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बाधाएं पार कर कामयाबी की राह पर अग्रसर भारतीय महिलाएं

स्वतन्त्रता दिवस
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देश स्वतंत्र होने के बाद स्त्रियों ने खुद के लिए भी कुरीतियों, सामाजिक-पारिवारिक भेदभाव, अशिक्षा और बन्दिशों से आज़ाद होने का सपना देखा। बेहतर जीवन के लिए बड़े बदलाव लाने थे जिनके लिए उन्हें समाज व परिवार, सभी फ्रंट्स पर बाधाओं से जूझना पड़ा। यह जंग अपनों की संकुचित सोच, भेदभाव व शोषण, रूढ़ियों से व अपनी आवाज उठाने के लिए थी। बरसों-बरस इस संघर्ष में वे कामयाब हुईं। वहीं कुछ बाधाएं आज भी मौजूद हैं पर सफलता की राह पर भारतीय महिलाएं अग्रसर है।

आज़ादी के बाद अपने सपनों को हकीकत बनाने के लिए देश की आधी आबादी ने अनगिनत बाधाओं को पार करने में कामयाबी पाई है। कितने ही अवरोधकों को लांघकर नई दुनिया रची है। आधी सदी से ज्यादा की इस यात्रा में स्त्रियों के हिस्से आईं छोटी-छोटी रुकावटें भी बड़े बदलावों की राह में रोड़ा रहीं। समाज, परिवार और व्यक्तिगत रिश्तों-नातों, सभी फ्रंट्स पर ऐसी रुकावटों से जूझना किसी युद्ध के मोर्चे पर डट जाने से कम न था। यह ऐसी जंग थी, जो अपनों की संकुचित सोच से लड़नी थी। ऐसा संघर्ष, जो सामाजिक रूढ़ियों से करना था। मुड़कर देखने पर अहसास होता है कि इस समर में भारत की महिलाएं जी-जान से जूझते हुए कामयाब भी हुईं। सचमुच, इस रण को जीतना जीवन में इंसानी सहजता के रंग लौटा लाने जैसा था। बरसों-बरस की इस जद्दोजहद में स्त्रियों ने अनगिनत बाधाओं का सामना करते हुए अपनी लड़ाई लड़ी और मुकम्मल पहचान बनाने का हक हासिल किया। स्वतंत्र देश की एक जिम्मेदार नागरिक और जज़्बातों भरा मन लिए इंसान के तौर पर अपनी मौजूदगी को हर पहलू पर सशक्त अंदाज़ में दर्ज़ करवाया।

संकुचित सोच की अड़चन

देश की स्वतन्त्रता की लड़ाई खत्म होते ही स्त्रियों ने खुद के लिए भी कुरीतियों, सामाजिक-पारिवारिक भेदभाव, अशिक्षा और न जाने कितनी ही कही-अनकही बन्दिशों से आज़ाद होने का सपना देखा। स्वतन्त्रता से बाद स्त्रियों के लिए सबसे बड़ी अड़चन तो समाज की पुरातनपंथी सोच ही रही। इस सोच को बदले बिना सम्मान से जीने का हक पाना आसान नहीं था। सबलता के मार्ग पर आगे बढ़ना मुमकिन नहीं था। घर से लेकर सामाजिक दायरे तक बहू-बेटियों के लिए अनगिनत बंधन मौजूद थे। कहते भी हैं कि बाधाओं की तरफ इंसान का ध्यान तभी जाता है, जब उसका ध्यान अपने लक्ष्य से हटता है। महिलाओं की दृष्टि भी बदलाव के क्षितिज पर टिकी रही। जिसके चलते स्त्रियों ने अपने आंगन से लेकर समाज के परिवेश तक रूढ़िवादी सोच के खिलाफ लड़ाई लड़ीं और जीतीं। आज उच्च शिक्षित बेटियों के बढ़ते आंकड़ों की बुनियाद एक पीढ़ी की माताओं के संघर्ष का परिणाम है। कामकाजी स्त्रियों को बराबरी के मौके मिलने के हालात किसी दौर में अपने अधिकारों के लिए आवाज़ बुलंद करने वाली बड़ी पीढ़ी की मेहनत का फल है। संकीर्ण सोच की अड़चन से परे आज समानता का दर्जा पाने के खुशनुमा हालात कभी हिम्मत न हारने वाली स्त्रियों की जद्दोजहद का नतीजा है।

