आलोक पुराणिक
विधानसभा चुनाव कई राज्यों में सामने हैं। मुफ्त-मुफ्त गूंज रहा है फिजाओं में। लगभग हर महत्वपूर्ण राजनीतिक पार्टी कुछ न कुछ मुफ्त देने का वादा कर रही है। पंजाब विधानसभा चुनाव में शिरोमणि अकाली दल ने 18 साल से ज्यादा उम्र की महिलाओं को 2 हजार रुपये प्रति महीने दिए जाने का वादा किया है। आम आदमी पार्टी ने 18 साल से ज्यादा उम्र की महिलाओं को एक हजार रुपये प्रति महीने दिए जाने का वादा किया है। पंजाब में कांग्रेस ने महिलाओं को 2 हजार रुपये प्रति महीना, गृहणियों को साल में मुफ्त 8 सिलेंडर, 12वीं पास लड़की को 20 हजार रुपये, 10वीं पास लड़की को 10 हजार रुपये, कॉलेज जाने वाली लड़की को स्कूटी दिए जाने का वादा किया है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का वादा है कि 12वीं में पढ़ने वाली लड़कियों को स्मार्ट फोन और कॉलेज जाने वाली लड़कियों को स्कूटी दी जाएगी। समाजवादी पार्टी का वादा है कि महिलाओं को 1,500 रुपये प्रति माह पेंशन, हर परिवार को हर महीने 300 यूनिट बिजली फ्री दी जाएगी। विचारधारा के बजाय मुफ्त का प्रचार जोरों पर है। और लगभग हर राजनीतिक दल यह मान कर चल रहा है कि मुफ्तखोरी कराए बगैर अब मतदाता को जीतना मुश्किल है।
मुफ्तखोरी नयी बात नहीं
ऐसा नहीं कि मुफ्तखोरी राजनीति में नयी प्रवृत्ति है। यह बहुत पुरानी तरकीब है जिसका जमकर इस्तेमाल दक्षिण भारत की राजनीति में हुआ। मुफ्त और सस्ता खाना, रंगीन टीवी-ऐसे वादे दक्षिण भारत के चुनावों में, और खासकर तमिलनाडु के चुनावों में जमकर चले हैं। पर उत्तर भारत में मुफ्तखोरी को व्यवस्थित तरीके से राजनीतिक विचाराधारा बनाने का श्रेय़ अरविंद केजरीवाल को मिलना चाहिए। दिल्ली में इतनी बिजली मुफ्त और उतना पानी मुफ्त जैसी घोषणाओं ने केजरीवाल की राजनीतिक जमीन इतनी पुख्ता कर दी है कि उनके आगे अब विरोधी लगभग बेअसर दिखते हैं, कम से कम राज्य स्तर की राजनीति में। मुफ्त दरअसल कुछ होता नहीं है, कहीं से लेकर कहीं देने की बात होती है राजनीति में। जो राजनेता इस काम को जितने कौशलपूर्वक कर ले, वह उतना ही कलाकार। मोदी से लेकर केजरीवाल तक इस कला के पर्याप्त कुशल कलाकार हैं। सौभाग्य योजना से लेकर शौचालय तक ये मोदीजी बांटते हैं, मुफ्तखोरी की विचारधारा के तहत। कोरोना काल में मुफ्त अनाज तो दिया ही जा रहा है।
नैतिक बनाम राजनीतिक तर्क
मुफ्त की राजनीति में बुराई क्या है, यह सवाल महत्वपूर्ण है। नेता के मुंह से जनता के लिए कुछ निकलता ही कब है। नेता का बस चले तो पूरा देश ही अपने नाम कर ले, यह जनभावना बहुत लोगों में पायी जाती है। नेता मजबूरी में देता है, मुफ्त बिजली मुफ्त पानी, अगर वह मुफ्त दे रहा है, तो लेने में क्या हर्ज है। पर यह तो लालच देकर वोट लेने की बात हुई ,यह तो अनैतिक है। पर लालच अगर अनैतिक है, तो फिर तो पूरी राजनीति ही अनैतिक है। कौन राजनीतिक दल है, जो लालची नहीं है, जिसे और अधिक नहीं चाहिए। आम आदमी