शुभ उड़ान से ही खुलेगी गगनयान अभियान की राह
शुभांशु शुक्ला और तीन अन्य अंतरिक्ष यात्रियों को लेकर एक्सिओम-4 मिशन अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) पहुंचने में कामयाब रहा। वहां ये सब यात्री चौदह दिन रुकेंगे व परीक्षण करेंगे। स्कवाड्रन लीडर राकेश शर्मा के बाद शुभांशु शुक्ला का नाम अब दूसरे भारतीय अंतरिक्ष यात्री के रूप में दर्ज हुआ है। वहीं आईएसएस पहुंचने वाले शुभांशु पहले भारतीय हैं। दरअसल, शुभांशु शुक्ला का आईएसएस पहुंचना अंतरिक्ष में भारत के मानव मिशन को कामयाब बनाने की पहल का हिस्सा है। इस उपलब्धि से गगनयान आदि भावी भारतीय अंतरिक्ष अभियानों के लिए नई उम्मीदें जगी हैं।
डॉ. संजय वर्मा (मीडिया यूनिवर्सिटी में एसो. प्रोफेसर)
कई बार टाले जाने के बाद आखिरकार 25 जून 2025 की दोपहर भारतीय शुभांशु शुक्ला और तीन अन्य अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) पहुंचाने वाला एक्सिओम-4 (या एक्सियम-4) मिशन कामयाबी के साथ रवाना हुआ और 28 घंटों बाद वहां पहुंच भी गया। इस मिशन में अड़चनें भी कई आईं। पहली बार इसे 29 मई को अमेरिका के फ्लोरिडा स्थित कैनेडी स्पेस सेंटर से प्रक्षेपित किया जाना था। पर एलन मस्क की कंपनी - स्पेसएक्स के जिस रॉकेट फॉल्कन-9 से इसे भेजा जाना था, उसमें तरल ऑक्सीजन लीक हो गई। एकाध मौकों पर कुछ और समस्याएं आईं, जिसके बाद 22 जून को इसकी लॉन्चिंग तय की गई। लेकिन एक बार फिर इसमें बाधा पड़ी- स्पेसएक्स के एक अन्य मिशन से जुड़े स्टारशिप रॉकेट में विस्फोट हो गया। भले ही यह रॉकेट अलग था, लेकिन स्पेसएक्स से उसके जुड़ाव ने शुभांशु के मिशन पर भी अस्थायी रोक लगा दी। यूं तो रॉकेट फॉल्कन-9 की करीब 500 उड़ानों में सुरक्षा का रिकॉर्ड 99.6 फीसदी है, लेकिन कैनेडी स्पेस सेंटर में तैनात भारतीय वैज्ञानिक भारत से जुड़े अभियान को लेकर कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहते थे। ‘वैलीडेशन’ पर उनके ‘जोर’ के कारण ही एक्सिओम-4 की उड़ान कुछ और वक्त के लिए थमी रही। पर 25 जून को वह शुभ घड़ी आई, जब अंतरिक्ष में पहुंचने वाले पहले भारतीय राकेश शर्मा के कारनामे के 41 साल बाद दूसरे भारतीय के रूप में ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ला के अंतरिक्ष पदार्पण का सिलसिला बना। इससे लगा कि भारत अब उस दहलीज से बस एक कदम दूर है, जब स्वदेशी प्रयास (मिशन- गगनयान) से कई और भारतीयों के वहां पहुंचने की राह बन सकती है।
असल में, शुभांशु शुक्ला का पराक्रम अंतरिक्ष में भारत के मानव मिशन को कामयाब बनाने की पहल का एक हिस्सा है, जिसमें कदम-दर-कदम कई पड़ाव पार किए जा रहे हैं। शुभांशु की इस यात्रा की ठोस नींव दो साल पहले 2023 में रखी गई थी, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रयास से अमेरिका और भारत के बीच एक सहमति बनी थी और भारत ने 550 करोड़ रुपये के खर्च से एक्सिओम-4 मिशन में भारतीय यात्री को अंतरिक्ष भेजने के लिए एक सीट खरीदी थी। असल में, एक्सिओम-4 मिशन नासा द्वारा मान्यता प्राप्त एक सर्विस प्रोवाइडर है जो शुभांशु के अलावा तीन अन्य अंतरिक्षयात्रिय़ों को इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन (आईएसएस) पर लेकर गया है। पौलेंड के स्लावोस्ज़ अज़नान्स्की विज़नियेवस्की, हंगरी के टीबोर