया। आज, नेपाल और भूटान में रुपया वैध मुद्रा बना हुआ है, हालांकि नेपाल में अब 500 रुपये के नोट स्वीकार नहीं किए जाते। सिंगापुर, मलेशिया और श्रीलंका जैसे देशों में, हमारे यहां से गए पर्यटकों का भारतीय रुपया व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है। यह हमारी मुद्रा की प्रतिष्ठा को दर्शाता है। जहां तक आधुनिक और आजाद भारत के सिक्कों की बात है, तो 1950 में स्वतंत्र भारत ने पहली बार अपने सिक्कों की ढलाई, ने एक नया अध्याय लिखा। महात्मा गांधी श्रृंखला के बैंक नोट 1996 में शुरू हुए, और 2010 में, रुपये का प्रतीक (₹), देवनागरी ‘र’ और अंग्रेजी ‘आर’ को मिलाकर अपनाया गया, जो सांस्कृतिक पहचान का एक गौरवपूर्ण दावा था। उसी वर्ष ₹75, ₹100 और ₹1,000 के स्मारक सिक्के लॉन्च किए गए, हालांकि ये प्रचलन में लाने के बजाय संग्रहकर्ताओं के लिए थे। वर्ष 2011 तक, ₹ चिह्न वाले सिक्के रोज़मर्रा के इस्तेमाल में आ गए, उनकी धातुई खनक बाज़ारों और मंदिरों में एक जानी-पहचानी आवाज़ बन गई।

कहावतों और मुहावरों की मुद्रा

मुद्रा के तौर पर सिक्कों के विविध रूपों ने भारतीय भाषा और संस्कृति के ताने-बाने में भी खुद को स्थापित किया। कई हिंदी कहावतें और मुहावरे उनके महत्व को दर्शाते हैं। जैसे, “कौड़ी-कौड़ी जोड़ना”, “पाई-पाई का हिसाब रखना”, “सिक्का चलना” और “खोटा सिक्का”। दो कौड़ी का आदमी नहीं होना, बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपैया, पैसे का पेड़ लगा है क्या? चमड़ी जाए पर दमड़ी ना जाए, पैसा हाथ की मैल है और आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपय्या, आदि कहावतें-मुहावरे हमारे देश की एक समृद्ध विरासत के प्रतीक हैं। सिक्का-आधारित अर्थव्यवस्था में पैदा हुए ये भाव दैनिक जीवन में मुद्रा का स्पर्शनीय और प्रतीकात्मक महत्व दर्शाते हैं।

