लालबागचा राजा : सांस्कृतिक धरोहर और भक्तिभाव की मिसाल
चूंकि वह समय भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का समय था और सार्वजनिक गणेशोत्सव भी एक किस्म से अंग्रेजों के विरुद्ध जंग ही थी। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने सभी समुदाय के लोगों को इस सांस्कृतिक गोलबंदी के जरिये अंग्रेजों के विरुद्ध एकत्र किया था।
मुंबई में गणेशोत्सव का पर्याय होता है, यहां के लालबाग का गणेश पंडाल। लालबागचा के राजा नाम से मशहूर मुंबई के इस गणेश पंडाल की चर्चा गणेशोत्सव के दौरान पूरी दुनिया में होती है।
सन् 1934 में मुंबई का यह इलाका कोली समुदाय के मछुआरों और छोटे व्यापारियों का इलाका था। आज भी बड़ी संख्या में ये लोग यहां पर हैं, तब समुदाय के कुछ लोगांे ने गणेशोत्सव के दौरान व्रत लेने का निर्णय लिया और इलाके में गणेश प्रतिमा स्थापित करने के लिए पंडाल बनाया। कहते हैं इन व्रत लेने वाले भक्तों ने अपने मन में मन्नत मानी थी कि यदि उन्हें इस इलाके में स्थायी बाजार मिल गया तो वे हर साल भगवान गणेश का यहां पंडाल लगाया करेंगे। यह उस समय की बात है जब पेरू चौक का बाजार बंद हो गया था। इस तरह भक्तों की मन्नत पूरी हुई, उन्हें लालबाग बाजार के लिए स्थान मिला। आभार स्वरूप 12 सितंबर, 1934 को यहां पहले सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल की स्थापना हुई और तब से लेकर आज तक मुंबई में लालबाग के राजा का पंडाल इसी जगह पर लगता है।
चूंकि वह समय भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का समय था और सार्वजनिक गणेशोत्सव भी एक किस्म से अंग्रेजों के विरुद्ध जंग ही थी। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने सभी समुदाय के लोगों को इस सांस्कृतिक गोलबंदी के जरिये अंग्रेजों के विरुद्ध एकत्र किया था। पहला आधुनिक गणेशोत्सव 1893 में पुणे में स्थापित हुआ था। हालांकि इसकी शुरुआत 1890 से ही हो गई थी। वास्तव में लालबाग के राजा का गणेश पंडाल पुणे के गणेश पंडाल की तर्ज पर ही शुरू हुआ था। लालबागचा राजा के नाम से मशहूर यह पंडाल तब से आज तक उस परंपरा को पूरी धज के साथ संभाले हुए है।
लालबागचा राजा की मुंबई और देश के लोगांे में इतनी श्रद्धा इसलिए है, क्योंकि माना जाता है जो भी सच्चे मन से लालबाग के राजा का दर्शन करके मन्नत मांगता है, उसकी मनोकामना पूर्ण होती है। इसीलिए भक्त लोग श्रद्धा से इसे नवसाचा गणपति कहते हैं यानी वांछित इच्छा पूरी करने वाले भगवान गणेश। लालबाग के भगवान गणेश की इतनी मान्यता है कि एक से एक वीआईपी भक्त गणपति के दर्शन करने के लिए चार-चार घंटे चुपचाप लाइन में लगे रहते हैं। इस गणेश मंडल की व्यवस्था का औपचारिक रुप से दायित्व कांबली परिवार पर है। वर्ष 1935 से ही रतनाकर कांबली से शुरू होकर उनके पुत्र, उनके पुत्रों के पुत्र इस पारिवारिक परंपरा को संभाले हुए हैं। यहां स्थापित होने वाली मूर्ति के निर्माण और रक्षा की जिम्मेदारी इसी परिवार की पीढ़ी दर पीढ़ी संभालती है। लालबागचा के राजा का पंडाल इतना बड़ा होता है कि यहां हर साल जून महीने से इसकी व्यापक तैयारियां शुरू हो जाती है। विभिन्न पौराणिक ग्रंथों के अनुरूप कई आकृतियां निर्मित की जाती हैं, जिसमें सबसे यूनिक आकृति वाले भगवान गणेश का चयन किया जाता है, अंतिम रूप से स्थापना के लिए।
गणेश बाल के राजा के नाम से मशहूर पंडाल की प्रतिमा विशेष तौर पर हल्के झुकाव के साथ आत्मीय मुस्कान से परिपूर्ण होती है। यहां पर भक्तों के दर्शनों के लिए दो लाइनें लगती हैं। एक नवसाची लाइन जिसमें भक्त मंच पर जाकर गणेश की पूजा करते हैं और क्रम से दर्शन पाते हैं। दूसरी लाइन को मुख दर्शनाची लाइन कहते हैं, इस लाइन में सिर्फ दर्शन होते हैं। नवसाची लाइन में दर्शन करने के लिए कभी कभी तो 25 से 40 घंटे तक लग जाते हैं। लालबागचा के राजा भगवान गणेश की जो आकृति यहां प्रतिस्थापित की जाती है, वह एक विशिष्ट आकृति होती है। इस प्रतिमा की सारी रचना परंपरागत गोल मटोल होती है।
गौरतलब है कि लालबागचा के राजा की यह विशिष्ट डिजाइन का कॉपी राइट है, ऐसी प्रतिमा शहर ही नहीं, देश का कोई दूसरा पंडाल नहीं बनवा सकता और न ही अपने यहां स्थापित कर सकता है। मुंबई में चूंकि गणेशोत्सव मानसून के दौरान आता है, इसलिए मानसून की बारिश से इस मूर्ति की रक्षा करना चुनौती होती है।
लालबागचा के राजा की आध्यात्मिक और सामाजिक उपस्थिति का प्रभाव इतना ज्यादा होता है कि गणेशोत्सव के दौरान यहां के वातावरण में एक खास तरह की आध्यात्मिकता के चुंबकीय आकर्षण को महसूस किया जा सकता है। यह सिर्फ एक गणपति उत्सवभर नहीं है बल्कि एक जातीय समुदाय की सांस्कृतिक धरोहर, भक्ति, कलात्मक समर्पण और ऐतिहासिक एकता की मिसाल है। इ.रि.सें.