पार्टी को लालच है कि यूपी में, गोआ में पैर जम जायें। भाजपा को लालच है, जैसे भी हो 2022 में यूपी में सत्ता न जाये। पंजाब में अकाली दल को उम्मीद है कि मुफ्तखोरी की बात करके कुछ मिल जाये, तो हर्ज क्या है। मुफ्तखोरी की राजनीति कारगर रणनीति है, यह बात लगातार साफ भी हो रही है। चुनावी राजनीति पर नजर रखने वाली संस्था एसोसिएशन फाॅर डेमोक्रेटिक रिफोर्म्स (एडीआर) ने वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में एक सर्वे किया था जिससे पता चलता है कि देशभर के सभी 534 लोकसभा क्षेत्रों में 40% मतदाताओं ने माना कि वे किस पार्टी या नेता को अपना वोट देंगे, यह तय करने में मुफ्त उपहार के वादों की बड़ी भूमिका होती है। मुफ्त की शराब पिलाना चुनाव से एक दिन पहले, यह तो बहुत बार देखा गया है। पर अब यह लगातार साफ हो रहा है कि मुफ्त उपहार तय कर देते हैं कि वोट किसे देना है। अगर 40 प्रतिशत मतदाता यह मान रहे हैं कि मुफ्त उपहारों की भूमिका है, तो यह लोकतंत्र पर अलग तरह की चोट है। स्वतंत्र चुनाव और निष्पक्ष चुनाव की संभावनाएं धूमिल होती हैं इस स्थिति में और जो धनवान है, वह चुनाव जीतने की संभावनाएं ज्यादा रखता है। यह स्वस्थ लोकतंत्र के लक्षण नहीं हैं।
धनवान राज्य बनाम गरीब राज्य
जो राज्य धनवान हैं, जहां आय के स्तर ठीक-ठाक हैं, जहां सरकारों के पास राजस्व की सही व्यवस्था है, वहां तो मुफ्तखोरी का आर्थिक आधार रहता है। पर जिन राज्यों में आय राजस्व का हाल सही नहीं है, वहां मुफ्तखोरी करवायी कैसे जाये, यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है। तब कर्ज की सूरत बनती है। उत्तर प्रदेश पर 6.1 लाख करोड़, पंजाब पर 2.8 लाख करोड़, उत्तराखंड पर 68,000 करोड़ और गोवा पर 18,844 करोड़ रुपये का कर्ज है। यहां मुफ्त की राजनीति जमकर हो रही है। कर्ज लेकर घी पीयो, वाली स्थिति बनती जाती है। घी नेता पी जाते हैं, थोड़ा-सा घी वोटरों को मिल जाता है, पर कुल मिलाकर राज्य के खजाने की हालत लगातार खराब होती जाती है। राज्य के खजाने की चिंता करने की जरूरत उन नेताओं को महसूस नहीं होती, जो यह जान जाते हैं कि अगले पांच साल बाद कोई और आयेगा, जो इसकी चिंता करेगा। इस दुश्चक्र में स्थितियां ऐसी खराब होती जाती हैं कि उन्हें फिर ठीक करना बहुत मुश्किल हो जाता है। मुफ्त की बिजली, मुफ्त का पानी देने के बाद, अगर कोई नेता यह कहे कि हम इसकी कीमत वसूलेंगे तो फिर आंदोलन हो जाता है। आंदोलन हो जाता है, तो उसे कोई न कोई राजनीतिक समर्थन मिल जाता है। इस तरह मुफ्तखोरी का दुश्चक्र चलता जाता है।
