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एक ज्ञानतीर्थ में संरक्षित पुरखों की समृद्ध विरासत

सप्रे संग्रहालय
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चित्रांकन- संदीप जोशी
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‘तीर्थयात्रा करके किसी आस्तिक आदमी को जो आंतरिक आनंद और कृतार्थता का बोध होता है, वह मुझे आज हो रहा है। जिस मेहनत और खोजबीन से यहां देश की पत्रकारिता से जुड़ी अनमोल सामग्री जुटाई गई है, और जतन से संभाल कर रखी गई है, उसने इसे भारतीय पत्रकारिता से जुड़े और उसके इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले हर आदमी के लिये तीर्थ स्थान बना दिया।’ नवनीत व भाषा के संपादक रहे नारायण दत्त की यह टिप्पणी है भोपाल स्थित माधवराव सप्रे स्मृति समाचारपत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान के बारे में।

देश के हर विद्या अनुरागी की चिंता रही है कि उसके जाने के बाद उसके निजी संग्रह में मौजूद दुर्लभ पुस्तकों का भविष्य क्या होगा। खास फिक्र संग्रह में समय के साथ पीली पड़ती और हाथ लगाते झरने वाली दुर्लभ पांडुलिपियों को लेकर। यह भी कि आने वाली पीढ़ियों तक यह राष्ट्रीय बौद्धिक धरोहर कैसे पहुंचे। इन्हीं चिंताओं के बीच उपजी सोच के अनुरूप 19 जून 1984 को माधवराव सप्रे संग्रहालय की पहली ईंट रखी गई। जैसा कि होता है पहले इस योजना का मजाक बनाया गया, कहा गया- कहां कबाड़ी के धंधे में लग गए। एक साल के बाद टीम बनने लगी। तब लोगों को लगने लगा कुछ महत्वपूर्ण व बड़ा हो रहा है। संस्थापक विजय श्रीधर के साथ जुड़ने वाले कुछ जुझारू साथियों में सुरेश शर्मा, शौकत रमूजी, संतोष कुमार शुक्ल सूचना विभाग से थे। डायरेक्टर पद से रिटायर होकर श्री शुक्ला टीम में पूरी तरह सक्रिय हुए। मंथन से यह विचार सामने आया कि पत्रकारिता के शिखर पुरुष माखनलाल चतुर्वेदी और अन्य पत्रकारों-साहित्यकारों को बड़ा बनाने में माधवराव सप्रे जी का विशिष्ट योगदान रहा। अतः संग्रहालय उनके नाम पर ही बने।

एक विचार से संग्रहालय का आकार

1980 दशक में, जबलपुर व भोपाल के विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता विभाग खुले। विचार आया कि पत्रकारिता का प्रमाणिक इतिहास हिंदी में प्रकाशित किया जाना चाहिए। किताब लिखने की जिम्मेदारी म.प्र. हिंदी ग्रंथ अकादमी ने श्रीधर जी को दी। कालांतर मित्रों के साथ मिलकर वर्ष 1982-83 में ‘मध्य प्रदेश में पत्रकारिता का इतिहास’ पुस्तक की पांडुलिपी तैयार हुई।

खोज के ओज से निकली रोशनी

दरअसल, इस पुस्तक के प्रकाशन के दौरान प्रमाणिक सामग्री की तलाश सरकारी संस्थानों के बजाय विद्या अनुरागियों के निजी संग्रह की मदद से पूरी हुई। विद्यानुरागी परिवारों के निजी संग्रह में दुर्लभ पांडुलिपियां व पुस्तकें मिलीं। साझी चिंता थी कि इन पांडुलिपियों को बचाया नहीं तो ये विरासत नष्ट हो सकती है। दरअसल, कई महत्वपूर्ण पुस्तकें जर्जर स्थिति में थी। यक्ष प्रश्न था कि बचाया कैसे जाए। तभी जबलपुर में पं. रामेश्वर गुरु अंधेरे में उजली किरण जैसे मिले। यूं तो अंग्रेजी के पत्रकार थे लेकिन हिंदी के साहित्यकार थे। उनका बड़ा शौक था दस्तावेज एकत्र करने का। उनकी सलाह थी कि इन दुर्लभ पुस्तकों को नष्ट होने से बचाने के लिए इन्हें एक छत के नीचे एकत्र किया जाए। लेकिन इन प्रमाणिक पुस्तकों के संग्रह की व्यवस्था लाइब्रेरी की तरह न चलायी जाए। पांडुलिपी बाहर जाएगी तो निश्चित नहीं कि सुरक्षित लौटे। अतः रिसर्च स्कॉलर, पत्रकारों व लेखकों को चाहिए कि वे संग्रहालय में ही अध्ययन करें। लेकिन वे जर्जर पांडुलिपियों को उलटें-पलटें नहीं। वे सुरक्षा सुनिश्चित करें ताकि दुर्लभ पांडुलिपियां आने वाली पीढ़ियों हेतु संरक्षित रह सकें।