दुर्व्यवहार की बाधा

देश आज़ाद होने के बाद भी स्त्रियों के लिए मन-जीवन से जुड़े बंधन कम नहीं थे। जिनका कारण बहू-बेटियों के साथ होने वाला दुर्व्यवहार भी रहा। घरों से लेकर गली-मुहल्लों और स्कूल कालेज के परिसर तक, बदसलूकी, छेड़छाड़ और शोषण के हालात उनके लिए अनकहे प्रतिबंधों की सूची लिए थे। जिसके चलते असुरक्षा का भाव स्वतंत्र देश की आधी आबादी के लिए बेड़ियां बन गया। समय देखकर घर से निकलने की हिदायतें और बाहर नौकरी-पढ़ाई के लिए नहीं जाने की बंदिश जीवन को घेरे हुए थीं। ऐसे में अपना सम्बल खुद बनी महिलाओं ने इस दुर्व्यवहार के खिलाफ आवाज़ उठाते हुए राह बनाई। हालांकि सुरक्षित रहने-जीने के मोर्चे पर महिलाओं का जूझना अब भी जारी है पर स्वतंत्र भारत की नागरिक होने के नाते वे अपने अस्तित्व को सहेजने का लंबा सफर तय कर चुकी हैं। कहा जाता है बाधाएं दुख देती हैं, पर सुंदर सबक भी सिखाती हैं। दुर्व्यवहार की इसी बाधा ने देश की आधी आबादी के व्यवहार में हौसले को जगह दी। स्त्रियों ने आवाज़ उठाई तो सशक्त कानून भी बने और लोगों का व्यवहार भी बदला।

अनुभूतियों के अवरोध

स्वतंत्र भारत की स्त्रियों को खुलकर अपने भाव जताने का हक़ पाने में भी लंबा समय लगा। आज़ाद देश में भी बहू-बेटियों के लिए दुःख और पीड़ा की अनुभूतियां सहने की कोई सीमा नहीं थी, पर कहने के मामले में अनगिनत अवरोध बने रहे। कुछ बरसों पहले तक ऐसे वैचारिक बंधन मन की घुटन और टूटन के अहम कारण हुआ करते थे। महिलाएं इस मोर्चे पर भी मुखर हुईं। अपना दुःख-सुख कहना सीखा। शोषण को लेकर आवाज़ उठाई। चाहतों को खुलकर जीने का स्वर सबल हुआ। अनुभूतियों की मुखरता ने महिलाओं के व्यक्तित्व को प्रभावी बनाया। कोई बेटी जीवन साथी चुनते हुए अपनी उम्मीदों को बिना लाग लपेट कहने लगी, बहू ससुराल में अपने सम्मान के लिए बेहिचक लड़ी। हर जगह, हर उम्र की स्त्रियों ने खुलकर अपनी उलझनों और अहसासों को जताना सीखा। पीढ़ी-दर पीढ़ी जारी संघर्ष का ही परिणाम है कि बेटियों की बात सुनी जाती है। बहू की सलाहों पर गौर किया जाता है। दादी-नानी के अनुभवों को मान दिया जाता है। मां की भूमिका के मायने समझे जाते हैं और कामकाजी महिलाओं को राष्ट्र निर्माता और आर्थिक विकास की धुरी कहा जा रहा है। अहसासों की अभिव्यक्ति के अवरोधों का हटना स्त्रियों के लिए अंतरात्मा की स्वतंत्रता पाने जैसा है। कहते हैं कि ‘स्वतंत्रता कुछ नहीं, बस बेहतर होने का अवसर मात्र है।’ भारत की महिलाओं ने इस मौके को बखूबी समझा है। मजबूती के साथ अपने लिए आवाज उठाते हुए हर समस्या से लड़कर अपनी जगह बनाई। पीड़िता कहे जाने के हालातों से निकलकर अपने जीवन की नायिका बनने तक का यह सफर आसान नहीं रहा। स्त्रियों ने हर जद्दोजहद को जीते हुए आशाओं को पक्का धरातल देती सच्ची स्वतन्त्रता पाने के सपने देखे। आगे बढ़ने के लक्ष्य बनाये। अपनी आज़ादी की सुरक्षा आप करने का माद्दा रखा। हालांकि कुछ बाधाएं आज भी बनी हुई हैं पर सपनों और सफलताओं की राह पर भारतीय महिलाओं की यह कदमताल निरंतर जारी है।

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