मुफ्तखोरी को एक राजनीतिक रणनीति बनाने के आशय क्या हैं, यह सवाल महत्वपूर्ण है। किसी भी सरकार की यह मूलभूत जिम्मेदारी होती है कि वह अपने नागरिकों को बुनियादी अस्तित्वगत सुविधाएं और सामग्री उपलब्ध कराये। खाने-पीने की जिम्मेदारी, मेडिकल सुविधाएं- ये सब बुनियादी जिम्मेदारियां हैं। पर यहां से सवाल उठता है कि इस सबके लिए रकम आयेगी कहां से। रकम तो वहीं से आयेगी, जहां से रकम जुटाये जाने की संभावना है यानी करों से आयेगी। जो लोग करदाता हैं, उनके पैसे से ही सब कुछ सस्ता दिया जायेगा। कोई भी सरकार कमाती नहीं है, वसूलती है। सरकार के पास कर वसूलने का अधिकार होता है। इस अधिकार के तहत ही राज्य सरकार, केंद्र सरकार या नगर पालिका वसूली करती हैं। इस रकम का इस्तेमाल किन योजनाओं पर हो, यह एक राजनीतिक फैसला होता है। कोई सरकार बांध बनाने में खर्च कर सकती है, कोई सरकार औद्योगिक कांप्लेक्स बनाने में खर्च कर सकती है। कोई सरकार नये स्कूल,कालेज,अस्पताल बनाने में खर्च सकती है। कोई सरकार मुफ्त भोजन बनाने में खर्च कर सकती है। इस तरह से राजनीतिक वादा आखिर सरकार के बजट और अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है। समझने की बात यह है कि भारत की जनसंख्या का आकार इतना बड़ा है कि 127 करोड़ की जनसंख्या को अगर मुफ्तखोरी की लत लग जाये तो कोई भी सरकार फिर अपना बजट ठीक तरीके से नहीं बना सकती। पर यहां तर्क इतना सीधा नहीं जाता।
अच्छे-बुरे नतीजे
जनता को मुफ्तखोरी का आश्वासन देना एक बहुत ही मजबूत राजनीतिक रणनीति है। पर मुफ्तखोरी के कुछ नतीजे अच्छे हैं, कुछ बहुत खऱाब हैं। मुफ्त बिजली का वादा राजनीतिक तौर पर बहुत राज्यों में चलता है। इसका एक नतीजा यह है कि देश में बिजली अब जरूरत से ज्यादा बन रही है। यानी जितनी बिजली चाहिए, उतनी बिजली उपलब्ध है। पर कई राज्य सरकारों के पास पैसे ही नहीं हैं कि उस बिजली को खरीद लें। क्योंकि तमाम राज्यों के बिजली बोर्ड कतई कंगाल हाल में पहुंच चुके हैं। कुप्रबंधन, मुफ्तखोरी और राजनीतिक हस्तक्षेप इसके लिए जिम्मेदार है। मुफ्तखोरी किस तरह से हालात को तबाह करती है, यह देखना हो, उन राज्यों की बिजली व्यवस्थाएं देखी जायें, जहां चुनाव सस्ती और मुफ्त बिजली के वादे पर लड़े जाते हैं। मुफ्तखोरी अगर बुनियादी खाने-पीने के लिए है, तो इसके रिजल्ट अच्छे आते हैं। तमिलनाडु से भुखमरी, अन्नहीनता की खबरें नहीं आतीं। यूपी के एक हिस्से बुंदेलखंड से आती हैं। यहां भी अम्मा की रसोई जैसी कोई योजना शुरू हो, जहां पांच रुपये में पेट भरने की व्यवस्था हो।
जिस राजनीति में ऊपर करप्शन होता है, उस राजनीति में जनता के एक हिस्से को लगने लगता है कि सारा कुछ माल तो ऊपर वाले लूट-खा लेते हैं। ऐसे में अगर उनकी सरकार पांच रुपये में खाने खिलाने की स्कीम लेकर आती है, तो इसमें बुरा क्या है। सरकार अगर मुफ्त टीवी बांटती है, तो बुरा क्या है।
हर राज्य सरकार को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि तमाम ठिकानों पर सस्ते खाने का इंतजाम हो, पर मुफ्त का टीवी, और मुफ्त का मोबाइल, ऐसी मुफ्तखोरी का कोई आर्थिक तर्क नहीं है। कोई भूखा है, उसे खाना खिलाना, उसे मरने नहीं देना, सरकार की जिम्मेदारी है। पर टीवी दिखाना सरकार की जिम्मेदारी नहीं, टीवी पर खर्च की गयी रकम से आईटीआई, स्किल डेवेलपमेंट स्कूल खोले जा सकते हैं, जहां पढ़कर बच्चे इस काबिल बनें कि फिर सस्ता मांगने की जरूरत न पड़े।
