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पौराणिक रहस्य और जैव विविधता की धारा

बेतवा नदी
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बेतवा नदी, मध्य प्रदेश की गंगा, न केवल धार्मिक और पौराणिक महत्व रखती है, बल्कि जैव विविधता और पारिस्थितिकी का अहम हिस्सा भी है, जो स्थानीय जीवन को संजीवनी प्रदान करती है

बेतवा नदी, मध्य प्रदेश की गंगा, धार्मिक और पौराणिक महत्व के साथ-साथ पारिस्थितिकी और जलचक्र की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। यह रायसेन जिले की बेतुल पहाड़ियों से निकलकर 590 किलोमीटर बहती है, जिसमें से 470 किलोमीटर मध्य प्रदेश और 80 किलोमीटर उत्तर प्रदेश में स्थित है। इसका जलग्रहण क्षेत्र 46,500 किलोमीटर में फैला है, जो जलस्रोत के रूप में महत्वपूर्ण है। मानसून में बेतवा का प्रवाह 500-700 घनमीटर प्रति सेकंड होता है, जबकि गर्मियों में यह घटकर 50-80 घनमीटर प्रति सेकंड रह जाता है।

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अपने इसी विशाल जलस्रोत के कारण बेतवा नदी केवल सिंचाई के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि भू-जल पुनर्भरण, नमी बनाए रखने और स्थानीय जलवायु को संतुलित रखने के लिहाज से भी बहुत महत्वपूर्ण है। बेतवा के किनारे के क्षेत्र, जैसे बुंदेलखंड के पठार और विदिशा, ओरछा क्षेत्र का विशाल अर्धशुष्क क्षेत्र बेतवा नदी के कारण नमी और जैविक समृद्धि के साथ हरियाले क्षेत्र के रूप में पहचान बनाता है। बेतवा नदी अपने लघु जलाशयों और आर्द्रभूमियों को भी पोषण देने का काम करती है। इस कारण इसका प्रवाह क्षेत्र अनेक जीवों और पक्षियों का आवास स्थल है। बेतवा नदी की तलछटी भूमि में भरपूर मात्रा में जैविक अवशेष और पोषक तत्व पाए जाते हैं, जो इसके भौगोलिक क्षेत्र की कृषि व्यवस्था के लिए किसी वरदान से कम नहीं हैं। बेतवा के कारण ही मध्य प्रदेश के पर्यटन नक्शे में ओरछा जैसा खूबसूरत पर्यटन स्थल है। दरअसल, बेतवा नदी के किनारे बसा ओरछा अपने हरे-भरे खेतों, शांत वन्यजीवन और खास तरह के तोतों, किंगफिशर, बगुलों, जलकाग और लैपविंग पक्षियों का स्वर्ग माना जाता है। यही नहीं, बेतवा के कारण ही ओरछा का इलाका अपने मशहूर मकाक और चित्तीदार हिरणों के अलावा जंगली लंगूरों का घर है।

अगर इतिहास और पौराणिक आख्यानों की बात करें तो बेतवा नदी का इतिहास महाभारतकाल से जुड़ता है। तब इसे वेत्रवती नदी कहा जाता था। इसके तट पर कई प्राचीन और ऐतिहासिक स्थलों का निर्माण हुआ है। महाभारत में उल्लेखित चेदि साम्राज्य की राजधानी शुक्तिमती इसके तट पर स्थित थी। सन 1531 में बुंदेला शासक रुद्रप्रताप सिंह द्वारा बनवाए गए ओरछा के मशहूर रामराजा मंदिर भी बेतवा नदी के किनारे ही स्थित हैं। इसके अलावा उत्तर प्रदेश के ललितपुर में बेतवा के किनारे ही देवगढ़ में दशावतार मंदिर स्थित है, जो एक महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल है। मध्य प्रदेश के रायसेन जिला स्थित कुम्हारगांव से निकलने वाली बेतवा के किनारे भोपाल, विदिशा, झांसी, ललितपुर और हमीपुर जैसे महत्वपूर्ण शहर स्थित हैं। इसके ऊपरी भाग में कई झरने मिलते हैं। बुंदेलखंड पठार की यह सबसे लंबी नदी है और सांची के प्रसिद्ध स्तूप इसी नदी के किनारे स्थित हैं। बीना नदी, बेतवा की सर्वप्रमुख सहायक या उपनदी है। अपने सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व के चलते यह मध्य प्रदेश की गंगा कहलाती है। वेदों में भी बेतवा का गुणगान किया गया है।

