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गफलत में मारे जाते लाखों निरीह गोह

मेजर जनरल अरविंद यादव गोह का नाम आते ही शरीर में सिहरन सी दौड़ जाती है और मस्तिष्क में बड़ी भयानक जहरीली छिपकली की डरावनी तस्वीर कौंध जाती है। गोहेरा, घ्योरा, गोह, विषखोपड़ी आदि नामों से जाना जाने वाला यह...
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मेजर जनरल अरविंद यादव

गोह का नाम आते ही शरीर में सिहरन सी दौड़ जाती है और मस्तिष्क में बड़ी भयानक जहरीली छिपकली की डरावनी तस्वीर कौंध जाती है। गोहेरा, घ्योरा, गोह, विषखोपड़ी आदि नामों से जाना जाने वाला यह प्राणी बेहद शर्मीला सरीसृप है। यह एक बड़ी छिपकली के परिवार से आता है जिसे ‘मोनिटर लिज़र्ड’ कहते हैं। इन छिपकलियों की उत्पत्ति लगभग साढ़े छः करोड़ साल पहले एशियाई महाद्वीप और आस्ट्रेलिया में हुई थी। इनके पूर्वज मेगालेनिया करीब 16-20 फुट लंबे थे। आज इनकी करीब 70 प्रजातियां हैं जो अफ्रीका, दक्षिण एशिया और आस्ट्रेलिया तक फैली हैं।

भारत में गोह की चार प्रजातियां मिलती हैं बंगाल गोह, पीली गोह, जल गोह और रेगिस्तानी गोह। पीली गोह पूर्वी राज्यों और पश्चिम बंगाल में पाई जाती है। यह पानी के पास दिखाई देती है व पेड़ पर नहीं चढ़ सकती। जल गोह विश्व की दूसरी सबसे बड़ी छिपकली है जो आसाम, पश्चिम बंगाल एवं अंडमान के जलीय इलाकों में होती है और पेड़ों पर चढ़ने में माहिर है। रेगिस्तानी गोह राजस्थान के रेतीले इलाकों में रहती है।

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जहरीली नहीं है कोई भी प्रजाति

अधिकतर नजर आने वाली नस्ल 'बंगाल गोह' है जो लगभग समस्त भारत में मिलती है। गोह के छोटे बच्चों को 'गोहेरा' कहते हैं। यह विष रहित सरीसृप है। दरअसल भारत में कोई भी छिपकली की प्रजाति विषैली नहीं है। गोह के मुंह में तो विषदंत भी नहीं होते। वयस्क गोह का वजन पांच से सात किलो, लम्बाई डेढ़ से दो मीटर और उम्र 20-22 वर्ष तक होती है। गोह तकरीबन हर तरह के वातावरण में रह सकती है। आप इसे रेगिस्तान, पहाड़, नदी नालों व जंगलों में देख सकते हैं। गोह की त्वचा सख्त है जो इसे शिकारियों, चट्टानों और कंटीले इलाकों में नुकसान से बचाती है। गोह के बारे में अंधविश्वास ऐसे-ऐसे भी हैं कि इसके मांस और पूंछ के तेल के सेवन से शक्ति और पौरुष मिलता है।

जन्मते ही शिकार करने वाले गोहिरे

मादा एक साल में एक बार सितंबर-अक्तूबर में 20-24 अंडे देती है और तीन से सात महीने तक सेती है। करीब 80 फीसदी अंडों से 12-15 सेंटीमीटर के बच्चे निकलते हैं। छोटे नवजात, गोहिरे रंगीन और चित्तीदार होते हैं। मां-बाप बच्चों को खाना नहीं खिलाते और पहले दिन से ही गोहिरे छोटे-छोटे जानवरों जैसे बिच्छू, कीड़ों, मेंढक, मछली और छोटे सांपों का शिकार शुरू कर देते हैं। गोहिरे चींटियों की बांबी और पेड़ों में रहते हैं। वे अपने पहले वर्ष तेजी से बढ़ते हैं और तिगुने से अधिक बड़े हो जाते हैं। यह आकार ही इन्हें शिकारियों से बचाता है। लगभग तीन वर्षों में ये संपूर्ण गोह में परिवर्तित हो जाते हैं।

