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आज भी बेबस है इंसान

आसमानी बिजली का कहर
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हर साल आकाशीय बिजली गिरने और उनसे मरने वालों का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। ये घटनाएं ग्रामीण क्षेत्र व खुले इलाकों में ज्यादा होती हैं। मौसम विभाग की भविष्यवाणी में बिजली गिरने का अनुमान शामिल है लेकिन बचाव के प्रति सजगता की कमी है। आसमानी बिजली ज्यादा संहारक होने के पीछे जलवायु बदलाव व पेड़ कटाई जैसे कारण भी हैं। जरूरत है इसके प्रहार से ज्यादा प्रभावित होने वाली आबादी को बचाया जाए। ज्यादा डॉप्लर रडारों की स्थापना व बिल्डिंग पर एंटीना लगाना भी मददगार उपाय हैं।

डॉ. संजय वर्मा

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सफर पर निकले हों तो अनजान सहयात्रियों से कोई बातचीत शुरू करने का सबसे मुफीद तरीका मौसम को लेकर कोई जिक्र छेड़ना होता है। क्या शानदार मौसम है या कितनी सड़ी गर्मी है या फिर इस बार अच्छी बारिश की उम्मीद है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने इधर कुछ ऐसी ही आश्वस्ति यह कहकर दी है कि अबके बरस देश में मानसून सीजन के दौरान सामान्य से ज्यादा यानी 105 फीसदी बारिश होगी। किसानों से लेकर अर्थशास्त्रियों के लिए यह एक खुशी की खबर है। जिसका एक पहलू यह भी है कि इस बार मानसून सीजन में अल नीनो के हालात नहीं बनेंगे। इससे अच्छी बारिश की उम्मीदों पर कोई आंच नहीं आएगी। पर मौसम का दूसरा पहलू भी है, जो खबरों में आने के बावजूद चर्चा से बाहर ही रहता है। जैसे, इधर हाल में देश के पूर्वी राज्यों- खासतौर से बिहार में आकाशीय बिजली गिरने और ओलावृष्टि की चपेट में आने से 60 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। यहां अकेले नालंदा जिले में ही बिजली गिरने से 23 लोग काल के गाल में समा गए।

वैसे तो भारतीय मौसम विज्ञान विभाग बारिश की भविष्यवाणी का ऐलान करने के साथ तड़ित यानी बिजली गिरने के अनुमान भी जताता है, लेकिन ऐसी भविष्यवाणियां दीर्घकालिक अनुमान की तरह पेश नहीं की जातीं। इन्हें 24 घंटे के अनुमान के आधार पर व्यक्त किया जाता है। लेकिन हैरानी है कि बिजली गिरने की घटनाओं में बढ़ोतरी के बावजूद न तो आम जनता का इन अंदाजों पर ज्यादा ध्यान जाता है और न ही खुद मौसम विभाग इन्हें लेकर ऐसे अलर्ट जारी करता है ताकि उन पर वास्तव में लोग अमल करें। यह तब है, जबकि साल-दर-साल आकाशीय बिजली गिरने की घटनाओं और उनकी चपेट में आकर जान गंवाने वालों का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2010 से 2020 के बीच का एक दशक इस मामले में जानलेवा रहा है। अतीत के आंकड़े बताते हैं कि 1967 से 2002 के बीच भारत में प्रति वर्ष बिजली गिरने से हुई मौतों की दर 38 थी, जो 2003 से 2020 के बीच 61 हो गई। इन आंकड़ों की रोशनी में देखें, तो मौजूदा साल (2025) पुराने रिकॉर्ड तोड़ने जा रहा है क्योंकि मानसून आने से पहले ही बिहार में 61 लोग आकाशीय तड़ित के प्रहार से जान गंवा चुके हैं। शोधकर्ता (ओडिशा के फकीर मोहन विश्वविद्यालय से संबद्ध) बताते हैं कि वर्ष 1967 से 2020 के बीच आकाशीय बिजली गिरने से देश में 1,01,309 मौतें हुईं। वर्ष 2010 से 2020 तक का दशक आकाशीय बिजली गिरने की घटनाओं के मामले में घातक साबित हुआ है क्योंकि इस अवधि में आकाशीय बिजली गिरने की वजह से सर्वाधिक लोगों की मौतें हुईं।