बेतवा अपने ऐतिहासिक और पौराणिक आख्यानों के साथ-साथ जलीय जीव-जंतुओं के लिए भी जानी जाती है। बेतवा नदी में कई दुर्लभ स्थानीय जीव प्रजातियां पाई जाती हैं, जैसे रोहू, कतला, मृगल, सिंहारा के साथ-साथ इसमें महाशीर जैसी भारतीय नदियों की सबसे प्रतिष्ठित मछली भी पाई जाती है। किसी नदी में इसके पाए जाने का मतलब है कि वह नदी अभी तक स्वच्छ है। हालांकि, अब फिर से इसके कुछ हिस्सों में घड़ियालों की बस्ती पुनर्स्थापित हो चुकी है। बेतवा के शांत तटों और झाड़ियों में ओटर नाम का एक बेहद प्यारा पक्षी पाया जाता है, जो इसके किनारे की झाड़ियों में दुबककर रहता है। बेतवा नदी के आसपास के क्षेत्र कई देशी-विदेशी जलपक्षियों का प्रवास स्थल भी है। भारत का सबसे ऊंचा उड़ने वाला पक्षी सारस क्रेन अक्सर बेतवा के दलदली किनारों में ही देखा जाता है। इसके अलावा प्रवासी जलपक्षियों में कॉमन टील, पिंटेल और शवलर भी यहां पाए जाते हैं। जबकि यहां के स्थायी पक्षियों में किंगफिशर, ईग्रेट, पर्पल हेरॉन, पेंटेड स्टॉर्क, व्हाइट आइबिस विशेष पक्षी हैं। ओरछा, झांसी और ललितपुर के बीच का क्षेत्र विशेष रूप से बेतवा के पक्षी विविधता क्षेत्र के रूप में जाना जाता है।

इसका वानस्पतिक और जैविक आवरण भी बहुत महत्वपूर्ण है। नदी के किनारे का पारिस्थितिक तंत्र या रिपेरियन जोन अनेक महत्वपूर्ण पेड़ों का घर है, जैसे—कनेर, अर्जुन, कदंब, बबूल, खैर, नीम और इमली जैसे भारतीय संस्कृति के महत्वपूर्ण वृक्ष बेतवा के किनारे बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। इसके किनारों में टाइफा और हाइड्रिला जैसी जल घासें भी पाई जाती हैं, जो मछलियों और उभयचर जीवों को आश्रय देती हैं। मानसून के बाद उगने वाली नल घास यहां जलपक्षियों को अपने सुरक्षित घोंसले बनाने का मौका देती है। सबसे बड़ी बात यह है कि बेतवा का प्रवाह भूमिगत जल पुनर्भरण करता है, जिस कारण इसका भौगोलिक क्षेत्र अनेक तरह के सूक्ष्म जीवों का घर है और इसके किनारे परागण और कीट नियंत्रण में सहायक अनेक पक्षी और उभयचर देखने को मिलते हैं।

हालांकि, अपनी इतनी महत्वपूर्ण जैव विविधता वाली यह नदी भी अब इंसानी अतिक्रमण के शिकार से अछूती नहीं है। रेत खनन और बांध निर्माण के कारण यह नदी भी अपने अस्तित्व के खतरे से जूझ रही है। फिर भी बुंदेलखंड अंचल की यह अभी जीवंत नाड़ी बनी हुई है और अपनी इन्हीं खूबियों के कारण यह मध्य प्रदेश की गंगा और बुंदेलखंड की जीवनरेखा भी कहलाती है। इ.रि.सें

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