जारी है सिक्कों का संघर्ष

हालांकि डिजिटल लहर के बावजूद, खासकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सिक्के लाखों लोगों के लिए महत्वपूर्ण बने हुए हैं। तथ्य बताते हैं कि 31 मार्च, 2025 तक, हमारे देश में 50 पैसे, ₹1, ₹2, ₹5, ₹10 और ₹20 जैसे मूल्यवर्ग के सिक्कों की कुल मात्रा 13.7 लाख थी, जिसका मूल्य ₹36,589 करोड़ था। ₹1, ₹2 और ₹5 के सिक्कों की कुल मात्रा में 81.6 प्रतिशत और मूल्य में 64.2 प्रतिशत हिस्सेदारी थी, जो कम मूल्य के लेन-देन में उनके प्रभुत्व को रेखांकित करता है। छोटे खुदरा विक्रेताओं, सड़क विक्रेताओं, बसों और मंदिरों जैसे स्थानों पर अपनी उपयोगिता के कारण सिक्के आज भी अपरिहार्य हैं, खासकर उन क्षेत्रों में जहां डिजिटल बुनियादी ढांचा विरल या गैर-भरोसेमंद है। बिहार, उड़ीसा या महाराष्ट्र के उन गांवों में, जहां निवृति शिंदे और शांताबाई रहते हैं, सिक्के अभी भी दैनिक व्यापार की जीवनरेखा हैं। भूलना नहीं चाहिए कि शिंदे दंपति के लिए,दान-दक्षिणा में मिला हर सिक्का एक दशक पुराने उनके स्वप्न को पूरा करने की दिशा में एक कदम था। उनकी कहानी भारत जैसे विशाल देश के उन लाखों लोगों से मिलती-जुलती है जो जीवित रहने के लिए सिक्कों पर निर्भर हैं- चाहे किसान खेती के लिए बीज खरीद रहे हों या बच्चे टॉफी-कैंडी। विश्लेषकों का कहना है कि उच्च मूल्य वाले सिक्कों (₹10 और ₹20) ने प्रचलन में मौजूद सिक्कों की कुल कीमत बढ़ाई है, लेकिन डिजिटल भुगतान के कारण सिक्कों के जरिए होने वाले छोटे लेन-देन पर भी अतिक्रमण हुआ, जिस कारण उनकी मात्रात्मक वृद्धि धीमी है। वैसे, सिक्कों के इस्तेमाल में गिरावट एक समान नहीं है। शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में, जहां स्मार्टफ़ोन और इंटरनेट की पहुंच व्यापक है, ने यूपीआई को पूरे जोश-खरोश से अपनाया गया है। प्रोटिविटी मेंबर फ़र्म फ़ॉर इंडिया के एमडी (टेक्नोलॉजी और डिजिटल) वैभव कौल का मानना है कि यूपीआई ने इन क्षेत्रों में भौतिक मुद्रा विनिमय की मांग काफ़ी कम कर दी है। फिर भी, ग्रामीण भारत में, जहां डिजिटल मुद्रा अपनाने की गति धीमी है, सिक्के अभी एक विश्वसनीय मौद्रिक माध्यम बने हुए हैं। इसके विपरीत शहरों में बहुत बड़ा वर्ग पैदा हो गया है, जो मौद्रिक लेनदेन के लिए डिजिटल उपायों को अहमियत दे रहा है। जैसे, मुंबई का एक चायवाला ₹10 के भुगतान के लिए ग्राहकों को क्यूआर कोड स्कैन करने को कह सकता है। लेकिन बिहार के एक गांव में एक सब्ज़ी विक्रेता अभी भी छुट्टे के रूप में ₹1 या ₹2 के सिक्के बदले में दे देता है।

डिजिटल क्रांति से सिक्कों का पतन

मौद्रिक लेनदेन के लिए डिजिटल शैलियों का उदय और सिक्कों का पतन अप्रैल 2016 में लॉन्च किए गए यूपीआई के साथ हुआ, जिसने भारत के भुगतान परिदृश्य में क्रांति ला दी। यूपीआई की अहम खासियत है - क्यूआर कोड के जरिए स्कैनिंग से पैसे तुरंत ट्रांसफर करने की सुविधा, जिसके लिए पैसे का लेनदेन करने वाले दो लोगों या संगठनों के मोबाइल नंबर दर्ज करना अथवा केवाईसी प्रक्रिया का एक बार पालन करना अनिवार्यता मात्र है। इस सहूलियत ने यूपीआई को शहरी क्षेत्र में एक बड़ा गेम-चेंजर बना दिया। खासकर छोटे-मूल्य के वे लेन-देन, जो कभी सिक्कों के मुख्य डोमेन थे, उन पर अब यूपीआई हावी हो गया। सड़क किनारे 5 रुपये में मूंगफली बेचने वाला विक्रेता या दान इकट्ठा करने वाला मंदिर आज आसानी से डिजिटल भुगतान स्वीकार कर सकता है। एनपीसीआई के डेटा इस बदलाव को दर्शाते हैं कि यूपीआई का चामत्कारिक उदय सिक्कों के प्रचलन में आई मंदी के साथ हुआ है। भारतीय रिजर्व बैंक की वार्षिक रिपोर्ट इसी प्रवृत्ति का उद्घाटन करती है। जिसके मुताबिक, यूपीआई लॉन्च से पहले 2015-16 में, प्रचलन में सिक्कों का मूल्य 12.4 प्रतिशत और मात्रा 8.2 प्रतिशत बढ़ी। 2016-17 तक, वृद्धि दर क्रमशः 14.7 प्रतिशत और 8.5 प्रतिशत थी, जो सिक्कों पर आधारित मजबूत अर्थव्यवस्था को दर्शाती है। लेकिन यूपीआई के आगमन के बाद दिशा बदल गई। 2020-21 में कोविड महामारी ने बड़ा झटका दिया, जिसमें संपर्क रहित भुगतानों के बढ़ने के कारण सिक्कों के मूल्य में केवल 2.1 प्रतिशत और मात्रा में 1 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इसके बाद के वर्षों में- 2022-23 और 2023-24 में मात्रा में क्रमशः 2.6 प्रतिशत और 3.5 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई, जो यूपीआई के पहले के स्तरों से बहुत कम है।

