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अद‍्भुत आध्यात्मिक संवाद का साक्षी वट वृक्ष

श्रीरामपुर राय घाट

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सदियों पहले श्रीरामपुर में हुगली तट पर जिस वट वृक्ष तले महावतार बाबा व स्वामी युक्तेश्वर का मिलन हुआ, उसकी शाखाएं अब विशाल वट वृक्ष बन गई हैं। श्रीरामपुर से लौटकर डॉ. मधुसूदन शर्मा की अभिव्यक्ति।

निस्संदेह, आध्यात्मिक पथ के साधक के लिए उसका आराध्य से जुड़ा स्थान केवल एक भूखंड नहीं होता, बल्कि वह ऊर्जा का अखंड स्रोत होता है। योगदा मिशन से जुड़े हर साधक के मन की जिज्ञासा रहती है कि—वह परमहंस योगानंद जी की बहुचर्चित पुस्तक ‘योगी कथामृत’ में वर्णित स्वामी युक्तेश्वर जी के आश्रम को देखे। आकांक्षा उस वट वृक्ष को निहारने की, जिसकी छांव में मृत्युंजय महावतार बाबाजी और स्वामी युक्तेश्वर जी का दिव्य मिलन हुआ था। यही जिज्ञासा और श्रद्धा का भाव साधक को यहां खींच लाता है। कोलकाता से लगभग 20 किमी दूर हुगली नदी के पास स्थित एक शांत शहर श्रीरामपुर आता है, जहां यह वट वृक्ष स्थित है।

सही मायनों में एक आध्यात्मिक साधक की यात्रा कभी समाप्त नहीं होती। वह अनेक पड़ावों से गुजरती है। यही आत्मिक शांति की चाह हुगली नदी के तट पर ले आती है। नदी जल से स्पर्श करके बहती शीतल हवाओं और यहां के वातावरण में व्याप्त एक विशेष प्रकार की दिव्यता के अहसास से कदम अनायास ही उस पवित्र स्थल की ओर बढ़ जाते हैं, जहां समय भी ठिठक कर खड़ा प्रतीत होता है। यहां आकर लगता है जैसे दुनिया की सारी हलचलें बंद हो गई हों। यहां इतनी गहन शांति है कि घड़ी की सुइयां तो चलती हैं, पर मन की भागदौड़ थम जाती है।

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यहां राय घाट स्थित उस प्राचीन दिव्य वट वृक्ष के दर्शन करने का सौभाग्य मिलता है, जो मात्र एक पेड़ नहीं, बल्कि क्रिया योग के इतिहास की एक बड़ी अलौकिक घटना का मूक गवाह है।

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एक पूर्व निर्धारित मिलन

इस वट वृक्ष के नीचे जो दिव्य घटित हुआ, उसकी जड़ें अतीत में बहुत गहरी हैं। ग्रीष्म ऋतु की एक शांत रात्रि में परमहंस योगानंद जी, जो उस समय मुकुंद नामक एक बालक ही थे, अपने गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी के आश्रम में बैठे थे। बातचीत के दौरान मुकुंद ने पूछा, ‘गुरुदेव क्या कभी आपको बाबाजी के दर्शन हुए हैं?’ इस पर स्वामी जी ने तीन बार महावतार बाबाजी के दर्शन की बात स्वीकारी। उन्होंने बताया कि महावतार बाबाजी के दर्शन पहली बार सन‍् 1894 के जनवरी मास में प्रयाग (इलाहाबाद) कुंभ के अवसर पर हुए थे। वहीं बाबाजी ने स्वामी जी से हिंदू और ईसाई धर्मग्रंथों में निहित एकता पर एक पुस्तक लिखने को कहा। आश्वस्त किया कि ‘जब तुम्हारी पुस्तक पूरी हो जाएगी तब मैं तुमसे मिलने पुनः आऊंगा।’

दिव्य अवतरण का प्रसंग

कुंभ से लौटने के बाद, स्वामी जी ने श्रीरामपुर स्थित अपने आश्रम में सनातन धर्म के शास्त्रों का तुलनात्मक अध्ययन किया और ‘द होली साइंस’ (कैवल्य दर्शनम‍्) नामक पुस्तक की रचना की। हुगली के किनारे घूमना और राय घाट पर स्नान करना, उनकी दैनिक दिनचर्या का हिस्सा था। पुस्तक पूर्ण होने के बाद, अपनी नियमित दिनचर्या के अनुसार एक सुबह स्वामी जी राय घाट पर स्नान करके जैसे ही अपने आश्रम की ओर चले, वहां हुगली के किनारे स्थित वट वृक्ष की छाया में अपने शिष्यों से घिरे महावतार बाबाजी को देखकर वे विस्मित रह गए। यह दृश्य सांसारिक जगत के भौतिक नियमों को चुनौती देने वाला था।

हिमालय की दुर्गम कंदराओं में निवास करने वाले महावतार बाबाजी को लेकर मान्यता रही है कि वे केवल आध्यात्मिक रूप से अत्यंत उन्नत शिष्यों को ही दर्शन देते हैं। स्वामी जी ने साष्टांग प्रणाम कर बाबाजी के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की। बाबाजी ने पुस्तक पूरी करने पर स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी को अपने दर्शन देने का वादा पूरा किया और कैवल्य दर्शनम‍् को अपनी स्वीकृति दी। इस घटना का विस्तार से विवरण ‘योगी कथामृत’ के प्रकरण-36 ‘पश्चिम के प्रति बाबाजी की अभिरुचि’ में मिलता है।

साक्षी वट का ही अंश

यात्रा के दौरान मन में जिज्ञासा भी उत्पन्न होती कि क्या मौजूदा विशाल वट वृक्ष ही दिव्य घटना का साक्षी रहा? क्या समय के थपेड़ों व गंगा के कटाव या भीषण आंधियों ने, उस मूल वट वृक्ष के भौतिक स्वरूप को बदल दिया है? क्या उसने अपनी जटाओं के विस्तार से अपने स्वरूप का नवीनीकरण किया? तथ्य बताते हैं कि वर्तमान में लहलहाता यह वृक्ष उसी ‘साक्षी वट’ का ही एक अंश है। यह जानकर कि वट वृक्ष ने अपने मूल स्वरूप बदलकर नया रूप धारण किया, साधक की श्रद्धा गहरी हो जाती है। इससे एक गहरा आध्यात्मिक संदेश मिलता है कि शरीर और प्रकृति के अवयवों के स्वरूप बदलते रहते हैं, लेकिन चेतना और ऊर्जा शाश्वत रहती है। वृक्ष नया हो सकता है, किंतु उसकी जड़ें उसी पवित्र मिट्टी से पोषण पा रही हैं, जहां कभी महावतार बाबाजी प्रकट हुए थे।

एक जाग्रत तीर्थ

कई साधक बताते हैं कि उन्हें हुगली (गंगा) की लहरों और वृक्षों की सरसराहट में उस दिव्य मिलन का स्पंदन महसूस होता है। यह स्थान विश्वास दिलाता है कि जब शिष्य की निष्ठा और समर्पण पूर्णत: होता है तो गुरु स्वयं आशीर्वाद देने के लिए प्रकट होते हैं—चाहे वह हिमालय का शिखर हो या श्रीरामपुर का राय घाट। यह वट वृक्ष और राय घाट केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं, बल्कि एक ‘जाग्रत तीर्थ’ है। यहां का मौन भी आपसे बातें करता है, बस सुनने के लिए हृदय में श्रद्धा होनी चाहिए।

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