कापू और अमेरिका की पेगी व्हिट्सन ग्रुप कैप्टन शुक्ला के साथ 14 दिनों तक आईएसएस पर रहेंगे और प्रयोग करेंगे। भारत के संदर्भ में इन प्रयोगों–परीक्षणों से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि इससे हमारा देश गगनयान के जरिए 10 हजार करोड़ रुपये के खर्च वाली उस मानव मिशन योजना पर तेजी से बढ़ेगा, जिससे पहली बार अपने बल पर किसी भारतीय को अंतरिक्ष में भेजने और सात दिनों तक वहां बनाए रखने का सपना साकार किया जा सकेगा।
भारतीय अंतरिक्ष अभियानों के लिए नई उम्मीदें
एक्सिओम-4 मिशन पर गए शुभांशु ने भारतीय अंतरिक्ष अभियानों के लिए नई उम्मीदें जगा दी हैं। शुभांशु का एक्सिओम-4 मिशन के लिए चुना जाना भी आसान नहीं रहा है। शुभांशु के साथ बैकअप मिशन पायलट के रूप में ग्रुप कैप्टन प्रशांत बालाकृष्णन को भी एक राष्ट्रीय मिशन असाइनमेंट बोर्ड ने कड़े मानदंडों पर चुना था। ठीक उसी तरह, जिस तरह 41 साल पहले सोवियत मैत्री मिशन पर सोयूज रॉकेट से अंतरिक्ष प्रयोगशाला सैल्यूट-7 पर सात दिन रहने पहुंचे स्कवाड्रन लीडर राकेश शर्मा के अलावा भारतीय वायुसेना ने विंग कमांडर रवीश मल्होत्रा को बैकअप उम्मीदवार चुना था। इन सावधानियों का अहम मकसद है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन- इसरो गगनयान मिशन नामक जिस स्वदेशी मानव मिशन (वर्ष 2026 या 2027 तक) और भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन की स्थापना (वर्ष 2035 तक) के काम को अपने बूते साकार करना चाहता है, उसमें असीम तैयारियों की जरूरत है। वहीं योजना के तहत भारत अगले 15 वर्षों में भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों को चंद्रमा पर उतारना चाहता है। इन सभी के लिए सूक्ष्म तैयारियों और परीक्षणों की जरूरत है। एक्सिओम-4 से शुभांशु का पहले भारतीय के रूप में आईएसएस पहुंचना और अब वहां से सफल वापसी करना इन भावी मिशनों की ठोस जमीन तैयार करेगा। ग्रुप कैप्टन शुभांशु एक्सिओम-4 के मिशन पायलट हैं। उनकी भूमिका इस मिशन की लॉन्चिंग, अंतरिक्ष में पहुंचने पर यान की आईएसएस से डॉकिंग (यान को आईएसएस से जोड़ना) और पृथ्वी के वायुमंडल में सुरक्षित प्रवेश और धरती पर कामयाब लैंडिंग तक में है।
मानवयुक्त स्वदेशी अतंरिक्ष मिशन हैं खास चुनौतीपूर्ण
अंतरिक्ष में नागरिकों को अपने संसाधनों (रॉकेट, यान आदि) और स्वदेशी मिशन से भेजना बेहद चुनौतीपूर्ण है। इसीलिए अभी तक दुनिया में सिर्फ तीन देश हैं जिन्होंने यह उपलब्धि हासिल की है। इनमें पहले नंबर पर है सोवियत संघ (मौजूदा रूस), जो यह करिश्मा करीब साढ़े छह दशक पहले हासिल कर चुका है। दुनिया का पहला कृत्रिम उपग्रह 1957 में अंतरिक्ष में भेजने वाले सोवियत संघ ने 12 अप्रैल, 1961 को अपने नागरिक यूरी एलेकसेविच गागरिन को वोस्टॉक-1 नामक यान से स्पेस में भेजा था। रूस (सोवियत संघ को मिलाकर) यह कारनामा 74 बार दोहरा चुका है। वहीं शीतयुद्ध काल में महाशक्तियों की होड़ के तहत अमेरिका ने भी यह उपलब्धि हासिल करने में देरी नहीं की। पांच मई, 1961 उसने एक अमेरिकी एलन बी. शेपर्ड को फ्रीडम-7 नामक यान से अंतरिक्ष में भेज दिया था। अमेरिका की अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने अब तक 200 से ज्यादा मिशनों से इंसानों को अंतरिक्ष में, चंद्रमा पर और खास तौर पर आईएसएस पर भेजा है। इस सूची में तीसरा नाम चीन का जुड़ा, जिसमें यांग लिवेई नाम के नागरिक को शिंझोऊ-5 यान से अंतरिक्ष में भेजा था।
