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Christmas Day करुणा और प्रेम में निहित पर्व का मर्म

क्रिसमस पर्व
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क्रिसमस गिफ्ट
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घर में हो या देश,समाज में -हर जगह करुणा, प्रेम और सकारात्मक जीवन के भाव जिंदगी सहज बनाते हैं। ईसा मसीह की तीन बुनियादी शिक्षाओं में शामिल न्याय, नैतिकता और सेवा का भाव भी यही है। वे निश्छल मन से सेवा करने और परिजनों,पड़ोस व देश तक अपने परिवेश से प्रेम का संदेश देते हैं। क्रिसमस पर्व मानवता की बेहतरी के ऐसे पोषक विचारों को व्यवहार में लाने की शुरुआत करने का अवसर है।

डॉ. मोनिका शर्मा

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आस्था और ईश्वर का स्वरूप बेहद अपना सा लगता है, जब उससे जुड़ी बातें आम जीवन से वास्ता रखती हों। ईसा मसीह के सन्देश ऐसे ही पाठ लिए हैं। परिवार से लेकर परिवेश तक, हर जगह करुणा, प्रेम और सकारात्मक जीवन जीने का सबक समझाते हैं। ऐसे भावों और सुझावों से जिंदगी सहज हो जाती है। आज के उलझते-बिखरते दौर में हम समझते हैं कि जीवन में साथ, संवेदनाएं और सहानुभूति के भाव आवश्यक हैं। उनकी तीन बुनियादी शिक्षाओं में न्याय, नैतिकता और दूसरों की सेवा का भाव ही शामिल है। जो स्वयं अपनी ही नहीं परिवार, समाज और देश की बेहतरी के पोषक विचारों की बुनियाद हैं।

नैतिकता और न्याय

ईसा मसीह की एक अहम सीख नैतिक व्यवहार से जुड़ी है। हम सब समझते हैं कि नैतिक व्यवहार जिंदगी के हर मोर्चे पर न्याय की स्थापना कर सकता है। नैतिक व्यवहार ही हमें सिखाता है कि आपदा में अवसर नहीं देखा जाता बल्कि मदद का हाथ आगे बढ़ाया जाता है। यीशु का कहना है कि ‘भला उस आदमी का क्या लाभ, यदि वह पूरी दुनिया पा जाए और अपनी आत्मा को खो दें।’ यह विचार वाकई कहीं गहरे उतरने वाला है कि अपनी आत्मा को खोकर पूरी दुनिया को पाने का क्या लाभ है? यही वजह है कि यह भाव हमारे नैतिक व्यवहार से भी जुड़ा है। इन्सान का मन इस बात को सबसे ज्यादा समझता है कि वो कहां गलत है? किस के साथ व क्या गलत कर रहा है? गौर करने वाली बात है कि किसी एक इन्सान की सोची-समझी गलती या छल-कपट के बिना किसी दूसरे इंसान के साथ अन्याय हो ही नहीं सकता। ऐसे में यह बात हर इंसान के लिए विचारणीय है कि नैतिक आचरण का रास्ता छोड़कर चाहे कुछ भी हासिल कर लिया जाये, कोई अर्थ नहीं रखता।