मुफ्तखोरी बतौर लत इस मुल्क की तमाम राजनीतिक रणनीतियों का हिस्सा रही है। कुछ समय पहले की बात है कि एलपीजी सिलेंडर में बीस रुपये के भाव बढ़ने पर भी उच्च-मध्यवर्गीय लोग हल्ला मचाते थे, जो पचास रुपये की टिप रेस्टोरेंटों में आसानी से दे देते थे। गैस सिलेंडर पर सरकार भारी सब्सिडी देती रही है। अब तो सरकार के आह्वान पर बहुत लोगों ने अपनी गैस सब्सिडी छोड़ दी है। पर मुफ्तखोरी लत बन जाये, तो इसकी आदत उस वर्ग को भी हो जाती है, जो इसका अधिकारी नहीं है। 2000 रुपये का पिज्जा खरीदने वाले वर्ग को सस्ते सब्सिडीयुक्त गैस सिलेंडर लेने का नैतिक अधिकार नहीं था। पर नैतिकता का सवाल मुफ्तखोरी के रास्ते में नहीं आता है। मुफ्तखोरी के तर्क तब और मजबूत हो जाते हैं, जब जनता देखती है कि तमाम नेता सरकार को लूट कर खा रहे हैं अरबों-खरबों, ऐसे में वह अगर कुछेक हजार रुपये की मुफ्तखोरी कर रही है, तो यह जायज ही है। पर कुल मिलाकर अच्छा अर्थशास्त्र और अच्छी राजनीति यही है कि सिर्फ भोजन को सस्ता या मुफ्त करके उसके जायज हकदारों तक पहुंचाना उचित है। मुफ्त के मोबाइल और टीवी, स्कूटी देना सिर्फ राजनीतिक रिश्वतखोरी है। पर ऐसा संदेश वे ही नेता जनता को दे सकते हैं, जिन पर रिश्वतखोरी या घोटाले का एक भी दाग न लगा हो।
साल में 6000 रुपये की किसान सम्मान निधि को तो मोटे तौर पर ऐसी स्कीम के तौर पर चिन्हित किया जा सकता है, जिसमें अस्तित्व के संकट से जूझते एक विपन्न वर्ग को राहत देने की कोशिश भर है। पर 1 लाख रुपये प्रति माह अर्जित करनेवाली महिला को कोई भी मुफ्तखोरी कराने का प्रस्ताव मूलत: राजनीतिक चतुराई है। 2019 के चुनाव में भाजपा की किसान सम्मान निधि के जवाब में कांग्रेस ने न्याय योजना का दांव फेंका था। राहुल गांधी गरीबी हटाओ-2 के तहत पांच करोड़ गरीब परिवारों को सालाना 72000 रुपये का वादा लेकर सामने आये थे। मोटा-मोटा अनुमान यह था कि इस योजना में हर साल करीब तीन लाख 60000 करोड़ रुपये का खर्च होगा। तीन लाख 60 हजार करोड़ की रकम कितनी बड़ी है इसका अंदाजा यूं लगाया जा सकता है कि औसत जीएसटी संग्रह के करीब तीन महीने के कुल संग्रह से भी ज्यादा यह रकम बनती है। यानी इस रकम को जुटाना आसान नहीं है। वादा चाहे जो कर दिया जाये, वादों में शब्द जाते हैं। पर वादों के क्रियान्वयन में राशि जाती है। राशि हवा से नहीं आती। राशि करों से आती हैं, जिनको बढ़ाये जाने की सीमा है।