सवाल है कि आखिर आसमानी बिजली का कोड़ा वक्त के साथ और ज्यादा संहारक क्यों होता जा रहा है। अनेक रिपोर्टें बताती है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से ऐसी स्थितियां पनप रही हैं। इस कारण आने वाले वर्षों में स्थिति और भी अधिक बिगड़ सकती है। एक अहम वजह यह भी है कि गांव-कस्बों में लोगों को खेतों या खुले में काम करना होगा और बारिश-बिजली से बचाव के साधन वहां प्रायः कम ही होते हैं। इसके अलावा यह शोध भी सामने आ चुका है कि बिजली गिरने के दौरान मोबाइल फोन का प्रयोग जानलेवा साबित हो सकता है। चूंकि हमारे देश में मोबाइल फोनधारकों की संख्या में रिकॉर्ड इजाफा हो चुका है, ऐसे में आकाशीय बिजली से बचाव अब और ज्यादा जरूरी हो गया है।

असहाय-गरीबों पर ज्यादा कहर

हालांकि कहा जा सकता है कि एक प्राकृतिक आपदा के तौर पर आकाश से गिरती बिजली के आगे इंसान आज भी बेबस है, तो इस पर पहला सवाल बचाव के इंतजामों और इसकी पुख्ता भविष्यवाणी न होने और उस पर अमल की अगंभीरता को लेकर ही उठता रहा है। यहां यह तथ्य भी रेखांकित किया जा सकता है कि बारिशों के साथ आने वाली यह आपदा इंसानों के साथ-साथ जानवरों को भी अपनी चपेट में लेती है और हर साल सैकड़ों मवेशियों को लील जाती है, जिसके कारण बहुमूल्य पशुधन नष्ट हो जाता है। हालांकि भवनों के निर्माण के वक्त तड़ित अवशोषी इंतजाम करने की सलाह दी जाती रही है, पर बस स्टैंड, झोपड़ियों में, खेतों में काम करते वक्त या फिर किसी पेड़ के नीचे खड़े होने पर क्या कोई इंतजाम हमें आसमान से लपकती मौत से बचा सकता है? यह भी एक तथ्य है कि दुनिया भर में अनेक ऊंचे टॉवर हर साल दर्जनों बार आकाश की बिजली की चपेट में आते हैं, पर आकाश से गिरती बिजली सिर्फ उन्हें लीलती है, जो असहाय हैं, गरीब हैं, शायद छाते के बिना हैं और दो जून रोटी के जुगाड़ में घनघोर बारिश-बिजली में भी अपने काम-धंधे पर निकलते हैं। दुनिया में तकरीबन हर रोज जो हजारों तूफानी बारिशें होती हैं और उनसे करीब सौ बिजलियां हर सेकंड धरती पर गिरती हैं, पर विकसित देशों में उनसे कभी-कभार ही मौत होती है। हालांकि वहां भी बिजली लोगों को अपाहिज और मानसिक रोगी बना देती है, पर भारत जैसे मुल्क में गिरती बिजलियां अक्सर बुरी खबर बन जाती हैं।

पेड़ कटाई से बढ़ा प्रकोप

आकाशीय बिजली से मौतों की संख्या में बढ़ोतरी का एक कारण यह बताया जा रहा है कि जंगलों और गांव-कस्बों व शहरों में विकास कार्यों के चलते पेड़ों की बड़ी संख्या में कटाई हो रही है जिससे उसका प्रकोप बढ़ गया है। वर्ष 2019 में कानपुर स्थित सीएसए यूनिवर्सिटी के मौसम विज्ञानी अनिरुद्ध दूबे ने इस बारे अपने शोध के आधार पर दावा किया था कि जब पेड़ों की संख्या अधिक थी, तो आकाशीय बिजली ज्यादातर मामलों में नर्म (पोली) जमीन और पेड़ों पर गिरती थी। लेकिन अब ऐसी जमीनें कम हो गई हैं और पेड़ भी नहीं बचे हैं। इसलिए प्राकृतिक संहार का प्रकोप ज्यादा बढ़ गया है। समस्या यह कि मानसून आने से पहले हमारे देश में कुछ विशेष तैयारियों पर ध्यान नहीं दिया जाता, जिसकी वजह से आंधी-तूफ़ान और बिजली गिरने की घटनाओं में बड़े पैमाने पर जानमाल का नुकसान होता है। जैसे, पहले मानसून सीजन शुरू होने से पहले गांवों में घरों की मरम्मत की जाती थी, बेतरतीब पेड़ों की कटाई-छंटाई कर दी जाती थी और खंभों पर बिजली के झूलते तार दुरुस्त कर दिये जाते थे। अब इन मामलों में लापरवाही बरती जाती है, नतीजन आकाशीय बिजली का ज्यादा प्रकोप होने लगा है। साथ ही, लोगों में आसमानी बिजली को लेकर जागरूकता की भी कमी है। आंधी-तूफान, बिजली गिरने वाले मौसम में खुद को कैसे बचाना है- इसकी जानकारी लोगों को नहीं होती है। खुले इलाकों में, जहां बिजली गिरने की ज्यादा आशंका होती है, वहां ऊंची इमारतों पर तड़ितचालक (बिजली से बचाने वाले एंटीना) तक नहीं लगाए जाते।

