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रहस्य

बांग्लादेशी कहानी ‘बहुत अच्छी हैं। बहुत गुणी हैं।’ सज्जन का चेहरा दमक उठा। धीमे स्वर में बोले, ‘बंदर के गले में मोतियों की माला। ठीक कह रहा हूं न मैं?’ मैं कुछ बोल न पाया। वे कांपते स्वर में बोले,...

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चित्रांकन : संदीप जोशी
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बांग्लादेशी कहानी

‘बहुत अच्छी हैं। बहुत गुणी हैं।’ सज्जन का चेहरा दमक उठा। धीमे स्वर में बोले, ‘बंदर के गले में मोतियों की माला। ठीक कह रहा हूं न मैं?’ मैं कुछ बोल न पाया। वे कांपते स्वर में बोले, ‘गरीब आदमी हूं। पत्नी के लिए कुछ भी नहीं कर पाता हूं परंतु लीना इन सब बातों पर ध्यान नहीं देती है। बड़े परिवार की जो ठहरी। उसका चाल-चलन ही सबसे अलग है।’

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हुमायूं अहमद

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रहस्य जैसी बातों पर मुझे उतना विश्वास नहीं। फिर भी अक्सर ऐसी कुछ कहानियां या घटनाएं सुनने में आ ही जाती हैं। पिछले महीने झीकातला के एक सज्जन ने आकर मुझसे कहा कि उसके घर में एक छिपकली है। वह प्रतिदिन रात के एक बजकर पच्चीस मिनट पर तीन बार टिकटिक की आवाज करती है। मैंने बड़ी मुश्किल से अपनी हंसी रोकी। समय की पाबंद ऐसी कोई छिपकली भी हो सकती है इस युग में? सज्जन ने मेरी निर्विकार भंगिमा देखी तो बोलने लगे, ‘क्यों भाई, विश्वास नहीं हुआ न?’

‘जी नहीं।’

‘एक रात मेरे निवास पर आकर रहें। अपनी आंखों से देखें और सुनें। घड़ी लेकर बैठिएगा। देखना, ठीक एक बजकर पच्चीस मिनट पर वह बोलेगी।’

‘अरे छोड़िए जनाब। आप भी कैसी बातें कर रहे हैं?’

सज्जन बुरा-सा मुंह बनाकर चले गए। चार दिनों बाद पुनः उनसे मुलाकात हुई। दुनिया है ही ऐसी। जिससे मिलना हो, वे मिलते नहीं और अनचाहे लोगों से मुलाकात हो जाती है। मुझे देखते ही वे गंभीर मुद्रा में बोल उठे, ‘क्या आप ‘दैनिक बांग्ला’ के सालेह साहब को जानते हैं?’

‘हां, जानता हूं।’

‘उन्हें अपने घर ले गया था। उन्होंने स्वयं अपने कानों से सुना। कहा, इस पर एक धाकड़ खबर बनाएंगे और अपने अखबार में प्रमुखता से छापेंगे।’

‘अच्छी बात है। खबर तो बनने लायक है ही।’

‘आप भी एक दिन आने की कृपा करें ना। रहकर देखें एक रात।’

‘मुझे उस छिपकली की आवाज सुनाने से क्या फायदा?’

‘भाई, आप लोग यूनिवर्सिटी के टीचर हैं। आपकी बातों में वजन होता है।’

‘ऐसा है क्या?’

‘आप लोग इस बारे में कहेंगे तो कोई इन्कार नहीं कर पाएगा।’

‘जान पड़ता है कि इस मामले को लेकर आप कुछ अधिक ही उद्विग्न हैं।’

‘नहीं, ऐसी बात नहीं है। कई लोगों ने सुना है। बांग्लादेश के टीवी कैमरामैन नजमुल हुदा को आप पहचानते हैं?’

‘जी नहीं।’

‘वे भी आए थे। बेहद प्रेमी व्यक्ति हैं। आप भी आएं न।’

‘ठीक है, किसी दिन आ जाऊंगा।’

उस सज्जन का चेहरा दमक उठा। बड़े प्रसन्न हुए। मुझे उसी समय चाय का आमंत्रण दे डाला। मैंने मना कर दिया।

‘अरे भाई, आइए न। आप प्रोफेसर हैं, आपका साथ मिलना हमारे लिए सौभाग्य की बात है।’ कहकर वे ठहाका मारकर हंसने लगे। मजबूरन मुझे उनके साथ चाय की दुकान तक जाना ही पड़ा।

‘चाय के साथ कुछ लेंगे, नमकीन वगैरह?’

मेरे ना कहने पर वे बोले, ‘अरे भाई, लीजिए न कुछ।’ फिर वे चायवाले की ओर मुखातिब हुए, ‘अरे...इधर दो चाय देना।’ फिर मुझसे पूछा, ‘हां तो कब आ रहे हैं हमारे घर?’