संग्रहालय का पहला पड़ाव

कमला पार्क में रानी कमलावती महल परिसर में 600 वर्ग फुट जमीन सप्रे संग्रहालय के लिये 1984 में मिली। लेकिन संग्रहालय एक साल में भर गया। फिर नयी जगह में 3000 वर्ग फुट में संग्रहालय चला। छह साल में जगह फिर भर गई। फिर आग्रह पर मध्य प्रदेश सरकार से 1995 में 15000 वर्ग फुट जमीन आवंटित हुई। वर्ष 1996 में वर्तमान स्थल पर निर्माण कार्य शुरू हुआ और 2010 में पूरा हो सका। दरअसल, मध्यप्रदेश में सरकार व नौकरशाह इस रचनात्मक कार्य में मददगार रहे हैं। सरकार से संग्रहालय को 10 लाख रुपये सालाना मिलता है जो 25 हजार से शुरू हुआ था। भोपाल नगर निगम से सहयोग मिला। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने अनुदान मिला। मित्रों ने भी सहयोग किया।

कर्मचारी नहीं कार्यकर्ता

संस्थापक संयोजक पद्मश्री विजय श्रीधर संग्रहालय की स्थापना से लेकर इस अभियान से जुड़े हैं। उनकी टीम में कर्मचारी नहीं, कार्यकर्ताओं का समूह है। डायरेक्टर को वेतन नहीं , मानदेय़ मिलता है। पहले डॉ. संतोष शुक्ला, फिर डॉ. मंगला अनुजा डायरेक्टर रहीं, आजकल अरविंद जी डायरेक्टर हैं।

पांडुलिपियों के संरक्षण हेतु डिजीटलीकरण

दुर्लभ पांडुलिपियों का संरक्षण संग्रहालय की सबसे बड़ी चुनौती थी। बड़ी संख्या में दस्तावेज जर्जर अवस्था में थे। बाहरी एजेंसी द्वारा अब तक 27 लाख पन्नों का डिजीटलीकरण किया जा चुका है। संग्रहालय में कुल 1,66,222 किताबें हैं। कुल पांच करोड़ पन्ने हैं। करीब एक हजार पांडुलिपियां हैं। जिसमें शिला मुद्रण वाली पोथियां भी हैं। करीब 26, 479 टाइटल यानी शीर्षक पत्र-पत्रिकाएं हैं -हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत, मराठी, गुजराती, सिंधी, बांग्ला आदि भाषाओं में। ये पुस्तकें साहित्य, पत्रकारिता, इतिहास, राजनीति विज्ञान, मनोविज्ञान, समाज शास्त्र, अर्थशास्त्र, वाणिज्य व विज्ञान विषयों की है। अभी 1,238 शोधार्थियों ने सप्रे संग्रहालय की मदद से थीसिस पूरी की। भारतीय स्टेट बैंक ने सप्रे संग्रहालय के लिये सीएसआर के तहत 45 लाख रुपये उपलब्ध कराए जिनसे 27 लाख पन्नों का डिजिटलाइजेशन किया गया। सप्रे संग्रहालय में 2024 तक के संकलन की वेबसाइट बन गई। संग्रहालय में देश-विदेश से शोधार्थी आते हैं। मामूली फीस है। ई-लाइब्रेरी का उपयोग प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के लिये भी होता है।