क्या कहता है विज्ञान

वैज्ञानिकों के अनुसार, आकाशीय बिजली की घटना बादलों में होने वाले इलेक्ट्रिक चार्ज का परिणाम है और यह घटना तब होती है, जब पानी से भरे किसी बादल की निचली सतह में भारी मात्रा में ऋणात्मक आवेश जमा हो, पर उसकी ऊपरी परत में धनात्मक आवेश होता है। जब धरती की सतह के नजदीक गर्म और नम हवा तेजी से ऊपर की ओर उठती है और इस प्रक्रिया में ठंडी होती है, तो पानी से भरे तूफानी बादलों का जन्म होता है। मौसम की यह इतनी सामान्य गतिविधि है कि हर रोज हमारे ग्लोब पर विज्ञान की भाषा में क्यूमलोनिंबस कहलाने वाले हजारों ऐसे तूफानी बादल (अंदाजन 45-50 हजार बादल) कहीं न कहीं बनते रहते हैं और उनसे ही आकाशीय बिजली की लपक धरती की ओर झपटती है। आकाशीय बिजली या तड़ित का यह रहस्य तो 280 साल पहले 1746 में बेंजमिन फ्रैंकलिन के समय में ही जान लिया गया था कि यह घटना बादलों में होने वाले इलेक्ट्रिक चार्ज के कारण होती है। ठीक वैसे ही, जैसे किसी कालीन को झाडऩे पर उसमें से इलेक्ट्रिक चार्ज उत्पन्न होता है या चलते हुए टीवी की स्क्रीन के सामने हाथ रगड़ने के कारण पैदा होता है। यहां गौरतलब है कि दो वस्तुओं की रगड़ से या तारों के आपसी घर्षण से जो स्पार्क पैदा होता है, अक्सर उसकी लंबाई एक सेंटीमीटर या उससे कम होती है, जबकि आकाशीय तड़ित की लंबाई पांच किलोमीटर या उससे भी ज्यादा हो सकती है। इसके अलावा आकाशीय बिजली में दसियों हजार गुना एम्पीयर का करंट होता है, जबकि आमतौर पर घरों में दी जाने वाली बिजली में 20 एम्पीयर का करंट होता है। आकाशीय बिजली बड़ी परिघटना है, इसलिए भौतिकी में इस पर अनेक अनुसंधान होते रहे हैं।

गांव-देहात में ज्यादा घटनाएं

यह भी तथ्य है कि दुनिया भर में अनेक ऊंचे टॉवर हर साल दर्जनों बार आकाश की बिजली की चपेट में आते हैं, पर टॉवरों के मुकाबले बिजली समतल जमीनों पर जैसे कि खेतों में ज्यादा गिरती है। पर आकाश की बिजली के लिए ऊंची जगहों या समतल जमीन या मनुष्य-जानवर में कोई भेद नहीं है। उसे तो बस विद्युत सुचालक वस्तु चाहिए, जिसकी ओर वह बढ़ती है। हालांकि अनेक भवनों को तड़ितचालक लगाकर आकाशीय बिजली से सुरक्षित बना लिया जाता है, पर न तो लोग हमेशा अपने साथ तड़ितचालक लेकर चल सकते हैं और न ही वृक्षों, झोपड़ियों, बस स्टैंडों या सामान्य खंभों पर कोई तड़ितचालक फिट किया जा सकता है। ध्यान रखने वाली बात है कि कारों-बसों में बैठे लोगों से ज्यादा आकाशीय बिजली की मार उन पर पड़ती है, जो खुले स्थानों में होते हैं। कार आदि की धातु की छत और वाहन का ढांचा तड़ित के आवेश को छितरा देता है और वह बिजली धरती में समा जाती है। इसके मुकाबले खुले स्थानों में बिजली सीधे मनुष्यों या जानवरों पर गिरती है, इसलिए तब उनका बचाव नहीं हो सकता। यही वजह है कि शहरों से ज्यादा लोग गांवों में आकाशीय बिजली के शिकार होते हैं। बढ़ते हादसों को देखते हुए बड़ी जरूरत है कि आकाशीय बिजली के प्रहार से गरीबों को बचाया जाए। प्रकृति का यह चमकदार दिखने वाला कोड़ा हम पर बार-बार पड़े, फिर भी उससे बचने का कोई ठोस जतन न हो, तो इस बेबसी के बारे में क्या कहा जाए? कोशिश करें, तो इससे बचा जा सकता है, मौसम विभाग की ओर से इसकी 24 घंटे के अंतराल पर होने वाली भविष्यवाणी इस दिशा में एक बड़ी पहल है।