अंतरिक्ष की एक कसक
अंतरिक्ष में काफी हद तक अपना दबदबा कायम कर चुके भारत के लिए खुद के बल पर भारतीय नागरिक को अंतरिक्ष में नहीं भेज पाना एक कसक की तरह है। हालांकि कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स का नाम अंतरिक्षयात्री के तौर पर दर्ज है, लेकिन उनकी उपलब्धियां भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक के रूप में हैं। साल 1984 में अंतरिक्ष में पहुंचे स्कवाड्रन लीडर राकेश शर्मा को अंतरिक्ष में जाने वाले प्रथम भारतीय नागरिक होने का रुतबा हासिल है। लेकिन वह सोवियत संघ की मदद से सोयूज टी-11 यान से अंतरिक्ष में गए थे। देश में जारी गगनयान परियोजना का उद्देश्य स्वेदशी अभियान से अपने नागरिक को अंतरिक्ष में भेजना है ताकि भावी अंतरिक्ष मिशनों पर हमारे यात्रियों और वैज्ञानिकों को कोई बाहरी मदद नहीं लेनी पड़े।
शुभांशु की आईएसएस की यात्रा का वास्तविक उद्देश्य इसरो के गगनयान मिशन को गति देना है। चंद्रमा पर अपना यान (चंद्रयान) उतार चुके और मंगल तक यान भेज चुके भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन- इसरो के लिए नई चुनौती है कि वह पहले तो अपने इस स्वेदशी प्रयास (गगनयान) से भारतीय नागरिकों को अंतरिक्ष में पहुंचाकर सलामत वापस लाए। इसके बाद अमेरिका, रूस और चीन की तरह अंतरिक्ष में भारतीय स्पेस स्टेशन की स्थापना करे। अंतरिक्षीय बाजार को लेकर कायम प्रतिस्पर्धी माहौल में यह जरूरी है।
गगनयान मिशन को साकार करने की दिशा में कदम-दर-कदम आगे बढ़ना एक सही रणनीति है। इस साल की शुरुआत में इसरो स्पेडेक्स मिशन की सफलता के साथ गगनयान परियोजना का एक अहम पड़ाव हासिल कर चुका है। इस मिशन के तहत जनवरी में दो उपग्रहों की अंतरिक्ष में कामयाब ‘डॉकिंग’ (यानी उन्हें आपस में जोड़ा गया था) और फिर ‘अनडॉकिंग’ कराई गई थी। इस सफल प्रक्रिया से साबित हो गया कि अब भारत भावी परियोजनाओं, जैसे कि चंद्रयान-4, गगनयान और खुद के स्पेस स्टेशन के निर्माण के अलावा भावी सुदूर और जटिल अंतरिक्षीय अभियानों से जुड़े कुछ जटिल काम खुद के बूते कर पाने की एक अहम दक्षता हासिल कर चुका है। इस प्रक्रिया की ज्यादा बड़ी भूमिका चंद्रयान-4 और भारतीय स्पेस स्टेशन के निर्माण में होगी। चंद्रयान-4 मिशन के अंतर्गत दो रॉकेटों- एलएमवी-3 और पीएसएलवी से अलग-अलग उपकरणों के दो सेट चंद्रमा पर प्रक्षेपित किए जाएंगे। साथ ही चंद्रयान का एक अलग मॉड्यूल चंद्रमा की सतह पर उतारा जाएगा, जो वहां से चंद्र-धूल या मिट्टी (रिगोलिथ) और चट्टानों के नमूने जमा करेगा और उन्हें एक बॉक्स में रखेगा। इस बॉक्स को चंद्रमा की परिक्रमा कर रहे मॉडयूल से जोड़ना (‘डॉकिंग’) होगा ताकि उसे पृथ्वी पर वापस लाया जा सके।
अंतरिक्ष में मानव मिशन की जरूरत क्यों