चिरंजीव पुस्तकालय

पुस्तकालय का एक खंड चिरंजीव पुस्तकालय है। इसे आगरा में शाह चिरंजीव पालीवाल ने 1916 में स्थापित किया। कालांतर उनकी तीसरी पीढ़ी को विचार आया कि इस संग्रह को सुरक्षा मिले और पुस्तकों का सदुपयोग हो। वर्ष 2015 में 25 हजार जिल्दों, किताबों व पत्रिकाओं का महत्वपूर्ण संकलन सप्रे संग्रहालय को दिया गया। इसमें इतिहास, साहित्य व आध्यात्म की पुस्तकें भी हैं। हिंदी के साहित्यकारों के संकलन हैं।

डॉ. धर्मवीर भारती की विरासत

सप्रे संग्रहालय का एक आकर्षण डॉ. धर्मवीर भारती कक्ष है। भारती जी की पत्नी श्रीमती पुष्पा भारती ने उनके जीवन की तमाम महत्वपूर्ण चीजें संग्रहालय को भेंट करके उनकी विरासत को कालजयी बना दिया। उनकी कुर्सी, पद्मश्री, कोट, मोमेंटो और उनके साहित्य का बहुत बड़ा संकलन यहां संरक्षित है।

बनारसी दास चतुर्वेदी कक्ष

तीसरा खंड बनारसी दास चतुर्वेदी जनपदीय कक्ष है। वे अहसास कराते थे कि हिंदी की ऊर्जा आंचलिक भाषाएं हैं। इसमें भोजपुरी, ब्रज, अवधी, मैथिली, बुंदेलखंडी, बंगाली, गढ़वाली आदि की रचनाएं संकलित हैं। वे इन्हें हिंदी की सह-भाषा मानते थे। उनका मानना था कि इन्हें समान सम्मान देने से हिंदी में समृद्धि आती है।

जनजातियों का समृद्ध खजाना

जनजातियों का साहित्य,समाज, संस्कृति, बुर्ज कला, शिल्प कला का समृद्ध भंडार भी यहां स्थित है। दरअसल, निरंजन महावर प्रताप रायपुर में एक संपन्न चावल मिल मालिक थे। उन्हें आदिवासियों में सच्ची मानवता नजर आती थी। उनमें आदिवासी समाज व संस्कृति के प्रति अनुराग पैदा हुआ। उन्होंने उनसे जुड़ी हजारों पुस्तकें निजी लाइब्रेरी में संकलित की। वहां से करीब पांच हजार किताबें सप्रे संग्रहालय आई। उसमें आदिवासियों की जीवन से जुड़ी तमाम चीजें, मूर्ति कला, मंदिरों का उल्लेख है। उनके मित्र और दैनिक ट्रिब्यून के सहायक संपादक रहे रमेश नैयर जी ने महावर जी के बेटे को पुस्तकें संग्रहालय भेजने के लिये प्रेरित किया। पुराने गजेटियर का संकलन है। राय बहादुर हीरालाल के नाम से रखा है। फिर एक विज्ञान वाली लाइब्रेरी जल विज्ञानी कृष्ण गोपाल व्यास के नाम से रखी। इसके अलावा नाटक, संगीत और सिनेमा का खंड बनाया। सुनील मिश्र, आनन्द सिन्हा आदि का योगदान रहा। संग्रहालय के गाइड, फिलॉसफर, समीक्षक नारायण दत्त जी के नाम पर पत्राचार वाला लगभग दस हजार चिट्ठियों का संकलन है। इसमें राहुल सांकृत्यायन के पत्र भी हैं।

दीर्घा से बोलते कलम के सिपाही

सप्रे संग्रहालय में एक दीर्घा बनायी है- कलम के सिपाही। ताकि नई पीढ़ी के पत्रकारों को पता चले कि हमारे पुरखे कौन थे। इसमें महत्वपूर्ण चित्र संकलित हैं। चौदहवीं सदी में योहान गुटेनबर्ग का नाम आदर से लिया जाता है जिन्होंने इतिहास को निर्णायक रूप से प्रभावित किया। उनके प्रिंटिंग प्रेस ने ज्ञान के प्रकाशन का मार्ग प्रशस्त किया गया। ऐसे ही लोगों को मिलाकर दीर्घा तैयार की गई।

 