असल में, डिजिटल अर्थव्यवस्था के बढ़ते आकर्षण के कुछ ठोस कारण हैं। यूपीआई की सुविधा, गति और पहुंच ने इसे महज आर्थिक बदलाव तक सीमित नहीं रखा बल्कि एक सांस्कृतिक घटना बना दिया । महानगरों से लेकर टियर-2 शहरों और कस्बों तक, क्यूआर कोड दुकानों के काउंटर, ऑटो-रिक्शा और सड़क किनारे रेहड़ी-पटरी वालों के पास तक दिखाई देते हैं। उन ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां स्मार्टफोन की पहुंच बढ़ रही है, यूपीआई अपनी जगह बना रहा है। इससे सिक्कों की प्रासंगिकता और कम हो रही है। “सिक्कों की चमक फीकी पड़ रही है”- यह वाक्यांश परपंरा को अलविदा कहते हुए आधुनिकता को अपनाने वाले राष्ट्र के लिए एक मार्मिक रूपक बन गया है। वस्तुतः सिक्के रहित भविष्य की भावनात्मक कीमत के तौर पर हो रहा सिक्कों का पतन आर्थिक बदलाव की घटना से कहीं अधिक है। यह एक सांस्कृतिक और भावनात्मक क्षति है। सदियों और पीढ़ियों से, सिक्के इतिहास और पहचान से जुड़े हुए थे। बच्चे साइकिल या मिठाई के सपने देखते हुए उन्हें गुल्लक में सहेज कर रखते थे। गुल्लकें वजूद में इसीलिए आईं कि जेबखर्च के लिए मिलने वाले रुपये-पैसों में से बचे हुए सिक्के उनमें जमा किए जा सकें। गुल्लकों की खनकार और किसी गाढ़े (मुश्किल) वक्त में उन्हें फोड़कर सिक्कों के रूप में मिलने वाली खुशी अनिर्वचनीय रही है। श्रद्धालु सिक्कों को मंदिर के हुंडी बक्सों में और ट्रेनों से पवित्र नदियों फेंकते रहे हैं। वहां सिक्कों की खनक में समृद्धि की प्रार्थना निहित होती थी। भिखारियों के जमा किए गए सिक्कों के बदले दुकानदार उन्हें नोट देते रहे हैं। नेताओं को सिक्कों से तौला जाना जनता के उनसे लगाव और बदले में नेता का उनके विकास का आश्वासन देने जैसा रहा है। इस तरह सिक्कों की आवाज़ भारत के समाज और बाज़ारों की ध्वनि थी, जो अब फीकी पड़ रही है। निवृत्ति शिंदे और शांताबाई जैसे लोगों के लिए, सिक्के सिर्फ़ मुद्रा नहीं बल्कि संघर्ष और उम्मीद के प्रतीक हैं। उनके द्वारा बड़ी मेहनत से इकट्ठा किए गए 1,120 रुपये उनके प्यार और बलिदान का वजन ढो रहे थे। जब चार जौहरियों ने उनके सिक्के लेने से मना कर दिया, तो यह सिर्फ़ लेन-देन से इनकार नहीं था - यह उनकी गरिमा का हनन था। पांचवें जौहरी की दयालुता ने उनका विश्वास फिर से जगाया। लेकिन उनकी यह कहानी एक वास्तविकता उजागर करती है : डिजिटल भुगतान से चकाचौंध दुनिया में सिक्के अपनी जगह खो रहे हैं।

