समाज सुधार से आत्मबोध का उजियारा
संत नामदेव 13वीं शताब्दी के प्रसिद्ध भक्ति संत थे, जिन्होंने भक्ति को पंडिताई और कर्मकांड से मुक्त कर आंतरिक अनुभव और प्रेम का माध्यम बनाया। उनका जीवन और काव्य समाज में समानता, प्रेम और मानवता के आदर्श प्रस्तुत करते हैं।
भारत की भक्ति परंपरा का इतिहास जितना व्यापक है, उतना ही विविधताओं से भरा भी है। भारत की भक्ति धारा में अनेक संतों ने अपने-अपने समय में समाज को रोशनी दी है। इस परंपरा में ईश्वर की अनुभूति को सबसे सरल और मानवीय रूप में संत नामदेव ने प्रस्तुत किया है। वह महाराष्ट्र की वारकरी परंपरा के अनमोल रत्न हैं। 13वीं शताब्दी के नामदेव को उत्तर भारत की निर्गुण भक्ति परंपरा का प्रेरणा स्रोत माना जाता है। उनका जीवन और काव्य ने भारतीय समाज में धर्म, समानता, प्रेम और लोकमंगल की संस्कृति को गहरे आदर्श देने का काम किया है।
जीवन और भक्ति
नामदेव ऐसे महान संत हैं जिन्होंने भक्ति को जन-जन तक पहुंचाने का काम किया है। इनका जन्म सन् 1270 में नांदेड़ जिले के नरसी बामणी नामक गांव में हुआ था। वह पेशे से दर्जी थे, पर हृदय से संत कवि थे। उन्होंने भक्ति को हर तरह की पंडिताई और कर्मकांड के विषयों से मुक्त किया और इसे आंतरिक अनुभव व प्रेम का माध्यम बनाया। नामदेव का विश्वास था कि ईश्वर हर व्यक्ति में बसता है, चाहे वह उच्च जाति का हो या निम्न जाति का हो। उनके लिए विट्ठल यानी भगवान विष्णु कोई दूर के देवता नहीं बल्कि उनके भीतर का साक्षात अनुभव थे। उन्होंने लिखा भी है— ‘मैं और क्या करूं विट्ठल की सेवा, मेरा तो मन सदा उन्हीं में रमा रहता है।’
संत नामदेव ने भक्ति की वह राह दिखाई, जिसमें बाहरी आडंबरों की कोई जगह नहीं थी। उन्होंने अपनी भक्ति परंपरा में अंतरात्मा की सच्चाई और समर्पण को सर्वोपरि माना है।
भक्ति को जन-जन पहुंचाया
संत नामदेव ने भक्ति को संस्कृति के सीमित दायरे से निकालकर मराठी जैसी जनभाषा का विषय बनाया ताकि आम जनता तक धर्म का संदेश अबाधित रूप से पहुंच सके। यही कारण है कि वह केवल महाराष्ट्र में ही नहीं बल्कि पंजाब तक सम्मानित संत थे। उनके अनेक भजनों को गुरु ग्रंथ साहिब में शामिल किया गया है, जिससे सिद्ध होता है कि उन्होंने सिख भक्ति परंपरा के लिए भी एक मजबूत पुल का काम किया है। संत नामदेव का स्वर समरसता और सार्वभौमिकता का स्वर रहा है। उनका कहना था कि ईश्वर की प्राप्ति किसी एक धर्म या जाति की बपौती नहीं है। वह तो हर उस हृदय का धन है, जो प्रेम और विनम्रता से भरा हुआ है।
मानवता का धर्म
जिस समय नामदेव अपनी भक्ति परंपरा को आम लोगों के बीच फैला रहे थे, उस समय भारतीय समाज जातिगत मतभेदों से भरा हुआ था। ऊंच, नीच की दीवारें और पाखंड अपने चरम पर था। उन्होंने इन रूढ़ियों का विरोध किया और मानवता को धर्म से भी ऊपर रखा। उनके लिए यह अस्वीकार्य था कि कोई व्यक्ति केवल जन्म के आधार पर ऊंचा या नीचा कहलाए।