पत्रकारिता की गंगोत्री से संग्रहालय के संगम तक

सही मायने में कलकत्ता पत्रकारिता की गंगोत्री रही। यहां से पांच भाषाओं में पहले अखबार निकले। अंग्रेजी में हिकी गजट, बंगाल गजट बांग्ला में 1818, उर्दू में जामे जहानुमा 1822 में जो आठ अंक बाद फारसी हो गया। हिंदी में पहला साप्ताहिक ‘उदंत मार्तंड’ 1926 में प्रकाशित हुआ। पुराना पत्र ‘मुंबई समाचार’ 1 जुलाई 1822 से। तिलक जी का ‘केसरी’। व्यंग्य विधा का ‘विदुषक’ मराठी 1919 में प्रकाशित हुआ। वहीं महात्मा गांधी का समस्त वांग्मय मौजूद है। बाल गंगाधर तिलक, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, विनोबा, दादा भाई नौरोजी पर पुस्तकें हैं। हस्तलिखित पांडुलिपियां भी हैं। महत्वपूर्ण है कि जिनके यहां से किताबें व सामग्री आई उनके नाम प्रदर्शित करते हैं। महत्वपूर्ण कथन हैं, गजेटियर हैं। जनजातियों की भाषा व संस्कृति पर राय बहादुर हीरा लाल ने बड़ा काम किया,वे उपलब्ध हैं। डॉ. अंबेडकर, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, पं. नेहरू व इंदिरा गांधी,राममनोहर लोहिया, आरएसएस, भाजपा के प्रमुख लोग व अन्य महत्वपूर्ण लोगों की पुस्तकें हैं। यहां विभिन्न भाषाओं के युग निर्माता संपादकों की जानकारी है। जानकारी है कि हमारे पुरखे कौन हैं। हम किनकी विरासत को आगे बढ़ा रहे। चित्र दीर्घा है। थीसिस हैं। तिथियां जो इतिहास बन गई- खास घटनाओं के अखबार हैं। आजादी के पहले दिन के अखबार, गांधी जी की हत्या का विवरण देते अखबार। एट ए ग्लांस- लोगों के देखने के लिये। साल 1971 में बांग्लादेश मुक्ति का ‘भारत’ का अंक मौजूद है। 1936 का ‘दैनिक हिंदुस्तान’ का पहला अंक है। चांद, केसरी, कर्मवीर, ब्रेल लिपि में ‘केसरी’ मराठी भाषा का अंक। वर्ष 1872 ‘बंगदर्शन’ बांग्ला व हिंदी, राजा राममोहन राय, ‘प्रताप’ गणेश शंकर विद्यार्थी के संपादित अंक। भारतेंदु हरिश्चंद्र की ’हरिश्चंद्र मैग्जीन’। लोकमान्य तिलक के ‘केसरी’ का पहला अंक 4 जनवरी 1881 , ‘हिंदी प्रदीप’ बालकृष्ण भट्ट, मध्यप्रदेश का पहला अखबार 1841 में ‘मालवा समाचार’। इसका एक कालम हिंदी में व एक उर्दू में। बहुत सारे महत्वपूर्ण डाक टिकट। गांधी जी पर सबसे ज्यादा 500 टिकट 157 देशों में जारी। करेंसी नोट। दूसरी ‘मधुशाला’ प्रयाग गंगा पुस्तक भंडार से प्रकाशित। पुरानी कलम,स्याही दवात का संकलन। हरि विष्णु कामत द्वारा प्रदत्त संविधान की पहली मुद्रित प्रति हाथ से लिखी हुई। कैमरे तरह-तरह के। हिंदी में 1927 में इंदौर से प्रकाशित सबसे पुरानी हिंदी की पत्रिका ‘वीणा’। ‘चांद का फांसी अंक’ संपादित चतुर्सेन शास्त्री, एक अंक महादेवी वर्मा ने संपादित किया। ‘माधुरी’ साहित्य की श्रेष्ठ पत्रिका- 1922 में प्रेमचंद भी संपादक रहे। भारतेंदु हरिश्चंद्र ‘नागरी प्रचारणी’ पत्रिका श्याम सुंदर द्वारा संपादित। बनारसी दास चतुर्वेदी के संपादित विशाल भारत, सरस्वती, शब्दकोश, विश्वकोश दीर्घा की शोभा हैं।‘भारत में अंग्रेजी राज’ सुंदरलाल, 1928 में प्रकाशित व जब्त। गांधी जी ने जो हरिजन, नार्दन इंडिया, यंग इंडिया अंग्रेजी में, नवजीवन गुजराती में, हिंदी में नया ‘हरिजन सेवक’ प्रकाशित करवाया था। प्रेमचंद जी का जागरण व हंस, माखनलाल जी की ‘प्रभा’ व उनका ‘कर्मवीर’, ‘विश्वमित्र’ कलकत्ता व ‘विज्ञान पत्रिका’ 1915 में निकली- ये सभी संग्रहालय की धरोहर हैं। धर्मयुग व साप्ताहिक हिंदुस्तान की सभी प्रतियां मौजूद हैं। ‘दिनमान’ पहले दिन से आखिरी तक के अंक तक। भवानी प्रसाद मिश्र द्वारा लिखी डायरी संकलित है। अमृत लाल बेरा, नर्मदा की तीन बार परिक्रमा, उनके अनुभवों के सभी भाषाओं में अनुवाद। ‘कल्पना’ ऐतिहासिक पत्रिका, संपादक बद्रीविशाल पित्ती हैदराबाद में थे। बच्चों की पत्रिकाएं- बाल सखा, बालहठ, बाल विनोद आदि- हैं। ‘कर्मवीर’ का संपादन कर रहे विवेक श्रीधर बताते हैं कि यहां शोध के लिये बड़ा स्रोत है। चित्रा मुद्गल व अवधनारायण मुद्गल जी की रचनाएं संकलित हैं। यहां साहित्यकारों, रचनाकारों व महत्वपूर्ण व्यक्तियों से जुड़ी कटिंग्स की फाइल हैं। वहीं शोध करने वालों के लिये मददगार पत्रिकाएं संकलित हैं।

