प्रमोद भार्गव
भारत का इतिहास दुनिया का प्राचीनतम इतिहास है। उन दिनों इतिहास लेखन की परंपरा नहीं थी। अत जिस भी राज्य के शासक शूरवीर थे, उनकी गाथाएं रूपकों और अलंकरणों में गढ़कर सुनाए जाने की लोक-परंपरा आरंभ हो गई थी। इस दृष्टि से विष्णु के नरसिंह अवतार से जुड़ी दो घटनाओं, ‘होलिका-दहन’ और ‘नृसिंह’ के विलक्षण रूप का व्यावहारिक पक्ष कुछ इस तरह संभव है। वराह अवतार में विवरण है कि ब्रह्मा जब सो रहे थे तब हिरण्याक्ष नाम का दैत्य पृथ्वी को चुरा कर समुद्र में छिप गया था। विष्णु ने वराह के रूप में अवतरित होकर पृथ्वी को मुक्ति दिलाई। हिरण्याक्ष की मौत से उसका भाई हिरण्यकशिपु व्याकुल हो उठा। मानसिक व्याधि से मुक्ति के लिए वह कैलाश मानसरोवर पर जा पहुंचा। देवताओं ने इसे उचित अवसर माना और दैत्य-राज्य पर अचानक हमला बोल दिया और वे जीत गए।
देवों ने हिरण्यकशिपु की गर्भवती पत्नी कयाधु को बंदी बना लिया। उनके इस कृत्य को ऋषियों ने अनैतिक माना और देवों की निंदा की। इस निंदा के फलस्वरूप उन्होंने कयाधु को असुर-राज्य भेजने का निर्णय लिया। हिरणकशिपु अज्ञातवास पर थे। इसलिए कयाधु को ऋषियों के आश्रम में ऋषि-पत्नियों के संग छोड़ दिया। कयाधु गर्भवती थी। नौ माह पूरे होने पर उसने पुत्र को जन्म दिया। ऋषियों ने इस शिशु का नाम प्रह्लाद रखा। जैसे-जैसे प्रहलाद बड़ा हुआ वैसे-वैसे उसके बाल-मन पर देव संस्कृति और विष्णु भक्ति का प्रभाव पड़ता चला गया।
हिरण्यकशिपु को जब अपने राज्य में लौट तो उसने अपनी सैन्य-शक्ति का पुनर्गठन किया। हिरण्यकशिपु के राज्य लौटने के बाद देवों ने कयाधु और प्रह्लाद को वापस भेज दिया था। सैन्य-शक्ति का पुर्नगठन होते ही हिरण्यकशिपु ने देवलोक पर आक्रमण कर दिया। देवता पराजित हुए और इंद्रलोक पर हिरण्यकशिपु का अधिकार हो गया। तब देवों ने संधि का विचार किया। ब्रह्मा के सभापतित्व में ब्रह्म-सभा हुई। देवों ने हिरण्यकशिपु की शक्ति, श्रेष्ठता और इंद्रलोक पर विजयश्री को स्वीकारा। साथ ही वचन दिया कि भविष्य में कोई देव और न ही उनकी मित्र जातियां, दैत्य साम्राज्य पर आक्रमण नहीं करेंगे। इसके बाद हिरण्यकशिपु ने देवलोक का परित्याग कर दिया। अब हिरण्यकशिपु अपने परिवार पर ध्यान केंद्रित करने लगा। किंतु प्रह्लाद की विष्णु-भक्ति और देव-संस्कृति के प्रति उसकी आसक्ति से वह अचंभित रह गए। हिरण्यकशिपु समझ गया कि ऋषियों के आश्रम में रहने के कारण प्रह्लाद के मन में विष्णु के मूल्यों की यह प्रतिच्छाया नियोजित ढंग से प्रक्षेपित की गई है। प्रह्लाद के मन से इस छाया को मिटाने के कई प्रयत्न किए। परंतु प्रह्लाद की मनस्थिति कभी नहीं बदली। इसके बाद प्रह्लाद को मौत की नींद सुला देने का निर्णय लिया। उसके शयन-कक्ष में सर्प छोड़े गए। उसे पर्वत-चोटियों से फेंका गया, लेकिन प्रह्लाद नहीं मरा। जब प्रह्लाद नहीं मरा तो जन-मानस में यह भाव जागने लगा कि अदृश्य रूप में श्रीहरि विष्णु उसकी रक्षा कर रहे हैं।
हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका पर प्रह्लाद को मृत्यु के हवाले कर देने का दायित्व सौंप दिया। होलिका आग से खेलने में सिद्धहस्त थी। अर्थात वह ऐसे तकनीकी उपाय जानती थी, जिनका प्रयोग कर आग, गर्म तेल व पानी का उस पर कोई असर नहीं होता था। अग्नि-रोधी वस्त्रों के निर्माण और उन्हें पहनकर आग की लपटों से खेलने और खोलते तेल अथवा पानी में उतर जाने में भी वह दक्ष थी। होलिका ने प्रह्लाद के साथ इस तरह का धत-कर्म करने में आना-कानी की, आखिरकार प्रह्लाद उसका भतीजा था। उसका मातृत्व जाग उठा। फलस्वरूप उसने जो अग्नि-रोधक रसायन थे, उनका लेप स्वयं के शरीर पर करने की बजाय प्रह्लाद के शरीर पर कर दिया। जिस चूनरी को ओढ़कर उसे खोलते तेल में प्रह्लाद को लेकर उतरना था, उसे प्रह्लाद के अंग-वस्त्र बनाकर पहना दिया और स्वयं वैसी ही साधारण चूनरी ओढ़ ली। नतीजतन जब वह तेल के खोलते कहाड़े में प्रह्लाद को गोदी में लेकर उतरी तो स्वयं तो जल मरी, किंतु प्रह्लाद बच गया। होलिका का यह आत्मघाती बालिदानी स्वरूप हमारी लोक-परंपरा में आज भी बदस्तूर है।