आज का भारत अंतरिक्ष में हासिल उपलब्धियों के बल पर अमेरिका-रूस जैसी हस्तियों को टक्कर दे रहा है। इस हैसियत में आने के क्रम में वह दृश्य किसी को नहीं भूलता है जब केरल के थुंबा से छोड़े गए पहले रॉकेट को साइकिल पर रखकर ले जाया गया था। इसके बाद के सफर में प्रतिबंधों के बावजूद भारतीय स्पेस एजेंसी- इसरो ने चंद्रयान और मंगलयान जैसे कीर्तिमान रचने के अलावा सैकड़ों विदेशी सैटेलाइटों को अपने ताकतवर रॉकेटों से अंतरिक्ष में भेजकर कमाई के रास्ते भी खोले हैं। पर देश अब स्पेस में एक नई इबारत रचने को बेताब है। नई उपलब्धि भारतीय नागरिकों को अंतरिक्ष में पहुंचाने की होगी। पर अहम सवाल यह भी है कि भारत यह काम सिर्फ इसलिए करना चाहता है कि इससे उसे दुनिया में ऐसे चौथे देश के रूप में प्रतिष्ठा मिल जाएगी जो अंतरिक्ष में अपने नागरिकों को भेज सकता है या फिर इसका कोई बड़ा उद्देश्य है। दरअसल इस उपलब्धि तक पहुंचने का एक अभिप्राय यह है कि इससे देश में विज्ञान और प्रौद्योगिकी क्षेत्र को लाभ मिलेगा। जिसका इशारा कई मौकों पर राजनेता और हमारे वैज्ञानिक करते रहे हैं। जैसे कि दस साल तक इसरो के मुखिया रहे यू.आर. राव ने एक अवसर पर कहा था कि भारत को अंतरिक्ष में मानव मिशन की एक सख्त जरूरत चीन की चुनौतियों के मद्देनजर है। यानी भारत ने जल्द ही ऐसा नहीं किया तो वह अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी की रेस में पड़ोसी चीन से ही मात खा बैठेगा। वैसे तो अमेरिका और रूस की तुलना में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रमों का सफर थोड़ा छोटा है। लेकिन वर्ष 1969 में गठित इसरो ने साढ़े पांच दशक के इस सफर में जो हासिल किया है, उसने विकसित देशों को भी चमत्कृत किया। खास तौर से खर्च के मामले में। बात चाहे चंद्रयान या मंगलयान की हो या फिर सैटेलाइट प्रक्षेपण की, इन सारे मोर्चों पर सीमित खर्च में सफलता की जो दर इसरो की रही है, वह दुनिया के अन्य अंतरिक्ष संगठनों के लिए सपना ही है। भारत अपने मानव स्पेस मिशन से यही बात साबित करना चाहता है कि वह न केवल ऐसा करने में सक्षम है, बल्कि वह इसमें मितव्ययिता की मिसाल रखना चाहता है। यह भी कि अंतरिक्ष में भारत के मानव मिशन के लिए तकरीबन वही कसौटियां होंगी, जो अन्य मुल्कों के लिए होती हैं। यानी सिर्फ यह नहीं कि कोई अंतरिक्ष यात्री स्पेस में पहुंचकर और उसकी देहरी छूकर फौरन वापस आ जाए और इसे कामयाबी बता दिया जाए। इसरो के मानव मिशन के लिए फिलहाल तय शर्तों के मुताबिक इसके लिए भारतीय एस्ट्रोनॉट को कम से कम सात दिन अंतरिक्ष में रहना होगा। इस अभियान की कुछ अहम शर्तें और हैं। जैसे, इस योजना को सिरे चढ़ाने से पहले मिशन में इस्तेमाल होने वाले रॉकेट जियोसिन्क्रोनस सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल मार्क-3 (जीएसएलवी-एमके-3) से कम से कम दो मानवरहित उड़ानें कराना अनिवार्य है। इसमें मार्क-3 पूरी तरह से स्वदेशी निर्माण होगा। इसरो के मुताबिक, उसने पहले ही क्रू मॉड्यूल और स्केप सिस्टम का परीक्षण कर लिया है और डॉकिंग-अनडॉकिंग का परीक्षण भी हो चुका है। शेष तैयारियां अगले कुछ चरणों में पूरी हो जाएंगी। इसरो ने मंगलयान के अलावा अपने रॉकेटों में भारी विदेशी उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित करके जो प्रतिष्ठा हासिल की है, उसे देखते हुए गगनयान से किसी भारतीय को स्पेस में भेजने का उसका सपना नामुमकिन नहीं लगता है। फिर भी प्रश्न है कि चंद्रयान और मंगलयान के बाद इसरो को इस नई कसौटी पर खरा उतरने की कितनी जरूरत है।
