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जिन फिल्मों ने मनोरंजन के साथ बदला जीने का अंदाज

स्वर्ण जयंती वर्ष : शोले, दीवार और जय संतोषी मां

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अपने जमाने की तीन सुपरहिट फिल्मों दीवार, शोले और जय संतोषी मां ने भारतीय सिनेमा को नई राह दिखाई। इन फिल्मों ने समाज में मनोरंजन के मायने बदले तो रचनात्मकता और सामाजिक संदेश देने में बेजोड़ हैं। शोले ने दोस्ती, प्रेम, रूढ़िवाद, हिंसा, सामंती विचारधारा में परिवर्तन तथा मसखरी को एक नया आसमान दिखाया। दीवार में सामाजिक मुद्दों-गरीबी, अन्याय, भ्रष्टाचार को उजागर किया। वहीं जय संतोषी मां ने दर्शकों को भक्ति भावना से सराबोर किया। इन फिल्मों के डायलॉग, गीत व आरतियां आज भी लोकप्रिय हैं।

मनोज प्रकाश

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वर्ष 1975 एक नए तरह की रचनात्मकता और सामाजिकता के लिए भारतीय समाज में पहचाना जाता है। इस वर्ष देश की राजनीति और समाज में भारी उलटफेर हुए और सिनेमा ने समाज के सामने तीन ऐसे उदाहरण पेश किए जिन्होंने हमारे जीने का अंदाज ही बदल दिया। साल 2025 में हम जून 1975 में देश में लगे आपातकाल की पचासवीं वर्षगांठ मना रहे हैं, याद करने के लिए कि उस साल ने हमारी राजनैतिक-सामाजिक चेतना को कैसे बदलकर रख दिया? इसी के साथ हम इस साल दीवार, शोले और जय संतोषी मां जैसी अपने जमाने की तीन सुपरहिट फिल्मों का भी स्वर्ण जयंती वर्ष मना रहे हैं। दीवार को तो 24 जनवरी को रिलीज हुए पचास वर्ष पूरे हो चुके हैं और शोले तथा जय संतोषी मां स्वतंत्रता दिवस पर अपनी रिलीज के पचास वर्ष पूर्ण कर लेंगी। इन तीनों ही फिल्मों ने भारतीय समाज में मनोरंजन के मायने ही बदल दिए। समीक्षक इनका उल्लेख रुपहले पर्दे के रंग बदलने वाली फिल्मों के रूप में करते हैं।

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आज जितनी भी फिल्में बनती हैं, चाहे वे नायक प्रधान हों या नायिका प्रधान, सभी में मुख्य पात्र एंग्री रूप में नजर आता है। इसका श्रेय दीवार और शोले को ही जाता है। इसी तरह इस दौर की धार्मिक फिल्मों में कहीं न कहीं जय संतोषी मां की छवि प्रकट हो जाती है। दीवार, शोले और जय संतोषी मां ने भारतीय सिनेमा को नई राह दिखाई। इन्होंने मनोरंजन तो किया ही, दर्शकों के जीने का अंदाज भी बदल दिया। इन फिल्मों के माध्यम से सिनेमा का व्यापार उस दौर में चरम पर पहुंचा। शोले तथा दीवार ने समाज में एंग्री यंग मैन की छवि स्थापित की तो जय संतोषी मां ने भक्ति भावना की सुनामी ही ला दी। आज जब ये फिल्में जीवन के छठे दशक में पहुंच रही हैं, तो अनगिनत सिनेमा प्रेमियों को उनके बचपन के दिनों की याद दिलाती हैं। आज का युवा भी इन्हें देखकर उस दौर की रचनात्मकता का कायल हो जाता है।

मनोरंजन की नई दीवार

वर्ष 1975 की शुरुआत दीवार से हुई। यह तब नई तरह की मूवी थी जिसका कथानक सामाजिक मुद्दों को उठाते हुए कुछ इस तरह से रचा गया था कि इसने गरीबी, अन्याय, भ्रष्टाचार को विस्फोटक रूप से पेश कर दिया। एंग्री यंग मैन की छवि लिए अमिताभ बच्चन ने समाज में अपना दबदबा कायम कर दिया। दो भाइयों के बीच एक ऐसी दीवार इसमें नजर आयी, जिसने दर्शकों का जमकर मनोरंजन किया। गुस्सैल नायक की छवि के दर्शक कायल हो गए। ईमानदारी और बेईमानी के रंग की दीवार ने सफलता के रिकार्ड तोड़ दिए। आम लोगों समस्याएं देखकर दर्शक सिनेमाहाल से निकलते समय उत्साह से भरे होते थे।

