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बड़ों का आत्मीय व्यवहार लाए नन्हों के चेहरों पर सहज मुस्कान

तनाव के विरुद्ध जागरूकता माह

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डॉ. मोनिका शर्मा

बच्चों की उछल-कूद और मासूमियत भरी बातों को तो बड़ों का स्ट्रेस दूर करने की दवा सा माना जाता है। बाल सुलभ बर्ताव बड़ों को भी सहज सी मुस्कान से जोड़कर तनाव से बाहर ले आता है। तकलीफदेह है कि अब तो बच्चे खुद तनाव का शिकार बन रहे हैं। ऐसे में बालमन को घेरते स्ट्रेस को लेकर अभिभावकों का जागरूक रहना आवश्यक है। बच्चों की बिखरती मनःस्थिति के लिए हर बार पढ़ाई के दबाव और बिगड़ते बर्ताव भर को कारण नहीं माना जा सकता है। आजकल बच्चे बहुत कारणों से स्ट्रेस के जाल में फंस रहे हैं। पेरेंट्स की सजगता, स्नेह और सही समझाइशें ही बचपन को तनाव के स्याह साये से बचा सकती है।

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सजगता आवश्यक

कई बार बच्चों के आक्रोशित होने, आलस बढ़ने, बढ़ते मोटापे, बदलते खानपान, किसी काम में फोकस न कर पाने और थके-सहमे से रहने जैसी बातों को उनकी मनमौजी आदतों से जोड़ दिया जाता है। मस्ती भर कह दिया जाता है। अभिभावक यह सोच ही नहीं पाते कि तनाव भी एक स्वास्थ्य समस्या बनकर बचपन को अपनी जकड़न में ले सकता है। जिसका असर शारीरिक गतिविधियों से लेकर मानसिक थकावट, कई तरह से नजर आता है। वैसे तो हमारे यहां हर आयु वर्ग के लोगों में ही स्ट्रेस के शिकार होने से जुड़ी जागरूकता का अभाव है, पर बच्चे तो अपनी बिगड़ती मनः स्थिति को बिलकुल भी नहीं समझ सकते। चूंकि तनाव को स्वास्थ्य से जुड़ी समस्या नहीं समझा जाता तो इसके कारणों पर गौर नहीं जाता। जबकि अभिभावकों का बच्चों को घेरते तनाव की वजहों और इलाज के तरीकों को लेकर सचेत रहना बेहद आवश्यक है। तनाव के कारणों और इलाज के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए 1992 से हर वर्ष अप्रैल को तनाव जागरूकता माह के रूप में मनाया जाता है। महीने भर स्ट्रेस से पैदा हो रहीं समस्याओं पर खुलकर बातचीत करने के लिए कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। साथ ही मित्रों, परिवारों, सहकर्मियों और पेशेवर लोगों के साथ अपनी मानसिक और भावनात्मक स्थिति के बारे में खुलकर बात करने का परिवेश बनाने की भी कोशिशें की जाती हैं। इस मोर्चे पर संवाद से लेकर विशेषज्ञों की सलाह लेने तक, पैरेंट्स की सजगता ही बच्चों को तनाव से बचा सकती है।

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संवाद कीजिए

आलसी-आक्रोशित, चिड़चिड़ापन या फिर पढ़ने-लिखने में मन न लगने की स्थिति में बच्चों को ‘बदमिजाज हो गया है’ या ‘ आदतें बिगड़ गई हैं इसकी’ भर कहकर उनसे दूर हो जाना सही नहीं है। अभिभावकों को बच्चों से सार्थक संवाद करना चाहिए। उनसे पूछना जरूरी है कि थका हुआ क्यों महसूस करते हैं? पढ़ाई में मन न लगने या किसी बात को लेकर भयभीत रहने जैसी मनःस्थिति कब बनती है? किन बातों से उनका मूड खराब हो जाता है? अच्छी नींद क्यों नहीं ले पा रहे हैं? खेलने न जाने का क्या कारण है? हमउम्र साथियों से मिलते-जुलते क्यों नहीं? अभिभावकों के ऐसे सवाल जरूरी हैं। समय रहते बातचीत न की जाये तो तनाव के शिकार बच्चे अपनी उलझनों को समेटकर अवसाद के जाल की ओर बढ़ने लगते हैं। मन की बात बड़ों के साथ साझा करने से उन्हें सही सलाह भी मिलती है। छोटी-छोटी बातों को भूलकर आगे बढ़ने का उत्साह मिलता है। संवाद करने से ही पैरेंट्स भी यह समझ पाते हैं कि बच्चा तनाव के जाल में क्यों उलझ रहा है? बालमन के हालात समझकर ही तय किया जा सकता है कि अभिभावकों का स्नेह-साथ इस समस्या से बाहर ला सकेगा या पेशेवर परामर्श की दरकार है।

हल तलाशिए

सामाजिक मेलजोल बढ़ाने से लेकर स्मार्ट गैजेट्स से दूरी रखने तक, अभिभावकों को बच्चों की मनःस्थिति बदलने को बहुत कुछ करना होता है। बच्चों में बढ़ते तनाव की वजहों को समझकर इमोशनल सपोर्ट देना तो आवश्यक है ही, जीवनशैली में व्यावहारिक बदलाव करना भी जरूरी है। पढ़ाई के दबाव से बच्चा तनाव में है तो टाइम टेबल बनाकर सहज-सधी दिनचर्या के माध्यम से उसकी मदद की जा सकती है। किसी बात के चलते पीयर प्रेशर बच्चे को स्ट्रेस दे रहा है तो भी पेरेंट्स का समझाना जरूरी है। अपनी पसंद की क्लास ज्वाइन करना, पढ़ाई से इतर कुछ नया सीखना या दोस्तों के साथ मेलजोल बढ़ाना जैसी एक्टिविटीज़ भी बच्चों को स्ट्रेस से बाहर लाती हैं । खेल-कूद के साथ ही पैदल चलना, साइकिलिंग, तैराकी और डांस जैसी गतिविधियां भी बच्चों का मन बदलने में हेल्पफुल होती हैं। एंजाइटी के समय मन से उनकी बातें सुनें। तकलीफदेह दौर में अभिभावक बच्चों की आलोचना से बचें। उदास मनोदशा के दौर में हर मोर्चे पर पेरेंट्स सहयोग करने का मानस बनाएं। बच्चे कैसे तनावग्रस्त हो सकते हैं?-जैसा कुछ न सोचते हुए उनकी मनःस्थिति को समझें। जरूरी हो तो चिकित्सीय सलाह भी लें।

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