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माधवराव सप्रे जी का योगदान

संग्रहालय में माधवराव सप्रे का पूरा योगदान संकलित है। वे हिंदी में नवजागरण के अग्रदूत थे जो वर्ष 1871 में जन्मे व निधन 1926 में हुआ। सप्रे जी ने हिंदी की पहली मौलिक कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ लिखी। हिंदी में अर्थशास्त्र की शब्दावली भी इन्होंने बनायी। वहीं हिंदी में समालोचना शास्त्र का विकास किया। इनमें नई प्रतिभाओं को पहचान कर उन्हें आगे बढ़ाने का खास गुण था। ‘विवेक’ ‘कर्मवीर’ पत्रिका का संपादन किया। माखनलाल चतुर्वेदी अध्यापन कर रहे थे, उन्हें कहा कि तुम्हारा जन्म राष्ट्रीय कार्यों के लिये हुआ। बाद में कर्मवीर का संपादक बनाया। द्वारिका प्रसाद मिश्र जो मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री व संपादक रहे, माधवराव सप्रे के शिष्य थे।

 रू-ब-रू : संस्थापक पद्मश्री विजय श्रीधर

संस्कारों में सेवा का संकल्प

मध्य प्रदेश के जिला नरसिंह पुरा स्थित गांव गोहानी में 10 अक्तूबर 1948 को स्वतंत्रता सेनानी व गांधीवादी पंडित सुंदरलाल श्रीधर के यहां विजय श्रीधर का जन्म हुआ। पिता गांधी जी के आह्वान पर असहयोग आंदोलन में कूदे और जेल गए। जेल से छूटे तो ग्राम्य जीवन में सर्वोदयी सेवा अभियान में जुट गए। पं. सुंदरलाल की सोच थी कि देश के गांव खराब स्थिति में हैं। इसलिए शिक्षा, चिकित्सा व कृषि उत्थान की ऐसी स्थिति का निर्माण हो कि किसान को बारह महीने काम मिले। ऐसी योजना बने कि किसान की आमदनी बढ़े व ठीक जीवन-यापन कर सके। गांव में कुटीर उद्योग धंधों को बढ़ावा मिले। खादी आंदोलन को गति मिले। किसानों को प्रशिक्षण दिया जाए ताकि वे बारह महीने काम करके खुशहाल हों।

दानवीरों का गांव

विजय श्रीधर के मुताबिक -हमारा गांव गोहानी दानवीरों का गांव रहा है। उनके प्रयासों से ग्राम के पुराने मालगुजारों ने साल 1954 में 256 एकड़ जमीन शिक्षा के लिये दान दे दी। गांव में शासकीय राघव उच्चतर माध्यमिक पाठशाला खुली जो कालांतर हाईस्कूल बना। फिर अस्पताल खोलने की बात आई तो नकद राशि व ढाई एकड़ जमीन दान दी गई।

