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रिश्तों के मजबूत आधार के भविष्य पर सवाल

फादर्स डे/ पैरेंटिंग में धुंधलाती जैविक पहचान की सीमारेखा
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पिता को सदा से जैविक अस्तित्व का आधार माना जाता रहा, लेकिन जिस तरह से सिंगल पैरेंटिंग व लिव इन रिलेशनशिप बढ़ रही है, कृत्रिम तकनीक से संतान पैदा हो रही हैं तो पिता का अस्तित्व सवालों के घेरे में है। इससे गहरे, सामाजिक और भावनात्मक सवाल खड़े हो गये हैं। भविष्य में संतान को बतौर पिता एक मार्गदर्शक व जिम्मेदारियां निभाने वाले की जरूरत होगी लेकिन जरूरी नहीं वह जैविक पिता हो। ऐसे में पिता वाले भावनात्मक अहसास शायद ही पहले जैसे प्रभावी रहें।

लोकमित्र गौतम

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आधुनिक परिवार व्यवस्था बनने के बाद पिता रिश्तों की सबसे विराट संस्था रहे हैं। पिता के नाम पर कुल चलता है। पिता के नाम पर वंश चलता है। हर जगह पहचान का पहला बड़ा आधार पिता रहे हैं। यहां तक कि अभी सौ साल पहले तक दुनिया में जिस व्यक्ति के पिता का पता नहीं होता था, उससे बड़ा अपमान उस व्यक्ति के लिए कुछ और नहीं होता था। स्कूलों में बिना पिता के नाम के बच्चों का नाम नहीं लिखा जाता था। बिना पिता के हर परिचय एक समय तक अधूरा रहा है। लेकिन धीरे-धीरे रिश्तों की सबसे मजबूत कड़ी पिता छीज रहे हैं।

कृत्रिम विधियों की ओर रुझान

एक जमाने में माना जाता था कि वही असली संतान है जिसकी रगों में पिता का खून दौड़ रहा है। यह कितनी विरोधाभासी बात है कि जिस पिता को सदा से जैविक यानी अपने अस्तित्व का आधार माना जाता रहा है, वही पिता का रिश्ता अब जैविक नहीं रहा। अब पिता नामक संस्था को सामाजिक संस्था के दायरे में डाल दिया गया है। जिस तरह से सिंगल पैरेंटिंग बढ़ रही है, जिस तरह से लिव इन रिलेशनशिप पूरी दुनिया में बढ़ रही है, जिस तरह से बायोलॉजिकल पिता का अस्तित्व धीरे-धीरे धुंधला पड़ रहा है, लोग बिना किसी हिचक के कृत्रिम तकनीक से संतान पैदा करने को तरजीह दे रहे हैं। मसलन इस समय दुनिया में करीब 80 लाख संतानें हैं जो या तो परखनली संतानें हैं या अंजान डोनर के शुक्राणुओं से पैदा हुई संतानें हैं अथवा जो मेडिकल संस्थाओं द्वारा उपलब्ध कराये गये सीमन और इनविट्रो फर्टिलाइजेशन की तकनीक से पैदा हुए हैं, उनके दिल-दिमाग में पिता नामक रिश्तों के सबसे वजनदार किरदार का वह हैंगओवर नहीं है, जो सदियों से हर संतान पर अपने पिता को लेकर रहता रहा है।

अस्तित्व का सवाल

अगर वास्तव में इस बारे में गंभीरता से सोचा जाए तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि क्या अगले कुछ दशकों में पिता जैसे रिश्तों की विराट संस्था का अस्तित्व मिट जायेगा? या फिर उसका वह रूप हमेशा-हमेशा के लिए बदल जायेगा, जिसे आजतक दुनिया जानती रही है? हालांकि इस सवाल का जवाब इतना भी आसान नहीं है कि ‘हां’ या ‘न’ में दे दिया जाए। लेकिन यह भी सच है कि जिस तरह से पिछले कुछ दशकों में रिश्तों के जैविक समीकरण तेजी से बदले हैं, उनके अस्तित्व पर कुछ बड़े प्रश्नचिन्ह लगे हैं, उनको देखते हुए यह सोचना कतई अतिवादी नहीं लगता कि भविष्य में पिता जैसी संस्था का अस्तित्व मिट सकता है। अगर नहीं भी मिटता तो यह तो तय है कि पिता जैसे संबंध पर हम जो गुरुत्वाकर्षण सदियों से देखते रहे हैं, वह ग्रेविटी नहीं ही रहेगी। पिता कभी हर संतान के लिए सामाजिक, भावनात्मक और जैविक हर तरह के आधार का मूल रहे हैं। पिता के बिना किसी संतान की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। अब उसी पिता जैसे विराट अस्तित्व के सामने गहरे, सामाजिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक प्रश्नचिन्ह खड़े हो गये हैं।