‘आपसे अकसर मुलाकात हो ही जाती है। बतला दूंगा किसी दिन।’

चाय पीते हुए उन्होंने एक दूसरा रहस्य उजागर किया। उन्नीस सौ साठ में वे बरिशाल के फिरोजपुर में रहते थे। उनके निवास-स्थान के पास एक बड़ा-सा कटहल का पेड़ था। कहने लगे, ‘अमावस्या की रात को उस पेड़ से किसी के रोने की आवाज आती थी। मैंने गंभीरता से पूछा, ‘क्या उस रुदन का भी कोई निश्चित समय था? निर्दिष्ट समय में रोता हो आपकी छिपकली की तरह?’

सज्जन आहत स्वर में बोले, ‘मेरी बातों पर आपको विश्वास नहीं हुआ न?’

‘विश्वास क्यों न करूं?’

‘मैंने उस रोने की आवाज को टेप करके रखा है। एक दिन सुनाऊंगा आपको।’

‘ठीक है।’

‘बरिशाल के डीसी साहब ने भी सुन रखा है। पहचानते हैं उन्हें? असगर साहब। सीपीएस। संभ्रांत परिवार से ताल्लुक रखते हैं।’

‘नहीं, मैं उन्हें नहीं जानता।’

‘उनके एक भाई बांग्ला देश बैंक में उच्चाधिकारी हैं।’

‘होंगे।’

‘जी, मैं एक दिन उनके आवास पर गया था। बड़ी आवभगत की। बगीचों से घिरा तीन मंजिला मकान है। वे प्रथम तल में रहते हैं। ऊपरी दो तले किराये पर दे रखे हैं।’

सज्जन लगभग एक घंटा समय लेकर मुझसे विदा हुए। मुझे उन पर तरस आया। इंडेंटिंग फर्म में सामान्य-सी नौकरी करते हैं। देखकर ही लगता है कि अभावग्रस्त हैं। आंखों की दृष्टि अविश्वसनीय। उम्र अभी तीस की भी नहीं हुई होगी परंतु बूढ़े दिखते हैं। विचित्र चरित्र।

इसके बाद महीने भर उनसे मुलाकात नहीं हुई। इसका मुख्य कारण यह था कि जिन सब जगहों पर उनसे मेरी मुलाकात की संभावना थी, उनकी मैंने अवहेलना शुरू कर दी थी। न्यू मार्केट की बैठक तक में भी नहीं जाता। क्या जरूरत है, इस तरह मुसीबत मोल लेने की? वह चिपकू किस्म का व्यक्ति था। ऐसे चिपक जाता कि छुड़ाए नहीं छूटता। पर फिर भी आखिरकार मुलाकात हो ही गई। एक दिन सुना कि यूनिवर्सिटी के क्लब में आकर मुझे ढूंढ गए हैं। क्लब के चपरासी ने बतलाया कि पिछले कुछ दिनों से नियमित रूप से वहां आ रहे हैं। क्या मुसीबत है?

बच नहीं पाया। एक दिन घर तक आ पहुंचे। ‘क्यों भाई, आप तो आए नहीं?’

‘व्यस्त रहा।’

‘आज आपको साथ ले जाने के लिए आया हूं।’

‘क्या कह रहे हैं?’

‘कवि शमसुल आलम साहब भी आ रहे हैं।’

‘ऐसा क्या?’

‘जी। पहचानते हैं न शमसुल साहब को? दो कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं उनके - ‘पक्षियों के डैने’ और ‘अंधकार-प्रकाश।’

‘अच्छा।’

‘जी, मुझे दोनों पुस्तकें भी दी हैं। मित्रतापूर्ण रवैया है उनका। वे आपके ही मैमन सिंह के नेत्रकोना के रहने वाले हैं।’

‘ओ..।’

‘उसके छोटे भाई भी कहानियां-वहानियां लिखते हैं। अरिफुल आलम।’

मजबूरन मुझे उनके घर जाना ही पड़ा। झीकातला की एक अंधेरी संकीर्ण गली में दो कमरों का मकान। मेरा मिजाज ठीक नहीं था। उस समय की पाबंद छिपकली की आवाज सुनने के लिए मुझे रात डेढ़ बजे तक बैठना पड़ेगा। न जाने कितनी प्रकार की यंत्रणाएं हैं इस धरा पर।