शिक्षा के लिये संघर्ष

विजय श्रीधर की प्रारंभिक पढ़ाई गोहानी में ही हुई। मैट्रिक की पढ़ाई करने के बाद बाहर जाकर पढ़ना चाहा, लेकिन घर की परिस्थिति नहीं थी कि बाहर जाकर उच्च शिक्षा हासिल की जाए। कालांतर जवाहरलाल नेहरू कृषि विद्यालय जबलपुर में नौकरी लग गई। जबलपुर में दिन में नौकरी व रात को नाइट कालेज से एम.ए. अर्थशास्त्र किया। लेकिन पढ़ते-पढ़ते मन के किसी कोने में पत्रकारिता का बीज अंकुरित हो चुका था। दिन में नौकरी व नाइट क्लास में पढ़ाई के बाद मिले समय में दैनिक देशबंधु, जबलपुर में अंशकालिक पत्रकारिता की शुरुआत वर्ष 1972 में की।

सृजन-सरोकारों की यात्रा

कालांतर जब वर्ष 1974 में भोपाल से दैनिक ‘देशबंधु’ का प्रकाशन शुरू हुआ, तो खबर पहुंच गई सरकारी नौकरी छोड़कर आ जाओ। निस्संदेह, कृषि विद्यालय की नौकरी में स्थिरता थी, समय पर तनख्वाह मिलती थी। इसके बावजूद काम का आनन्द नहीं था। इसके बाद नौकरी छोड़कर भोपाल आ गए। इस तरह 6 नवंबर 1974 पूर्णकालिक पत्रकारिता की शुरुआत हुई। बाद में ‘नवभारत’ में, वर्ष 1978 में उप संपादक के रूप में शुरू हुई यात्रा संपादक होने तक 23 वर्ष में पूरी हुई।

पत्रकारिता का पुराण

उनके प्रयासों से तैयार भारतीय पत्रकारिता कोश दो खंडों में बना था। अब समग्र भारतीय पत्रकारिता कोश तीन खंड में सामने आएगा। वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय पत्रकारिता कोश को पत्रकारिता का पुराण कहते थे। ये पत्रकारिता का ग्रंथ 1947 से पहले का था। भारत की सभी भाषाओं के साथ-साथ इसमें समकालीन घटनाचक्र भी शामिल है। केवल पत्रकारिता ही नहीं तत्कालीन इतिहास राजनीति, समाज सुधार व आर्थिक विवरण था।

सप्रे संग्रहालय के अन्य प्रकाशन

एक छोटी किताब उनके संपादन में और निकली, पहला संपादकीय। तीसरी किताब समकालीन हिंदी पत्रकारिता, आजादी के बाद की पत्रकारिता का प्रतिनिधि चेहरा। फिर शोध की किताब आई ‘आधी दुनिया की पूरी पत्रकारिता’, संपादक थी डॉ. मंगला अनुजा। फिर ‘गांधी के चंपारण आंदोलन के एक सौ पचास साल’ शीर्षक से एक किताब निकाली। एक किताब ‘मध्यप्रदेश के गांधीधाम’ शिव प्रसाद अवस्थी के नाम से आई। ‘गांधी के सत्याग्रह’ दूसरी किताब के लेखक डा.रामाश्रय रत्नेश रहे।

नवांकुरों के लिए

पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिये ’चंबल की बंदूकें गांधी के चरणों में’ पुनः प्रकाशित की गई। ताकि प्रभाष जोशी, अनुपम मिश्र और श्रवण कुमार गर्ग द्वारा लिखी किताब पत्रकारिता के नवांकुरों का मार्गदर्शन कर सके। ‘संपादकाचार्य नारायण दत्त’ पुस्तक बताती है कि पत्रकारिता कैसी होती है। नारायण दत्त जी ने भाषा की शुद्धि पर विशेष ध्यान दिया। कालांतर भारत की राष्ट्रीय साहित्य अकादमी ने ‘माधवराव सप्रे रचना संचायन’ प्रकाशित कराया जिसका संपादन श्रीधर जी ने किया।

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