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पराक्रम दिवस दृढ़ निश्चयी, करिश्माई और प्रेरक व्यक्तित्व थे बोस

जयंती पर विशेष

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डॉ.रामजीलाल

सुभाष चंद्र बोस (23 जनवरी 1987-18 अगस्त 1945) भारत माता के उन सपूतों में अग्रणी हैं जिन्होंने भारत में ही नहीं अपितु विदेशों में जाकर जोखिम उठाते हुए ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध आजादी की लड़ाई में अतुलनीय योगदान दिया।

नेताजी ने अपना जीवन राष्ट्रीय मुक्ति के लिए न्योछावर कर दिया। नेताजी एक ऐसे उत्कृष्ट राष्ट्रवादी, महान देशभक्त, सैन्य वीर एवं योद्धा, सफल प्रबंधक एवं संगठनकर्ता, समाजवादी क्रांतिकारी, यथार्थवादी, अस्तित्ववादी राजनीतिक, ओजस्वी वक्ता, लेखक एवं करिश्माई विराट व्यक्तित्व के धनी थे जिनके रोम-रोम में स्वदेश प्रेम, आत्म त्याग, बलिदान, कुर्बानी, आत्मविश्वास, स्वतंत्रता और राष्ट्र प्रेम की भावना अतुलनीय थी। वह एक महान क्रांतिकारी, प्रचारक, संघर्षशील, जुझारू एवं राजनीतिक विभूति थे।

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23 जनवरी 1897 को उनका जन्म हुआ था। कोलकाता विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात अपनी विलक्षण बुद्धि, प्रतिभा, सुदृढ़ आत्मविश्वास, परिश्रम, एकाग्रचित लग्न व अपने आदर्शों के लिए प्रति उच्च श्रेणी की निष्ठा के कारण सन 1920 में भारतीय नागरिक सेवा (इंडियन सिविल सर्विस) की परीक्षा उत्तीर्ण की। सन 1921 में केवल 24 वर्ष की आयु में आईसीएस नौकरी में से त्यागपत्र दे दिया और राष्ट्रीय मुक्ति के संघर्ष में कूद पड़े।

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उनकी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और आध्यात्मिक विचारधारा पर बाल्यकाल से ही रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, और अरबिंदो घोष का अत्यधिक प्रभाव था। स्वामी विवेकानंद ने उन्हें निजी मोक्ष एवं मानवता के कल्याण का मार्गदर्शन किया। बोस के चिंतन पर रूस की साम्यवादी क्रांति का प्रभाव भी था जिसके कारण उन्होंने गांधीवाद और दक्षिणपंथी विचारधारा से समझौता नहीं किया। उनके राष्ट्रवादी चिंतन पर कमाल पाशा, डी वलेरा, मुसोलिनी, हिटलर इत्यादि का प्रभाव भी था। जब 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला हत्याकांड में अमृतसर के सिविल सर्जन डॉक्टर स्मिथ के अनुसार लगभग 1800 स्त्री ,पुरुष व बच्चे मारे गए और फिर समस्त भारत में क्रांतिकारी आंदोलन की चिंगारी भड़कने लगी।

जेल भरो आंदोलन पर दिया जोर : जब असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था, चोरा चोरी की हिंसात्मक घटना के परिणाम स्वरुप महात्मा गांधी ने अचानक आंदोलन समाप्त कर दिया। बोस सहित असंख्य कांग्रेसियों, देश भक्तों एवं भगत सिंह जैसे युवा क्रांतिकारियों का महात्मा गांधी के नेतृत्व से विश्वास लगभग समाप्त हो गया। बोस ने ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार को हतोत्साहित करने व उखाड़ फेंकने के लिए जेल भरो आंदोलन, महिलाओं को समान अधिकार प्रदान करने व हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल दिया। हरिपुरा अधिवेशन (1938) व त्रिपुरी अधिवेशन (1939) में नेताजी कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। त्रिपुरी अधिवेशन में कांग्रेस में मतभेदों के कारण अध्यक्ष पद त्यागपत्र दे दिया और अपने संघर्ष को जारी रखने के लिए सन‍् 1939 में उन्होंने फॉरवर्ड ब्लॉक स्थापना की।

भावी भारत के निर्माण के लिए उनका चिंतन वर्तमान अभिजात्य शासक वर्ग के चिंतन के बिल्कुल विपरीत था कांग्रेस के हरिपुर सम्मेलन, 1938 में उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा, ‘मुझे इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि हमारी दरिद्रता, निरक्षरता और बीमारी के उन्मूलन व वैज्ञानिक उत्पादन और वितरण से संबंधित समस्याओं का समाधान समाजवादी मार्ग पर चलकर ही किया जा सकता है। अपने करिश्माई विराट व्यक्तित्व, राजनीतिक विचारों, उग्र संघर्ष, श्रेष्ठ बौद्धिकता, ओजस्वी वक्ता तथा अदम्य साहस के कारण नेताजी शिखर पर पहुंच चुके थे और वह जनता के हृदय सम्राट बन गए। 1 सितंबर 1939 को द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ हो गया। इस युद्ध के समय सुभाष चंद्र बोस तथा अनेक क्रांतिकारियों की यह नीति थी कि ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता’ है। 28 मार्च 1941 को हवाई जहाज के द्वारा मास्को से जर्मनी गए तथा हिटलर से मुलाकात की। जर्मनी से 13 जून 1943 को जापान जाने में सफलता प्राप्त की।

