तुरही घोंघा एक आवरणधारी समुद्री मोलस्क है, जिसका आकार तुरही जैसा होता है। यह यूरोप, उत्तरी अमेरिका और भारत के सागर तटों पर मिलता है। इसकी लंबी सूंड होती है और यह मछली, केकड़े आदि शिकार करता है। इसकी कई जातियां होती हैं और यह समुद्री एनीमोन से मित्रता करता है।
तुरही घोंघा एक आवरणधारी समुद्री मोलस्क है। इसे अंग्रेज़ी में हवेल्क कहते हैं। हवेल्क शब्द लैटिन भाषा का है, जिसका अर्थ होता है तुरही। हवेल्क का आकार तुरही जैसा होता है, अतः इसे यह नाम दिया गया। स्कॉटलैंड में तुरही घोंघे को बकी कहते हैं। इसी नाम के आधार पर इसके परिवार का नाम बक्कीडाइ रखा गया है। तुरही घोंघा यूरोप के सागर तटों पर बहुत बड़ी संख्या में मिलता है। यहां इसे सामान्य हवेल्क के नाम से जाना जाता है। उत्तरी अमेरिका में यह आर्कटिक से लेकर न्यूजर्सी तक मिलता है। यहां इसे बक्कीनम कहते हैं।
तुरही घोंघा की और भी बहुत-सी जातियां हैं, जिनमें पनालीदार तुरही घोंघा, सफेद तुरही घोंघा, लाल तुरही घोंघा आदि प्रमुख हैं। वास्तव में तुरही घोंघे के अंतर्गत बक्कीडाइ परिवार के 50 वंशों की कई सौ जातियों के जीव आते हैं। इन सभी जीवों की शारीरिक संरचना, आदतों एवं व्यवहारों में काफ़ी समानताएं होती हैं।
तुरही घोंघे की एक प्रमुख विशेषता यह है कि यह समुद्री एनीमोन को अपना मित्र बना लेता है और उसे आश्रय दे देता है। इसीलिए प्रायः तुरही घोंघे के भीतर समुद्री एनीमोन मिल जाता है।
भारत में भी अनेक जातियों के तुरही घोंघा पाए जाते हैं। इनमें बेबीलोनिया स्पाइरेटा नामक तुरही घोंघा सर्वाधिक सुंदर और आकर्षक होता है। इसका आवरण चिकना एवं रंग सफेद अथवा नारंगी होता है और इस पर कत्थई धब्बे होते हैं। भारतीय तुरही घोंघे के आवरण का मुंह चौड़ा होता है और रेत पर चलते समय इसकी सूंड, सिर, संवेदकाएं आदि स्पष्ट दिखाई देते हैं।
तुरही घोंघा गहरे और कम गहरे समुद्री तलों में रहता है। कभी-कभी ज्वार-भाटे के मध्य कुछ तुरही घोंघा सागर तट पर आ जाते हैं और भाटे के समय चट्टानों में लटके रहते हैं। तुरही घोंघे जब अपने शरीर के आवरण को भीतर करके रहने के स्थान पर रेंगते हैं, तो इससे इनका पानी सूख जाता है और ये जल्दी मर जाते हैं।
तुरही घोंघे के आवरण की लंबाई लगभग 15 सेंटीमीटर होती है। बाहरी आवरण मोटा और कठोर होता है तथा रंग हल्के ग्रे से लेकर पीलापन लिए सफेद होता है। शरीर की लंबाई 11 से 20 सेंटीमीटर होती है। शरीर में एक सूंड, एक साइफन, मुंह, जीभ और एक पैर होता है। तुरही घोंघे की सूंड शरीर के आकार से दोगुनी लंबी होती है। इसी सूंड के एक सिरे पर इसका मुंह होता है। इस जीव में प्रायः 220 से 250 तक दांत होते हैं। यह एक पेटू शिकारी जलचर है, जो मछली, केकड़े, कृमि आदि खाता है। यह अपनी सूंड को अपने शिकार के शरीर में घुसेड़ देता है और उन्हें खा जाता है।
नर और मादा दोनों अलग होते हैं, लेकिन दिखने में एक जैसे लगते हैं। इनमें आंतरिक निषेचन होता है। मादा तुरही घोंघा अक्तूबर से मई के मध्य अंडे देती है। अपने शरीर से अंडों के झुंड कैप्सूलों के भीतर निकालती है। ये कैप्सूल एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। कभी-कभी कैप्सूलों का यह झुंड 30 सेंटीमीटर तक लंबा होता है। मादा तुरही घोंघा एक बार में 2000 तक कैप्सूल निकालती है और हर कैप्सूल में 3000 से ज्यादा अंडे होते हैं। यानी एक मादा एक बार में 60 लाख से ज्यादा अंडे देती है।
निषेचित अंडों से दो महीने बाद तीन मिलीमीटर लंबे घोंघे निकलते हैं। इनमें बड़े भ्रूण छोटे अंडों को खा जाते हैं। इस तरह एक-दूसरे को खाने के कारण, एक कैप्सूल में केवल 10 से 30 तक ही तुरही घोंघे शेष बचते हैं। इ.रि.सें.