सज्जन मुझे बैठक में बिठाकर अति व्यस्तता में घर के अंदर चले गए। बैठक के कमरे को बड़ी सुंदरता से सजाया गया था। महिला के हाथों का स्पष्ट स्पर्श झलक रहा था। वे सज्जन विवाहित हैं, मुझे यह पता नहीं था। इसे लेकर कभी उनसे बात नहीं हुई। कुछ ही देर में उनकी पत्नी कमरे में आईं। अत्यंत कम उम्र की युवती थी और बेहद सुंदर। मैं हड़बड़ा-सा गया।

‘ये हैं मेरी पत्नी लीना और लीना, ये हैं हुमायुं अहमद। इनके बारे में मैंने तुम्हें बताया था।’

लीना मुस्कुराकर बोली, ‘जी, आपके बारे में अक्सर बातें करते रहते हैं।’

‘लीना जरा चाय का प्रबंध करो।’ उन्होंने अपनी पत्नी से कहा।

वह अंदर चली गई। सज्जन धीमे स्वर में बोले, ‘लीना को कहानी-उपन्यास लिखने का बड़ा शौक है। कुछ दिन पहले सांप पर एक कहानी लिखी थी। जबरदस्त कहानी। आपको सुनाने के लिए कहूंगा। मेरे कहने पर नहीं पढ़ेगी। कृपा करके आप ही उसे बोलना।’

मेरे मुंह से निकला, ‘बड़ी गुणी महिला हैं।’

सज्जन का चेहरा उज्ज्वल हो उठा- ‘सो भाई, अस्वीकार नहीं करूंगा। गायन में भी निपुण हैं नजरूल-गीति बहुत अच्छा गाती हैं। घर पर टीचर रखकर सीखा है।’

‘अच्छा।’

‘जी, सुनाएंगी आपको। जरा दबाव डालना पड़ेगा और क्या? आप अनुरोध करेंगे तो जरूर सुनाएंगी। करेंगे न?’

‘ठीक है, करूंगा।’

चाय आ गई। चाय के साथ बड़ानुमा एक खाद्य जो खाने में अत्यंत स्वादिष्ट था। मैंने पूछ ही लिया, ‘किस चीज का बना है यह बड़ा? दाल का?’

सज्जन जोर से हंसे। ‘नहीं भाई, ये बेर के बड़े हैं। हा... हा... हा...। कितने ही प्रकार के अद्भुत भोजन बनाना जानती है यह। मुझे तो कई बार बड़ा आश्चर्य होता है। खाने में कैसा है जरा बताइए। अद्भुत स्वादिष्ट है न?’

‘बढ़िया, बहुत बढ़िया।’

‘एक दिन और आएं। चायनीज़ सूप पिलाऊंगा। चिकेन कॉर्न सूप। यदि चायनीज़ रेस्टुरेंट से भी बढ़िया न हो तो मेरा कान काट लीजिएगा। हा... हा... हा...।’

मैंने उनकी पत्नी की लिखी एक कहानी सुनी और दो कविताएं भी। सज्जन मुग्ध होकर देखते रहे। बीच में बार-बार बोलते, ‘ओह, शमसुल साहब नहीं आए। बहुत कुछ खोया है उन्होंने, क्यों भाई?’

रात ग्यारह बजे के करीब मैंने कहा, ‘तो अब मैं चलता हूं।’

‘छिपकली की आवाज नहीं सुनेंगे?’

‘किसी और दिन सुनूंगा।’

वे मान गए, ‘ठीक है, भूलें नहीं। आना ही पड़ेगा आपको।’

सज्जन मुझे बाहर तक छोड़ने आए। रास्ते तक आने के बाद पूछा, ‘कैसी लगी मेरी पत्नी?’

‘बहुत अच्छी हैं। बहुत गुणी हैं।’

सज्जन का चेहरा दमक उठा। धीमे स्वर में बोले, ‘बंदर के गले में मोतियों की माला। ठीक कह रहा हूं न मैं?’

मैं कुछ बोल न पाया। वे कांपते स्वर में बोले, ‘गरीब आदमी हूं। पत्नी के लिए कुछ भी नहीं कर पाता हूं परंतु लीना इन सब बातों पर ध्यान नहीं देती है। बड़े परिवार की जो ठहरी। उसका चाल-चलन ही सबसे अलग है।’

मैं रिक्शे पर सवार होते हुए बोला, ‘आप बहुत भाग्यशाली हैं।’

वे मेरा हाथ कसकर पकड़ते हुए बोले, मानो रो पड़ेंगे - ‘भाई, एक दिन फिर से आपको आना ही पड़ेगा। छिपकली की टिकटिक सुननी ही पड़ेगी। आएंगे न प्लीज?’

मैं कुछ नहीं बोल पाया। बस निर्निमेष उनका चेहरा देखता रहा।

छिपकली की आवाज जैसी कई रहस्यमय घटनाएं हैं इस धरा पर।

मूल बांग्ला से अनुवाद : रतन चंद ‘रत्नेश’

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