12 फरवरी 1942 को जापान की सहायता से मोहन सिंह के द्वारा आजाद हिंद फौज (इंडियन नेशनल आर्मी) की स्थापना की गई। आजाद हिंद फौज में हरियाणा के 398 अधिकारी तथा 2,317 सैनिक थे। एक अन्य स्रोत के अनुसार हरियाणा से 2,847 सैनिक थे, जिनमें से 346 सैनिक वीरों ने अपनी कुर्बानी देकर देश की स्वतंत्रता के लिए अभूतपूर्व योगदान दिया। इनमें करनाल जिले के 119 सैनिक और 14 अधिकारी थे। करनाल जिले के 5 सैनिक तथा अधिकारी शहीद हुए थे।

जून 1943 में सुभाष चंद्र बोस इसके कमांडर इन चीफ बने। सुभाष चंद्र बोस ने 21 अक्तूबर 1943 को अंतरिम सरकार की स्थापना की जिसको जर्मनी, इटली और जापान सहित विश्व के नौ राज्यों ने मान्यता प्रदान की। आजाद हिंद फौज भारतीय भूमि में प्रवेश करने में सफल हो गई।

बोस ने आजाद हिंद फौज को ‘दिल्ली चलो’ का उद्घोष दिया जो आज भी भारत की जनता में धैर्य और जोश पैदा करता है। 18 अगस्त 1945 को टोक्यो जाते हुए वह हवाई जहाज में आग लगने के कारण वीरगति को प्राप्त हुए, हालांकि उनकी मृत्यु के संबंध में विवाद भी रहे हैं।

आजाद हिंद फौज के प्रभाव के कारण भारतीय नागरिक सेवा, भारतीय सेनाओं- इंडियन नेवी, एयरफोर्स, आर्मी, (पूर्वी कमान कोलकाता) और पुलिस में बगावत हो गई। परिणाम स्वरूप रिपोर्ट जब गवर्नर ऑफ इंडिया के द्वारा इंग्लैंड की कैबिनेट को भेजी गई तो उनके सामने एक ही वैकल्पिक था, उनको भारत छोड़कर जाना पड़ा।

आजाद हिन्द फौज के प्रयाण गीत

आजाद हिन्द फौज के प्रयाण गीत (क्विक मार्च) की रचना राम सिंह ठकुरि ने की थी। इस की धुन( ट्यून) भारतीय सेना के प्रयाण गीत के रूप में आज भी प्रयोग होती है...कदम-कदम बढ़ाये जा....खुशी के गीत गाये जा। यह जिंदगी है कौम की तू कौम पे लुटाये जा।

रेड फोर्ट ट्रायल

आजाद हिंद फौज के 17000 सैनिकों को अलग-अलग स्थानों पर जेलों में डाला दिया गया। जेलों में बंदी सैनिकों को फांसी देने के लिए मुकदमें नवंबर 1945 में शुरू हुए। इनमें सबसे प्रसिद्ध अभियोग लाल किले में चलाया गया। इसको रेड फोर्ट ट्रायल के नाम से भी जाना जाता है। इसमें कर्नल प्रेम सहगल(हिन्दू ), कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लों (सिक्ख) व मेजर जनरल शाहनवाज खान (मुस्लिम) आरोपी थे। लाल किले के मुकदमों में आजाद हिंद फौज (आईएनए) की पैरवी करने वाले वकीलों में जवाहरलाल नेहरू , भूलाभाई देसाई, तेज बहादुर स्प्रू , आसफ अली, कैलाश नाथ काटजू व लेफ्टिनेंट कर्नल होरीलाल वर्मा शामिल थे। आज़ाद हिंद फ़ौज के सैनिकों को जेलों से छुड़वाने के लिए समस्त भारत में जन सभाएं आयोजित की गई। हिंदुस्तान में यह उद्घोष गू्ंज रहा था: ‘लालकिले को तोड़ दो, आजाद हिंद को छोड़ दो”। आजाद हिन्द फौज के 17 हजार जवानों के खिलाफ चलने वाले मुकदमों के विरोध में जनाक्रोश के सामूहिक प्रदर्शन हो रहे थे। इन प्रदर्शनों में पुलिसिया जुल्म से दिल्ली, मुम्बई, मदुरई और लाहौर में 326 से अधिक लोगों की जान चली गयी थी।

(डॉ. रामजीलाल, सामाजिक वैज्ञानिक, पूर्व प्राचार्य दयाल सिंह कॉलेज, करनाल)

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