इन्सानों को नहीं काटते

गोह घात लगाकर हमला करने के बजाय पीछा करके शिकार करते हैं। गोह बहुत तेज़ दौड़ते हैं। गोह रात में सोते हैं और दिन में शिकार करते हैं। ये भोजन की उपलब्धता के अनुसार अपनी सीमा बदल लेते हैं। गोह आंखें नहीं झपकती और उनकी दृष्टि बहुत तेज़ होती है। गोह कभी इन्सानों को नहीं काटते। काटने के मामले तभी होते हैं जब लोग इसे पकड़ने या मारने का प्रयास करते हैं।

क्यों है विलुप्त होने की कगार पर

आज भारत में गोह प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर खड़ी हैं। कारण हैं मनुष्य का लालच, अंधविश्वास, और कुदरती निवास का हनन। खाल से बहुमूल्य चमड़ा, मांस से बीमारियों का इलाज एवं खून और हड्डियों से कामोत्तेजक औषधि। पर सबसे अधिक बिकता है इस अभागे प्राणी के नर जननांग। अंधविश्वास है कि नर गोह के जननांग को सुखा कर चांदी के डिब्बे में रखने से घर में लक्ष्मी आती है। इसको ‘हथा जोड़ी’ नाम से पेड़ की जड़ बता कर बेचा जाता है। यह करोड़ों का गोरखधंधा है। वन्य जीव हत्यारों ने साज़िश के तहत यह भ्रांति फैलाई गई कि गोह जहरीले हैं व इसके काटते ही तुरन्त मृत्यु हो जाती है। बाकी काम गोह की शक्ल, चाल और सांप जैसी लम्बी चिरी हुई नीली जीभ पूरा कर देती है। वास्तव में ये जीभ के जरिये सूंघते हैं। वहीं गोह की खाल का इस्तेमाल ‘सेरजस’ (बोडो सारंगी) और ‘डोटारस’ (असम, बंगाल एवं पूर्वी राज्यों के वाद्य यंत्र) और ‘कंजीरा’ को बनाने में भी किया जाता है। ढोलक भी इसके चमड़े से बनते हैं।

संकट की वजह गलत धारणा

विश्व में बनने वाले हाथ घड़ी के पट्टे का व्यापार 2500 करोड़ सालाना है जिसमें 90 फीसदी गोह और बाकी छिपकलियों के चमड़े से बनते हैं। औसतन भारत में एक वर्ष में पांच लाख गोह मारी जाती हैं। गलत धारणा के शिकार एक निर्दोष प्राणी का ऐसा हाल निंदनीय है। वहीं राजस्थान के ऊंट पालक ऊंटों को कथित मजबूत बनाने के लिए उन्हें गोह का रस पिलाते हैं। लोग नहीं जानते कि यह जीव जैव विविधता का प्रहरी है व खेतों से कीड़े-मकोड़े आदि खाकर अनाज बचाते हैं।

प्राचीन संस्कृतियों में गोह

प्राचीन काल से ही गोह और मनुष्यों का घनिष्ठ संबंध रहा है। बहुत सी संस्कृतियों में गोह को विशिष्ट महत्व प्राप्त है। दक्षिण भारत के विख्यात मीनाक्षी मंदिर में देवी मीनाक्षी का मुख्य प्रतीक गोह है। इसका सिर खतरे से सुरक्षा प्रदान करता है, शरीर लंबे जीवन और समृद्धि का प्रतीक है। कई मूर्तियों में गोह को देवी पार्वती के वाहन के रूप में भी दर्शाया गया है। अल्लीपुरम में स्थित वेंकटेश्वर मठ के पुराने मंदिर में भगवान मलयप्पा स्वामी का गोह अवतार स्थापित है। बैंकॉक के एक थाई बौद्ध मंदिर में गौतम सिद्धार्थ के अवतार का एक अद्भुत चित्रण जल गोह के सिर से सुशोभित है। आइए जनजागरूकता के जरिये अपने अस्तित्व से जूझते इस निर्दोष, निरीह एवं किसान मित्र जीव को बचाएं।

लेखक जीव-जंतुओं के संरक्षण के लिए दो दशक से सक्रिय हैं।

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