अपनी लागत से पांच गुनी कमाई करने वाली दीवार के डायलॉग आज भी सुने जा सकते हैं। जब अमिताभ ने कहा- ‘मैं आज भी फैंके हुए पैसे नहीं उठाता,जाओ पहले उस आदमी के साइन लेकर आओ जिसने मेरे हाथ में ये लिख दिया कि मेरा बाप चोर है’, तो सिनेमाघरों के पर्दे पर दर्शकों ने अन्याय के खिलाफ लड़ने वाले नायक को अपने दिलों में बैठा लिया और जैसे ही शशि कपूर ने अमिताभ की दौलत के घमंड को यह कहकर तोड़ा –‘मेरे पास मां है’- तो पूरे सिनेमा हाल में ऐसा सन्नाटा था। बाद में कई फिल्में इसी की तर्ज पर बनीं, पर वह दीवार के परचम को गिरा न सकीं। मशाल,शक्ति तथा त्रिशूल को इसकी श्रेणी में जरूर रखा जा सकता है, पर जब वर्ष 2004 में एक दूसरी फिल्म ‘दीवार’ बनी तो उसने अमिताभ को कोई फायदा नहीं दिया। लोगों ने मेजर रणवीर कौल के किरदार में अमिताभ को सिरे से नकारा और यह मूवी फ्लॉप रह गई।

कमाई के साथ ही मनोरंजन के शोले

शोले को एक ऐसी फिल्म के तौरपर याद किया जाता है जिसने दोस्ती, प्रेम, रूढ़िवाद, हिंसा, सामंती विचारधारा में परिवर्तन तथा मसखरी को एक नया आसमान दिखाया। इस फिल्म ने रिलीज होने के बाद दर्शकों को आकर्षित करना आरंभ किया तो यह कमाई के रिकॉर्ड बना गई। इसने कम से कम सौ सिनेमाघरों में तो अपनी रिलीज की रजत जयंती तथा पचास से अधिक में स्वर्ण जयंती का रिकॉर्ड कायम किया। फिल्म निर्माण जगत में यह क्रांतिकारी बदलाव लाने वाली मूवी मानी जाती है और इसके संवाद,संबंध तथा प्रेम की पराकाष्ठा की मिसाल आज तक कायम है। फिल्म का वह दृश्य जिसमें अमिताभ-धर्मेन्द्र को असलाह-रसद आदि लाने के लिए कहते हैं, उसमें सिक्के का एक ही पहलू अभी तक दर्शकों को रोमांचित कर देता है। जहां कहीं दोस्ती निभाने की बात आती है वहां पर शोले का सिक्का दर्शक नहीं भूलते।

गब्बर के अलावा बसंती और वीरु के डायलॉग

बसंती इन कुत्तों के सामने मत नाचना, तेरा क्या होगा कालिया, ये भी बच गया, चल धन्नो तेरी बसंती की इज्जत का सवाल है, ने हर वर्ग का दिल जीत लिया। शोले प्रेम और बदले की मार्मिक दास्तां मानी जाती है। इसका गीत ‘ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे’ हर कहीं सुनाई देता है। शोले ने दर्शकों को अन्याय के प्रति लड़ने वाले नायक देकर जुझारू जीवन जीने को प्रेरित किया, साथ ही यह संदेश दिया कि परिस्थिति कैसी भी हो जीत तो हमेशा न्याय और हिम्मत की ही होती है। हां,मसखरी इस फिल्म का एक ऐसा पहलू है, जिसे असरानी और जगदीप ने नए रंग दिए। शोले की लोकप्रियता को लोहा,रामगढ़ के शोले,शान जैसी फिल्मों के माध्यम से भुनाने की कोशिश की गई पर शोले बेमिसाल है।

भक्ति का परचम जय संतोषी मां

शोले और दीवार के विपरीत ‘जय संतोषी मां’ ने भारतीय समाज में भक्ति का ज्वार ला दिया। कहानी में भाइयों की आपसी खींचतान को लिए इस फिल्म ने धर्म तथा आस्था का बेजोड़ संगम प्रस्तुत किया। आस्था, भक्ति में रची-बसी ‘जय संतोषी मां’ ने एक ऐसे युग की शुरुआत, जिसको पचास साल बाद भी भारतीय समाज मानक मानकर चलता है। जय संतोषी मां ने भक्ति के विश्वास की जीत दिखाकर ब्लॉक बस्टर का तमगा हासिल किया। ‘जय संतोषी मां’ की आरतियां घर-घर में बजती हैं। मैं तो आरती उतारूं रे, यहां-वहां, जहां-तहां मत पूछो कहां-कहां,करती हूं तुम्हारे व्रत मैं भक्ति संगीत में मील के पत्थर बन चुके हैं। दर्शकों का सिनेमाघरों में सीट के पास चप्पल उतारकर बैठना,शुक्रवार को खट्टी चीजों का निषेध उदाहरण हैं कि ‘जय संतोषी मां’ ने दर्शकों के मन-मस्तिष्क को किस कदर परिवर्तित कर दिया था। ‘जय संतोषी मां’ की सफलता के बाद महिमा संतोषी मां की,जय जय संतोषी मां, करवा चौथ, महाबली हनुमान जैसी फिल्में और धारावाहिक जरूर आए पर कोई इस की लोकप्रियता को छू भी नहीं सका। इस फिल्म ने अपनी लागत से कई गुना कमाई की।                                                                   -इ.रि.सें.

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