इस सवाल के परिप्रेक्ष्य में दुनिया में स्पेस टूरिज्म और अंतरिक्ष के संसाधनों के दोहन को लेकर हो रही पहलकदमियों पर नजर डालना जरूरी है। अमेरिका की कंपनी-स्पेसएक्स के संस्थापक एलन मस्क, वर्जिन गैलेक्टिक के संस्थापक रिचर्ड ब्रैनसन, अमेजन के संस्थापक जेफ बेजोस अपनी कंपनी ‘ब्लू ओरिजिन’ के अलावा जी-फोर्स वन, ब्लून, रूसी कंपनी ल्यूशिन-76 एमडीके, स्पेस एडवेंचर आदि कई निजी कंपनियों के मालिक इस कोशिश में हैं कि स्पेस टूरिज्म के सपने को साकार करते हुए लोगों को अंतरिक्ष भ्रमण कराया जा सके और अकूत कमाई की जा सके। इसी तरह मामला अंतरिक्ष की खोज और उसके संसाधनों के दोहन का है। अमेरिका और रूस के बाद चीन इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है। वह मानव मिशनों को स्पेस में भेज चुका है और आगे चलकर चंद्रमा के खनिजों के दोहन की बात भी उसके जेहन में है। रॉकेटों से विदेशी सैटलाइटों के प्रक्षेपण के बाजार में भी वह सेंध लगाना चाहता है। वहीं स्पेस मार्केट में दबदबे के लिए जरूरी है कि कोई देश चांद या अंतरिक्ष के मानव मिशनों से अपनी योग्यता व क्षमता लगातार साबित करे। तभी इसरो ने अपनी तमाम कामयाबियों से अपनी क्षमता दुनिया के सामने रखी है। इससे पूरे स्पेस मार्केट में खलबली मची हुई है। अगर भारत स्पेस में मानव मिशन की बात कर रहा है, तो उसका यह नजरिया देश को अंतरिक्ष में लंबे समय तक मजबूत खिलाड़ी के रूप में स्थापित करने का है ताकि देश की भावी पीढ़ी को ज्ञान से लेकर रोजगार तक में उसका फायदा मिल सके।
शुभांशु के जज्बे की कहानी
स्कवाड्रन लीडर राकेश शर्मा के बाद अंतरिक्ष की ओर कदम बढ़ाने वाले भारतीय के रूप में अपना नाम दर्ज करवा कर शुभांशु शुक्ला ऐसा करने वाले दूसरे भारतीय अंतरिक्ष यात्री हैं। वहीं अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) पहुंचने वाले शुभांशु पहले भारतीय हैं। इससे अंतरिक्ष अन्वेषण में भारत की बढ़ती क्षमताओं और वैश्विक मंच पर उसकी बढ़ती भूमिका रेखांकित होती है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इससे भारत और अमेरिका के बीच गहरे होते अंतरिक्ष सहयोग का पता चलता है। इस तरह के संयुक्त मिशन न केवल वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकी नवाचार को बढ़ावा देते हैं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों को भी मजबूत करते हैं। कोई संदेह नहीं कि इससे भारत की अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी को और बढ़ावा मिलेगा। यही नहीं, शुभांशु शुक्ला की नई कहानी लाखों भारतीय युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बन सकती है। बताया जा रहा है कि शुभांशु के पिता चाहते थे कि वह आईएएस बनें, लेकिन उन्होंने अपने जुनून का पीछा किया और एक ऐसे क्षेत्र में उत्कृष्टता हासिल की जो भारत के लिए महत्वपूर्ण है। उनकी मिसाल युवाओं को रोजगार के पारंपरिक जरियों से अलग हटकर साहसिक और नए क्षेत्रों में जाने के लिए प्रोत्साहित करेगी। चौथी बात यह कि एक्सिओम-4 मिशन भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम में निजी कंपनियों की बढ़ती भूमिका को भी दर्शाता है। एक्सिओम स्पेस के साथ यह साझेदारी अंतरिक्ष यात्रा को अधिक सुलभ और व्यावसायिक बनाने में मदद करती है। यह भविष्य में अधिक भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों और निजी अंतरिक्ष मिशनों के लिए दरवाजे खोलेगा।