बदले ढांचे में पिता की जरूरत

अब जोर-शोर से यह कहने का चलन बन गया है कि पिता जैविक नहीं, एक सामाजिक और भावनात्मक संस्था हैं। लेकिन जिस तरह से परिवारों की संरचना तेजी से बदल रही है, संयुक्त परिवार टूटकर एकल परिवार बन गये, एकल परिवार टूटकर लिव इन रिलेशनशिप का आधार बन गये और फिर लिव इन भी बदलकर सह-पालक का आधार बन गये हैं। हां, यह तय है कि किसी भी बच्चे के जीवन में एक ऐसे व्यक्ति की जरूरत तो हमेशा बनी रहेगी, जो उसका मार्गदर्शन करे, उसे भौतिक और भावनात्मक सुरक्षा दे, उसके हिस्से की जिम्मेदारियां निभाये, उसे अनुशासन और नैतिकता सिखाए और सबसे बढ़कर बिना शर्त उसे अपनेपन का अहसास दे। लेकिन जरूरी नहीं है कि इन सारी खूबियों वाला व्यक्ति पिता ही हो या कि किसी को ये सारी खूबियां किसी एक व्यक्ति से ही मिलें। ये सभी भूमिकाएं एक व्यक्ति में न सिमटकर भविष्य में अलग-अलग या विभाजित हो सकती हैं। कहने का मतलब यह कि पिता की संस्था तो मिट जायेगी, उसका ढांचा और परिभाषा भी बदल जायेगी, पर पिता की जिम्मेदारियां, उसकी जरूरतें कम नहीं होंगी।

पिता और संतान के संबंधों पर असर

सवाल है तो फिर आखिर भविष्य के पिता कैसे होंगे या कि भविष्य में पिता किस तरह बदलने जा रहे हैं? भविष्य में पिता और उनकी संतानों के बीच पारंपरिक रिश्ते देखने को नहीं मिलेंगे बल्कि वे परस्पर संबंधों की ओर बढ़ेंगे। मतलब यह कि भविष्य का पिता अपनी संतान को केवल आदेश देने वाला नहीं होगा बल्कि उसके साथ खुद भी सीखने वाला, उसके साथ बढ़ने वाला और उसकी भावनाओं के साथ साझीदारी करने वाला भी होगा। सबसे बड़ी बात तो यह है कि पिता के नाम पर अभी हमारे सामने सदियों के लैंगिक बोध की जो तस्वीर है, भविष्य में वह तस्वीर चकनाचूर हो सकती है। मतलब जरूरी नहीं है कि पिता पुरुष ही हो। भविष्य में आपका पिता कोई ट्रांसजेंडर भी हो सकता है, समलैंगिक भी हो सकता है, दत्तक भी हो सकता है या आपकी पैदाइश में जैविक भूमिका निभाने वाला शुक्राणुओं का दानकर्ता भी हो सकता है, जिसे आप या आपकी मां भी शायद न जानती हो। पिता नामक विशिष्ट एक्सक्लूसिव किरदार जिसके नाम पर आपका सीना धड़कता था और बांहें फड़कती थीं, वह भावनात्मक वेगपूर्ण पिता का किरदार शायद नहीं रहेगा।

जैविक पर हावी रहेगा भावनात्मक जुड़ाव

आजतक का चलन यही रहा है कि हर पिता को अपनी संतान के साथ अटूट मोह रहा है, भले उसने कभी उसके साथ जुड़ाव न महसूस किया हो, समय न बिताया हो। यही बात संतानों पर अपने पिता के लिए कही जा सकती है और इस सबका भावनात्मक आधार पिता के जैविक विस्तार होने पर रहा है। लेकिन भविष्य में पिताओं के साथ इस तरह से जैविक जुड़ाव शायद ही रहें बल्कि भावनात्मक और मानसिक रिश्ते शायद बेहतर रहें। अभी तक माना जाता रहा है कि जिसने जन्म दिया, वही पिता है। लेकिन शायद भविष्य में इसकी जगह शायद यह ज्यादा मजबूती के साथ माना जाए कि जिसने जीवन को संवारा, वही पिता है। डिजिटल युग के पिता अपने बच्चों को क्या सिखाएंगे? डिजिटल युग की संतानें सीखने के मामले में अपने पिताओं से ज्यादा तेज दिमाग हैं, तो ऐसा भी हो सकता है कि बच्चे इस धारणा से ही उबर जाएं कि उनके पिता, उनसे ज्यादा जानते हैं। डिजिटल युग के पिता बच्चों को विरासत में पायी अपनी सीखें नहीं दे सकते बल्कि हर पल ज्यादा चौकन्ना, ज्यादा सतर्क रहने की आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की जरूरत पर जोर दे सकते हैं।

अधिक समावेशी भूमिका में

अगर भविष्य में आपको यह सुनने को मिले कि किसी संतान के एक नहीं कई पिता हैं, तो आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए। क्योंकि भविष्य में पिता सहपालक की भूमिका में भी हो सकते हैं। उनका सहचर होना, सह-शिक्षार्थी होना, भी आश्चर्य में नहीं डालेगा और भविष्य में शायद ही किसी पिता का अपनी संतानों पर वह भावनात्मक दबदबा रहे। भविष्य के पिता प्रेरक व्यक्ति होंगे, न कि भय पैदा करने के स्रोत। इस तरह पिता नामक संस्था का अस्तित्व तो नहीं नष्ट होगा बल्कि वह अधिक समावेशी और लचीला हो जायेगा। लेकिन पिता की जो तस्वीर हम आज देखते हैं, पिता का जो भावनात्मक अहसास हम आज करते हैं, शायद ही वह भविष्य में हो।                                                                                                                                                                   -इ.रि.सें.

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