भावनात्मक लगाव में लगती सेंध

हम कह सकते हैं कि सिक्कों की भावनात्मक गूंज भारत की सामूहिक स्मृतियों में दूर तक फैली हुई है। ध्यान दीजिए कि 50 पैसे का सिक्का, जिसकी कभी एक अहम विनिमय शक्ति थी और एक सरल दुनिया व समय की याद दिलाती थी, अब दुर्लभ हो गई है। यूं तो छोटा लेकिन शक्तिशाली ₹1 का सिक्का, अभी भी प्रचलन में है, लेकिन इसका भविष्य अनिश्चित है। ऐसे में “सिक्का चलना” जैसी कहावतें अपना अर्थ खो सकती हैं। चूंकि सिक्के गायब हो रहे हैं, इसलिए उनकी जगह डिजिटल कौशल का जश्न मनाने वाले वाक्यांशों ने ले ली है। जैसे, अब यूपीआई के विज्ञापनों में कहा जाने लगा है- पैसे, तुम बहुत बदल गए हो यार। सिक्के को हाथसे पकड़ने और उन्हें मुठ्ठी में बंद करते हुए, उनकी लकीरों और नक्काशियों को महसूस करने के स्पर्शपूर्ण आनंद की जगह स्मार्टफोन स्क्रीन पर नीरस टैपिंग ने ले ली है। भारत एक चौराहे पर खड़ा है, जहां परंपरा और प्रगति के बीच संतुलन बनाना मुश्किल हुआ जाता है। बेशक, यूपीआई की जीत देश की तकनीकी छलांग, वित्त के लोकतंत्रीकरण और समावेश को बढ़ावा देने की नीतियों का प्रमाण और परिणाम है। फिर भी, सिक्के का पतन दिलाता है कि हम अपने पीछे क्या-क्या छोड़ते जा रहे हैं। ग्रामीण समुदाय, छोटे विक्रेता और बुजुर्ग- जो डिजिटल बदलाव के लिए सबसे कम तैयार हैं- इसका खामियाजा भुगत रहे हैं। उनके लिए, सिक्के कोई इतिहास या अवशेष नहीं बल्कि ज़रूरतें हैं, नकदी पर निर्भर दुनिया में उनके लिए जीवन रेखा है। इसलिए अब यह सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक के लिए एक चुनौती है कि कैसे वे डिजिटल भुगतान को बढ़ावा देते हुए सिक्का-आधारित अर्थव्यवस्था को बनाए रखें। केंद्र की कैबिनेट कम मूल्य वाले यूपीआई लेनदेन को प्रोत्साहित करने की पहल को स्वीकृति देते हुए इस अंतर को पाटना चाहती है। लेकिन सिक्के का भाग्य तब तक तय नहीं होता जब तक कम मूल्य वाले लेनदेन में इसकी भूमिका को बनाए रखने के लिए ठोस प्रयास नहीं किए जाते। जैसे-जैसे भारत डिजिटल भविष्य की ओर बढ़ रहा है, शिंदे दंपति जैसी कहानियां हमें सिक्के की स्थायी शक्ति की याद दिलाती हैं। उन सिक्कों की धीमी लेकिन लगातार झनकार एक सच्चाई को प्रतिध्वनित करती है कि क्यूआर कोड और तत्काल हस्तांतरण की दुनिया में, यह मामूली सिक्का अभी भी मानवीय सपनों का वजन रखता है।

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