श्रम साधक का ईश्वर
संत नामदेव ने तत्कालीन समाज में कई सुधार किए। मसलन, एक बार वे मंदिर में पूजा करने गए तो पुजारी ने कहा, "तुम तो शुद्र हो, तुम्हें मंदिर के अंदर आने का अधिकार नहीं है।" इस पर नामदेव मंदिर के बाहर बैठकर ही विट्ठल भजन गाने लगे। कहते हैं इस पर स्वयं भगवान विट्ठल ने मंदिर का द्वार घुमाकर संत नामदेव की दिशा की ओर मोड़ दिया। इस कथा से साफ होता है कि ईश्वर किसी तरह के भेदभाव से नहीं बल्कि भक्ति से प्रसन्न होता है। नामदेव जी ने कहा भी है, ‘जो श्रम करता है, ईश्वर उसी का सच्चा साधक है।’ इसी तरह उन्होंने श्रम को सम्मान और आजीविका को धर्म के समान माना।
लोकजीवन के काव्य की सरलता
संत नामदेव लोकजीवन और लोकसमाज के संत कवि थे। उनकी काव्य भाषा बेहद सरल और लयात्मक तथा भावपूर्ण थी। उन्होंने भक्ति को लोकगीतों, अभंगों और पद्यों के रूप में प्रस्तुत किया है। यही वजह है कि उनकी रचनाएं आज भी मराठी भाषा-भाषी क्षेत्र में घर-घर में गूंजती हैं। उनकी रचनाओं ने न केवल मराठी साहित्य को समृद्ध किया है बल्कि हिंदी संत काव्य परंपरा विशेषकर कबीर, दादू और नानक को भी प्रभावित किया है। उनकी रचनाओं में लोकजीवन का सजीव चित्रण मिलता है, जिसमें सामाजिक आलोचना और मानवीय करुणा का गहरा स्वर है।
भक्ति आंदोलन के अगुवा
नामदेव को महाराष्ट्र की द्वार कड़ी सम्प्रदाय का प्रमुख स्तंभ माना जाता है। वे संत ज्ञानेश्वर, संत एकनाथ और संत तुकाराम की भक्ति परंपरा के प्रारंभिक प्रेरक थे। उन्होंने भक्ति को केवल धार्मिक साधना न बनाकर लोकचेतना का आंदोलन बना दिया। उनकी उपस्थिति से भारतीय संस्कृति को तीन बड़े लाभ हुए हैं। पहला लाभ भाषाई एकता है, वह मराठी और दूसरी उत्तर भारतीय भाषाओं के बीच अपने भक्ति काव्य के जरिए मजबूत पुल बने। इसी तरह उन्होंने धार्मिक समरसता कायम की। हिंदू और सिख परंपराओं में समान रूप से पूजे जाने वाले संत नामदेव व्यापक हिंदू समाज को एकता के सूत्र में पिरोने वाले संत हैं। साथ ही उनमें एक मानवतावादी दृष्टि थी, जो भक्ति को समाज सुधार का माध्यम मानती थी।
समरसता की धारा
आज 21वीं सदी में जब समाज फिर से धर्म, जाति और वर्ग में विभाजित हो चुका है या इसमें उलझा है, तब नामदेव की वाणी हमें याद दिलाती है कि सच्चा धर्म वह है जो सबको जोड़ता है, न कि तोड़ता है। उनकी विचारधारा आज भी सामाजिक समानता, धार्मिक सहिष्णुता और श्रम के सम्मान को प्रेरणा देती है। इस तरह देखें तो संत नामदेव भारतीय इतिहास के ऐसे संत हैं, जिन्होंने भक्ति को केवल पूजाभर नहीं बल्कि इसके जरिये समाज सुधार और आत्मबोध का उजियारा फैलाया है। उन्होंने ईश्वर को मंदिरों से निकालकर व्यापक समाज के मन में बसाया है। इसलिए वह भक्ति परंपरा के महान सांस्कृतिक संत थे। इ.रि.सें
