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जो लौट न सके उन भारतीयों की यादें

प्रथम विश्व युद्ध में फ़्लैंडर्स
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समीर चौधरी

पिछले साल दिसम्बर में उत्तरी बेल्जियम में था, उन पदचिन्हों का पीछे करते हुए जो भारतीय सैनिक पहले विश्व युद्ध के दौरान यहां लड़ते हुए शहीद हुए थे। सुंदर ग्रामीण क्षेत्र में ड्राइव करते हुए स्वप्निल गांवों व शांत क़स्बों से गुज़र रहा था। इन्हें देखते हुए यह विश्वास करना कठिन होता जा रहा था कि भारतीयों ने फ़्लैंडर्स के मैदानों में वह जंग लड़ी थी, जिससे उनका कुछ लेना-देना नहीं था। बेल्जियम का उत्तरी क्षेत्र जो नीदरलैंड की सीमा से लगा हुआ है उसे फ़्लैंडर्स कहते हैं।

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मेरी फ़्लैंडर्स कहानी ब्रुसेल्स में शुरू होती है जो कि यूरोपियन यूनियन की व्यस्त अनाधिकारिक राजधानी है। ट्राम लाइंस, ऑफिस ऑवर ट्रैफिक और संसार का कॉमिक्स कैपिटल, मैंने ब्रुसेल्स को अपनी उम्मीदों से न ज्यादा और न ही कम पाया। ऐतिहासिक इमारतों के अतिरिक्त आधुनिक अवंत-ग्रेड आर्किटेक्चर, यह एक व्यस्त शहर है। किनारे पर चर्चित हेर्गे म्यूजियम के अतिरिक्त ब्रुसेल्स में लगभग 80 अन्य म्यूजियम हैं।

ब्रुसेल्स से यप्रेस या जैसा कि उसे स्थानीय फ्लेमिश में कहते हैं ‘इएपर’ गया। इस छोटे से कस्बे का संबंध मध्य युग से है, जब यहां एक नहर इसके बीच में से बहती थी। यहीं पर अक्तूबर, 1914 में भारतीय सैनिकों को टुकड़ियों में पहले विश्व युद्ध की सबसे भयंकर जंग में उतारा गया था। एक विशाल गोथिक शैली की इमारत को मैं कैथेड्रल समझ बैठा था, लेकिन स्थानीय लोगों ने बताया कि यह कभी कपड़ा फैक्टरी थी। जब अर्थव्यवस्था का आधार कपड़ा था, तो यह इमारत यप्रेस का दिल थी। आज यह इन फ़्लैंडर्स फ़ील्ड्स म्यूजियम है, जो पहले विश्व युद्ध की क्रूरता को दर्शाता है। मुझे इसमें कुछ भारतीय सेना की कलाकृतियां डिसप्ले पर नज़र आयीं, जिनमें 1915 की एक गोरखा सैनिक की खुखरी भी थी।

पहला विश्व युद्ध चार वर्षों तक चला था। यप्रेस इस अवधि में शुरू से अंत तक जंग का केंद्र बना रहा और पूरी तरह से बर्बाद हो गया। यप्रेस में हर जगह खाई खोदकर मोर्चे बनाये गये थे, मीलों तक दलदली नहरें थीं जहां सैनिक रहते, लड़ते व मरते। जो हज़ारों मौतें हुईं उनकी कब्रें इस क्षेत्र में भरी पड़ी हैं। आपने यूरोप में लोगों को अपने कोट के लेपल पर लाल खसखस पहने हुए देखा होगा। यह उस खसखस की याद है जो फ़्लैंडर्स के खेतों में उगती थी और जिसे जॉन मैकरे ने अपनी कविता ‘इन फ़्लैंडर्स फ़ील्ड्स’ से अमर कर दिया। यह विश्व युद्ध की सबसे चर्चित कविता है और इसका संदर्भ सबसे ज्यादा दिया जाता है।

हर देश और क्षेत्र जिसने अपने सैनिक फ़्लैंडर्स में लड़ने के लिए भेजे थे, उसका उल्लेख कब्रों के पत्थरों पर मिलता है और याद दिलाता है उस क्रूरता की जो इस भूमि पर घटित हुई थी। इन कब्रिस्तानों के कोनों में मैंने उन भारतीयों की यादें देखीं जो कभी लौटकर वापस अपने घर न जा सके। अधिकतर कब्रों पर कोई नाम नहीं है, केवल इतना लिखा है ‘महान युद्ध का एक भारतीय सैनिक’। एक युवा अंग्रेज़ सैनिक की कब्र के पत्थर पर मैंने वह लिखा देखा जो उसके पिता ने उसकी याद में लिखवाया था- ‘इस बेवकूफी के लिए कुर्बान हुआ कि युद्ध से युद्ध का अंत हो सकता है।’

यप्रेस के एक तरफ़ मेनिन गेट है, जिसमें से निकलकर सैनिक टाउन की रक्षा के लिए मार्च करते थे। मेनिन गेट नई दिल्ली के इंडिया गेट की तरह है- यह युद्ध में जान देने वालों का स्मारक है, जिसकी दीवारों पर उन सैनिकों के नाम लिखे हैं जो पहले विश्व युद्ध के दौरान शहीद हुए थे। इनमें मैंने भारतीयों के नाम देखे, जो कभी घर लौटकर न जा सके। बताया जाता है कि पहले विश्व युद्ध के दौरान 1,381,050 भारतीय सैनिक यूरोप में लड़े थे, जबकि वह उनकी जंग थी ही नहीं। आखि़र उन्हें भी तो याद करने की ज़रूरत है। हर शाम 8 बजे, एक परम्परा जो 1929 में आरंभ हुई थी, ट्रैफिक रुक जाता है और एक छोटा-सा बैंड ‘लास्ट पोस्ट’ प्ले करता है। यह परम्परा तभी से जारी है और कभी नहीं रुकी है सिवाय दूसरे विश्व युद्ध के चार वर्षों के दौरान जब यप्रेस जर्मनी के कब्ज़े में था। जिस शाम पॉलिश बलों ने यप्रेस को आज़ाद कराया था, तभी से मेनिन गेट पर यह परम्परा फिर आरंभ हो गई थी, जबकि दूसरे हिस्सों में भारी युद्ध जारी था।

इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर

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