डॉप्लर रडारों की कमी

हमारे देश में मॉनसून के दौरान दुनिया के दूसरे हिस्सों के मुकाबले ज्यादा बारिश होती है, तूफान आते हैं और बिजली गिरती है। लेकिन जिन इलाकों में इन प्राकृतिक घटनाओं की भरमार है, वहां हवा, तूफान और इसी तरह के मौसमी बदलावों का पूर्वानुमान लगाने वाले डॉप्लर रडारों की कमी है। भारत में डॉप्लर रडारों की संख्या फिलहाल 37 है, हालांकि दावा किया जा रहा है कि मौजूदा साल (2025) बीतते-बीतते यह संख्या 126 हो जाएगी। अगले कुछ वर्षों में 56 और डॉप्लर रडार स्थापित किए जाएंगे। गौरतलब है कि अब से 12 साल पहले देश में सिर्फ 15 डॉप्लर रडार काम कर रहे थे। ऐसी जरूरी उपकरणों की कमी के कितने खतरे हो सकते हैं, इस संबंध में एक रिस्क मैपिंग (खतरे का आकलन) आंध्रप्रदेश, केरल, झारखंड और ओडिशा में की जा चुकी है। इसके अलावा झारखंड में नियम बनाकर इमारत बनाने के लिए तड़ितचालक लगाना अनिवार्य किया गया। आंध्रप्रदेश में भी कम तीव्रता की आसमानी बिजली से होने वाले नुकसान से बचने के लिए लाइटनिंग ट्रैकिंग सिस्टम लगाए गए हैं। केरल में राज्य आपदा प्रबंधन संस्थान की इमारत में एक विशेष पिंजरानुमा यंत्र लगाया गया है जो आसमानी बिजली से इमारत की रक्षा करता है। यह प्रणाली हवाई अड्डों पर विमानों की आसमानी बिजली से सुरक्षा के लिए इस्तेमाल की जाती है। शेष राज्यों में भी यदि प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए ऐसी ही प्रणालियां विकसित की होतीं, तो तड़ित से मौतों की तादाद घटाई जा सकती थी।

पूर्व चेतावनी प्रणाली

हालांकि दावा है कि राष्ट्रीय स्तर पर, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो एक ऐसी प्रणाली विकसित कर रहा है जो बिजली गिरने और तूफान के बारे पहले से बता देगा। वर्ष 2020 में ऐसा पहला पायलट प्रोजेक्ट पांच शहरों नागपुर, रांची, कोलकाता, भुवनेश्वर और रायपुर में पूरा कर लिया गया व इसका विस्तार 18 अन्य शहरों में किया जा रहा है। लेकिन इस मामले में ज्यादा तेजी की जरूरत है। अभी तो विडंबना यही कि देश में आधिकारिक तौर पर घोषित 12 प्राकृतिक आपदाओं की सूची में आसमानी बिजली गिरने को स्थान नहीं दिया गया है, जबकि सर्वाधिक मौतें इसी वजह से हो रही हैं। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2018 में पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने एक शख्स की आकाशीय बिजली गिरने से हुई मौत पर अपने फैसले में लिखा कि ऐसी मृत्यु को प्राकृतिक आपदा से मौत के रूप में देखा जाए, न कि एक्ट ऑफ गॉड कहा जाए। यह भी कि आकाशीय बिजली गिरना भूकंप और सुनामी जैसा ही है, इसलिए इसमें मुआवजे और उपचार की व्यवस्था प्राकृतिक आपदा की तरह की जाए।

संभव है आकाशीय बिजली का उपयोग?