मुफ्तखोरी बनाम संघर्ष की स्पिरिट : मुफ्तखोरी सिर्फ स्कीम नहीं है, एक विचार है, पूरी विचारधारा है। सब कुछ सरकार दे, मुफ्त में दे। सरकार जिन चीजों को मुफ्त में देती है, सस्ती देती है, उनका हाल क्या है, यह देखा जाये, तो पता लगता कि तमाम मुफ्तखोरी की योजनाएं भ्रष्टों के घर भरने में मदद करती हैं। राशन की दुकानों के जरिये मिलने वाला सस्ता अनाज क्या उन लोगों तक पहुंचता है, जहां उसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। इस सवाल का जवाब है नहीं। राशन की दुकानों के जरिये पहुंचने वाले सस्ते खाद्यान्न में करीब पचास परसेंट की लीकेज है। यानी ये पचास परसेंट सस्ता अनाज महंगा होकर खुले बाजार में बिकता है। इस मुल्क में लगातार छोटी चोरी पुलिस की मदद के बिना और बड़ी चोरी नेताओं की मदद के बिना संभव नहीं है। राशन के घोटालों के तार तमाम नेताओं तक पहुंचते हैं। गौर से देखें, तमाम राशन की दुकानें उन लोगों की हैं, जिनका कोई न कोई राजनीतिक कनेक्शन है। मुफ्तखोरी दरअसल बहुत फर्जी शब्द है, मुफ्त कुछ भी नहीं होता, उसकी कीमत कोई न कोई चुका रहा होता है। जो सस्ता राशन महंगा होकर काले बाजार में बिक रहा होता है, वह सस्ता आपके और मेरे द्वारा चुकाये गये कर की बदौलत ही होता है। मुफ्तखोरी किसी की बदौलत ही हो पाती है। राशन की दुकानों पर हो रहे लीकेज को अगर थाम लिया जाये, तो कई आईटीआई और स्किल स्कूल बनाये जा सकते हैं। पर आफत यह है कि स्कूलों के नाम पर वोट नहीं मिलते। मुफ्तखोरी के फर्जी वादों के नाम पर मिल जाते हैं। इतिहास यह बताता है कि मुफ्तखोर अर्थव्यवस्थाएं और समाज बड़े आइडिये, उद्योगों, बड़े आविष्कारों को जन्म नहीं दे पाते। ऐसे मुफ्तखोर समाज में जोखिम लेने की क्षमताएं कम हो जाती हैं, खत्म हो जाती हैं। खाना मुफ्त मिल जाये, फोन मुफ्त मिल जाये, टीवी मुफ्त मिल जाये, तो फिर कुछ नया करने की, कुछ नया सोचने की जरूरत ही क्या है। बरसों बरस तमाम साम्यवादी अर्थव्यवस्थाएं मुफ्तखोरी का माॅडल बनी रहीं। मकान फ्री, मेडिकल फ्री, सब कुछ फ्री, पर इस फ्री के लिए किसी को कहीं कुछ तो कमाना पड़ेगा। जब वह कमाई नहीं आयेगी, तो डूबना तय है। कई साम्यवादी अर्थव्यवस्थाओं के डूबने के पीछे एक यह कारण भी रहा कि कोई काम करने को, उत्पादकता बढ़ाने को राजी नहीं है, क्योंकि इसकी जरूरत नहीं है। जो चाहिए, वह सब मिल रहा है, मुफ्त या लगभग मुफ्त। कमाने की कोई सोच नहीं रहा है, उत्पादकता बढ़ाने की कोई सोच नहीं रहा है। ऐसी सूरत में अर्थव्यवस्था का डूबना तय है। जोखिम, बड़े आइडिये उन समाजों और अर्थव्यवस्थाओं में आते हैं, जहां पक्का सुनिश्चित कुछ भी नहीं है, न्यूनतम गारंटी सिर्फ बुनियादी अस्तित्वगत सुविधा या सामान की है। जैसे अमेरिका में यह सुनिश्चित किया जाता है कि कोई भूखा न मरे, पर मकान, टीवी, मोबाइल मुफ्त नहीं मिलेंगे, यह हरेक को कमाने पड़ेंगे। जो लोग जोखिम लेकर बड़ा कुछ कर सकते हैं, वे गूगल, एप्पल,माइक्रोसाफ्ट जैसी कंपनियां बना सकते हैं। पर जोखिम लेने का मिजाज मुफ्तखोर समाजों में विकसित नहीं होता। यह अनायास नहीं है कि विश्व की अधिकांश बड़ी कारोबारी कंपनियां उन समाजों-अर्थव्यवस्थाओं से ही आ रही हैं, जहां मुफ्तखोरी या तो है ही नहीं, या है तो बहुत कम। सिर्फ मुफ्तखोरी अस्तित्व की सुरक्षा दे सकती है, विकास तो जोखिम से ही आता है।