दूसरों की सेवा का भाव

दया का भाव उनकी दी गई हर सीख से जुड़ा है। यह विचार हमें सेवा भावी बनाता है। जीवन सहेजना सिखाता है। दूसरों की पीड़ा समझने और उसे दूर करने में मदद करने की संवेदनाएं जागता है। सेवाभाव की सोच परिवार से लेकर समाज तक, हर जगह संवेदनाओं को पोसती है। परिजनों में एक-दूसरे का साथ देने की सोच आती है। अपने देश के नागरिकों के साथ अपनेपन भरे जुड़ाव को बल मिलता है। सेवा का भाव मन में हो तो छोटी-छोटी मदद के रूप में सभी को कुछ न कुछ करने की राह मिल जाती है। यही छोटे-छोटे सहयोगी कदम समग्र रूप से समाज के परिवेश की मानवीय बना देते हैं। यीशु ने गरीब, कमजोर और समाज के अलग-थलग पड़ गए लोगों के लिए भी करुणा और सहायता का भाव रखा। उनकी यह सीख जीवन के हर उतार-चढ़ाव में दया का भाव रखने से जुड़ी है। सेवाभाव हमें प्रकृति के हर जीव से जोड़ता है। आज सब लोगों को ईसा मसीह के इस पाठ को याद रखने की आवश्यकता है। इस दौर में सेवा का भाव ही सामाजिक मूल्य बचायेगा। व्यक्तिगत सम्बन्धों को सहेजेगा। ध्यान रहे कि कम्पैशन अपने ही नहीं,पराये लोगों का भी संबल

बनता है।

निश्छल हो मन-जीवन

यीशु निश्छलता का सन्देश देते हैं। जोड़-तोड़ और स्वार्थ साधने के फरेब से भरी इस दुनिया में निश्छल आत्मीयता और सरलता हमें सहज जिन्दगी की तरफ मोड़ती है। हर तरह की नकारात्मकता से दूर रखने वाली है। अपनों और अपने परिवेश से जुड़ाव न हो तो स्वार्थ साधते हुए बहुत कुछ जुटा लेना भी कोई मायने नहीं रखता। सफलता के शिखर पर भी अकेलापन झेलना पड़ता है। इसीलिए छल-कपट से दूर ही रहें क्योंकि निश्छलता जान-बूझकर तो क्या अनजाने में भी किसी के प्रति कुटिल विचार और व्यवहार न रखने की समझ देती है। अगर कुछ गलत हो जाए उससे भी निष्कपट भाव से स्वीकारने का पाठ पढ़ाती है। यीशु ने तो इंसान को गलती हो जाने पर पश्चाताप करने की राह सुझाते हुए कहा है कि ‘गलत हुआ उसे स्वीकारें और फिर गलत से हमेशा के लिए दूर रहें।’ यीशु कहते हैं ‘ जैसा व्यवहार तुम लोगों से चाहते हो वैसा व्यवहार उनसे करो।’ यकीनन अपने साथ छल या स्वार्थ भरा व्यवहार किसी को पसंद नहीं आता है। ऐसा बर्ताव मन को ठेस पहुंचाता है। इसीलिए दूसरों से अच्छे व्यवहार को पाने के लिए हमेशा पहले खुद के बर्ताव को समझिये।

परिवेश से प्रेम

ईसा मसीह का सन्देश ‘तुम्हें अपने पड़ोसी से भी स्वयं जैसा ही प्रेम करना चाहिए।’ बिखरते मूल्यों के इस दौर में बहुत मायने रखता है। भागीदारी मन के जुड़ाव के बिना मुमकिन नहीं। आस-पड़ोस के लोगों से प्रेम करना हमें एक दूजे के सुख-दुःख में भागीदार बनाता है। सहयोग और सद्भाव कायम रखता है। न्यूक्लीयर फैमिलीज़ के इस दौर में तो सहयोगी परिवेश सभी के लिए आवश्यक है। हाल के बरसों में पड़ोसियों के प्रति उदासीन रहने की सोच बढ़ी है। यह स्थिति चिंतनीय है क्योंकि हमारी निजी जिंदगी के बहुत से सुख-दुःख प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पड़ोसियों से भी जुड़े रहते हैं। आस-पड़ोस से जुड़े रहने का कल्चर सुरक्षा और अपनत्व देता है। वैसे भी हमारे देश का सामाजिक ढांचा तो आपसी जुड़ाव का ही भाव लिए है। सामाजिकता की इस सोच को प्रभु यीशु की सीख के रूप में भी सहेजा जाये, इससे बेहतर क्या हो सकता है?

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