पुष्कर का ऊंट मेला, राजस्थान की सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक, अब बदलते वक्त में घोड़ों के बढ़ते प्रभाव से नई दिशा में प्रवेश कर रहा है, जिससे परंपरा और व्यापार पर असर पड़ रहा है।
‘पुष्कर ऊंट मेला’ जिसे राजस्थान की जीवंत परंपरा और सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा कहा जाता है। मेले को विश्व के सबसे बड़े ऊंट मेले की उपाधि प्राप्त है। लेकिन मेले की रौनक जैसे कभी पहले हुआ करती थी, वैसी अब नहीं दिखती? अब उसमें ऊंट के अलावा दूसरे पशु ज्यादा दिखने लगे हैं। मेले का प्रतीक सर्वाधिक रूप से ऊंट होते थे। परंतु अब घोड़ों की टापें सुनाई देती हैं। मेला लोकगीतों की धुनों और पर्यटकों की भीड़ से भी गूंजा करता था। सूर्यास्त के वक्त रेत पर ऊंटों की लंबी-लंबी परछाइयों को देखकर पर्यटक मनमोहित होते थे। तब ऐसा अहसास होता था कि जैसे राजस्थान की आत्मा भी रेत के जहाजों संग साथ-साथ चल रही हैं। लेकिन लगातार घटते ऊंटों की संख्या ने सभी परंपराओं पर अंकुश-सा लगा दिया है।
पिछले दिनों संपन्न हुआ ऊंटों का पांच दिवसीय मेला अपने सांस्कृतिक आकर्षण और उत्सवी उल्लास से देश-विदेश के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। प्रत्येक वर्ष करीब पांच लाख विदेशी दर्शक यहां आते हैं। राजा-महाराजाओं की धरती कहे जाने वाले राजस्थान में ऊंटों को केवल पशु ही नहीं, बल्कि रेगिस्तान का जहाज और संस्कृति का प्रतीक माना जाता है। पुष्कर मेला सालाना वार्षिक सरकारी आयोजन है जो ऊंटों एवं अन्य पशु धन के लिए समर्पित है। यह दुनिया के ‘विशाल व्यापार पशु मेले’ में से एक है, जिसमें विभिन्न आकर्षण वाले पशुओं की खरीद-फरोख्त के अलावा, महत्वपूर्ण पर्यटन आकर्षण का नजारा देखने को मिलता है। मेले में व्यापार, मेलजोल और धार्मिक आस्था-तीनों का संगम एक साथ समाहित होता है।
इस बार पर्यटकों को ‘पुष्कर ऊंट मेला-2025’ का मौजूदा स्वरूप कुछ बदला-बदला सा दिखा। मेले में ऊंटों से ज्यादा घोड़े दिखे। इस साल मेले में करीब 4,000 विभिन्न प्रजातियों के घोड़े पहुंचे हैं। जबकि, ऊंटों के पहुंचने की संख्या मात्र 1,400 के आसपास बताई जाती है। घटते ऊंटों को लेकर राजस्थान सरकार भी परेशान है। 19 सितंबर, 2014 से ऊंट को राजस्थान का राज्य पशु भी घोषित किया गया। प्रदेश सरकार ने अक्तूबर-2016 को ‘ऊंट संरक्षण योजना’ भी बनाई थी। वहीं वर्ष 2022-23 से ‘ऊंट पालक योजना’ शुरू की गई, जिसमें प्रत्येक ऊंट पालक व्यक्ति को 10,000 रुपये की सालाना प्रोत्साहन राशि देना आरंभ हुआ। पिछले वर्ष इस राशि में डबल बढ़ोतरी की शुरुआत की। लेकिन हालात अब भी चिंताजनक बने हुए हैं।
गौरतलब है कि ऊंटों के नहीं रहने से पुष्कर मेले का अस्तित्व भी खतरे में पड़ सकता है। वर्ष-1961 में केंद्र सरकार द्वारा कराई गई ऊंट जनगणना में 10 लाख ऊंटों की संख्या निकली थी। जो अब मात्र 1,85000 तक सिमट गई है। स्थिति बताती है कि 2047 तक ऊंट देश से तकरीबन विलुप्त के कगार पर पहुंच जाएंगे। अगर ऐसा हुआ तो पुष्कर में ऊंट वास्तविक नहीं, पोस्टरों में ही दिखेंगे। इसलिए भारत के इस विश्वस्तरीय ऊंट मेले की परंपरा को किसी भी सूरत में सहजना होगा।
वैसे संसार में राजस्थान ऊंटों के मामले में अभी भी अव्वल पायदान पर है। जहां आज भी विभिन्न किस्मों की प्रजातियां पाई जाती हैं। मात्र ऊंटों की सवारी करने को विदेशी पर्यटक छुट्टियों में राजस्थान पहुंचते हैं। बहरहाल, सदियों पुराने ऊंट मेले की साख को बचाने के लिए सरकारी प्रयासों के साथ-साथ सामाजिक स्तर पर कोशिशें जारी हैं। साझा कोशिशों के बावजूद मेले की तस्वीर साल-दर-साल बदलती जा रही है। मेले की पहचान पारंपरिक और स्थानीय लोक संगीत, नृत्य, हस्तशिल्प से भी जुड़ी है। यही कारण है कि ऊंट मेले के बहाने पर्यटक रेतीले राजस्थान की रंगीन संस्कृतियों को निहारने जाते हैं। मेले में जहां ऊंटों के बड़े-बड़े काफिले दिखाई पड़ते थे, वहां इस बार सुंदर और चमकीले बड़े-बड़े घोड़े मुख्य आकर्षण का केंद्र बने। मेले में घोड़ों की सजावट, प्रदर्शन और सौदेबाजी चारों ओर दिखी। खरीदार ऊंटों को छोड़कर अलग-अलग नस्लों के घोड़ों को लेकर उत्साही थे।