बिजली तो बिजली है। वह चाहे बांध बनाकर डायनेमो चलाकर बने या आसमान से टपके। इसलिए दशकों से विज्ञान जगत इस संभावना की टोह लेता रहा है कि क्या कोई ऐसा तरीका बन सकता है कि जिससे आकाशीय तड़ित को बटोर लिया जाए और उसे बिजलीघरों की मार्फत घरों-दफ्तरों और फैक्ट्रियों में पहुंचा दिया जाए। इस बारे में एक मोटा अनुमान वर्ष 2009 में लगाया गया कि पूरी दुनिया में एक साल में 20 खरब किलोवॉट/घंटे बिजली का जो इस्तेमाल हुआ, वह आसमान से धरती पर गिरने वाली आकाशीय बिजली से 40 गुना ज्यादा थी। गणनाओं पर आधारित अनुमान कहता है कि अगर गिरने वाली आकाशीय बिजली की एक परिपूर्ण चमक को बिना किसी क्षति के पकड़कर संग्रह किया जाए, तो वह लगभग 1400 किलोवॉट/घंटे के बराबर होगी। आकलन है कि पूरे साल में धरती पर 1.4 अरब बार आकाशीय बिजली चमकती है। लेकिन इसमें से सिर्फ 25 फीसदी ही धरती तक पहुंचती है, क्योंकि 75 फीसदी बिजली बादलों के बीच ही वहां पैदा हुए घर्षण के बावजूद फंसी रह जाती है। इस प्रकार सिर्फ 35 करोड़ तड़ित ही धरती तक पहुंचते हैं, जिन्हें किसी विधि से जमा किया जा सकता है। यदि इस पूरी बिजली को बिना किसी नुकसान के पकड़ा जा सके, बिजली की लाइनों में स्थानांतरित कर उसका संग्रह कर सकें, तो भी यह बिजली 4 खरब 90 अरब किलोवॉट/घंटे के बराबर होगी। इस बारे में कुछ गणनाएं कहती हैं कि अगर धरती तक पहुंचने वाली समूची आकाशीय बिजली को संग्रह करने में सफलता मिल जाए, तो भी पूरी दुनिया को उसकी जरूरत के मुताबिक सिर्फ नौ दिन की बिजली मिल पाएगी। इस मामूली उत्पादन के लिए भी भारी निवेश करना होगा और ढेर सारा इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करना होगा। इसका अंदाजा भी लगाया गया है कि धरती पर गिरती बिजली को पकड़ने व संग्रह करने के लिए पूरी पृथ्वी पर प्रत्येक एक मील की दूरी पर एफिल टॉवर की ऊंचाई वाले लंबे टॉवर लगाने होंगे और उन्हें आपस में जोड़कर एक ग्रिड बनाना होगा। इससे धरती की सतह का 20 करोड़ वर्गमीटर का इलाका ऐसे टॉवरों से ढक जाएगा। चूंकि आकाशीय बिजली को उसकी चमक और धरती तक पहुंचने के 30 मिलीसेकेंड के अंतराल में पकड़ना जरूरी है (अन्यथा वह धरती के भीतर चली जाएगी), इसलिए बहुत ऊंची क्षमता वाले इलेक्ट्रिकल सर्किट, स्टोरेज सुपरकैपिसिटर और कंडक्शन रॉड लगाने होंगे। इन प्रबंधों का अनुमानित खर्च खरबों डॉलर में है। आकाशीय बिजली के क्षणिक सृजन-उत्पादन और संग्रह की लागत को देखते विशेषज्ञ सौर ऊर्जा को ज्यादा बेहतर विकल्प मानते हैं क्योंकि सूरज इसके लिए लगभग पूरे वर्ष उपलब्ध रहता है। हालांकि दुनिया में आकाशीय बिजली से मिलने वाली ऊर्जा की बजाय सौर ऊर्जा के संग्रह और इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है, लेकिन मौजूदा स्थिति में उसे भी सामान्य तरीकों से मिलने वाली बिजली की तुलना में बेहतर और सस्ता माना गया होता तो पूरी दुनिया की प्रत्येक इमारत सोलर पैनलों से ढकी हुई होती।                             - लेखक मीडिया यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

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