एनएन वोहरा
अध्यक्ष, द ट्रिब्यून ट्रस्ट
सरदार दयाल सिंह मजीठिया पंजाब के एक बहुत जाने-माने परिवार के वंशज थे। उनके दादा सरदार देसा सिंह खालसा राज में दोआबा और मजीठा इलाके के प्रशासक थे और पिता सरदार लहना सिंह खालसा सेना के मुख्य सेनापति होने के अलावा माझा के प्रशासक एवं स्वर्ण मंदिर के प्रबंधक भी रहे थे। वर्ष 1849 में जन्मे सरदार दयाल सिंह को विरासत में इतनी धन-दौलत मिली थी कि चाहते तो तमाम जिंदगी राजाओं सरीखी ऐशो-आराम, मनोरंजन और विलासिता में बिता सकते थे, परंतु उन्होंने दूसरा रास्ता चुनना पसंद किया।
इतिहास पर सरसरी नज़र भी डालें तो भी पाते हैं इन महान सरदार साहिब ने अपनी 49 साल की बनिस्बत छोटी जिंदगी में वास्तव में इतनी ऐतिहासिक उपलब्धियां हासिल की हैं, जिनकी जितनी तारीफ की जाए, कम है। वह भी उस काल में जब समय अत्यंत कठिन था और देश पर काबिज ब्रिटिश साम्राज्य ने अत्यधिक प्रतिबंधों वाली नीतियां नाज़िल कर रखी थीं।
सरदार मजीठिया का जन्म उस साल हुआ था जब पंजाब पर ब्रिटिश राज का नियंत्रण हुआ था। जब तक वे 20 साल के हुए, तब तक औपनिवेशिक सरकार ने भारतवर्ष पर बहुत दमनकारी निज़ाम लागू कर दिया था, जिसका निशाना भारत के आर्थिक स्रोतों का बेदर्दी से दोहन करना था। बार-बार आने वाले अकाल, खासकर 1877 में और इनके दौरान हुई अंतहीन मौतें, बृहद संताप, बढ़ता गुस्सा एवं असंतोष और अधीरता की वजह से स्वायत्तता वाले संस्थानों की मांग होने लगी थी। लेकिन ब्रिटिश सरकार अपने उद्देश्यों को लेकर एकदम स्पष्ट थी। अफगानिस्तान और रूस से लगती सीमा के कारण पंजाब सामरिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण था और वे हरगिज नहीं चाहते थे कि जिस तरह बंगाल में स्वराज का नारा बुलंद हुआ है वैसा कुछ पंजाब में हो। अतएव ब्रिटिश हुक्मरानों ने तय किया कि चाहे कुछ भी करना पड़े लेकिन सैन्य बलशक्ति के दम पर पंजाब पर नियंत्रण बनाकर रखा जाए।
उन दिनों युवा मजीठिया एक गंभीर छात्र थे और उन्होंने फारसी, उर्दू और इंग्लिश भाषा में खासी महारत हासिल कर ली थी। पश्चिमी विचारों की जानकारी से बावस्ता होने की खातिर उन्होंने तन्मयता से इंग्लिश के कालजयी साहित्य को पढ़ा, खासकर स्टुअर्ट मिल, मैकॉले, बर्की, मिल्टन और अन्य लेखकों का काम, इससे उनके अंदर धर्मनिरपेक्ष एवं उदारवादी विचारों का प्रसार करने का भाव जगा। वे वैज्ञानिक जगत में नई खोजों की जिज्ञासा शांत करने के लिए परिवार के विरोध के बावजूद इंगलैंड गए और वहां दो साल तक रुके थे। इस दौरान उनकी मुलाकात जानी-मानी हस्तियों से हुई और बेहतर वैश्विक दृष्टिकोण लेकर घर वापसी की। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी सरदार मजीठिया को वेदांत और अन्य सिद्धांतों पर विचार बैठकों में भाग लेना पसंद था। फारसी शायरी के रसिया होने के नाते वे अकसर सूफी-संतों के कलाम गाया करते थे।
शिक्षित वर्ग से मेलजोल बनाए रखने को उन्होंने लाहौर में रहने का निर्णय लिया, जिसने उन्हें सामाजिक एवं बौद्धिक गतिविधियों में भाग लेने का मौका प्रदान किया। यह महसूस करने के बाद कि उनके लोग तब तक तरक्की नहीं कर सकते जब तक कि अंदर धंसा अज्ञान, अंधविश्वास, पूर्वाग्रह और धर्मांधता पूरी तरह से खत्म न हो जाए। लिहाजा उन्होंने बाकी की पूरी जिंदगी अपने लोगों में शिक्षा का प्रसार और सामाजिक सुधारों के काम में लगाने का निर्णय लिया। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए जब उन्होंने सुना कि बंगाल में बदलाव की बयार शुरू हो चुकी है तो उन्होंने कलकत्ता (कोलकाता) जाने का निर्णय लिया था। इस यात्रा में सरदार मजीठिया वहां ब्रह्मो समाज आंदोलन द्वारा चलाए गए सामाजिक सुधार कार्यक्रम और आर्य समाज द्वारा पैदा की गई राष्ट्रवादी भावना से बहुत प्रभावित हुए थे। अपने लोगों की तरक्की तेजी से कैसे हो पाए, इस हेतु उन्होंने स्वामी विवेकानंद और स्वामी दयानंद सरीखी विभूतियों से वार्तालाप किया। अपने समय के जाने-माने चिंतकों, विशेषकर दादाभाई नौरोजी, आरसी दत्त, माधव रानाडे और राजा राममोहन रॉय से भी उन्होंने मुलाकातें की थीं। कलकत्ता यात्रा के बाद वे पंजाब में ब्रह्मो समाज के सक्रिय कार्यकर्ता बन गए और लोगों में तरक्कीयाफ्ता सोच को बढ़ावा देने का काम किया। वे लाहौर की इंडियन एसोसिएशन के अध्यक्ष बनाए गए, साथ ही यूनियन अकादमी की स्थापना की। इस दौरान उन्होंने महसूस किया कि अपने लोगों को जागरूक बनाने और सामाजिक बदलाव लाने के लिए यदि कोई स्वदेशी अखबार हो तो इससे जनता को अपनी शिकायतें और आकांक्षाएं साझा करने को मंच भी मिल सकेगा। उस वक्त ‘सिविल एंड मिलिट्री गजट’ और ‘पॉयनियर’ नामक दो बड़े समाचारपत्र हुआ करते थे, जिनका ध्यान पूरी तरह ब्रिटिश हितों की सेवा करने पर केंद्रित था। इंग्लिश भाषा में स्वदेशी अखबार निकालने की दूरदर्शी सरदार मजीठिया की आकांक्षा उस वक्त मूर्त रूप लेने की ओर बढ़ी जब वर्ष 1878 में उनकी मुलाकात पंजाब की यात्रा पर आए सुरेन्द्रनाथ बनर्जी (जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापकों में एक थे) से हुई। दोनों के बीच बृहद बातचीत हुई और सरदार मजीठिया ने बनर्जी के उस प्रस्ताव को स्वीकार किया, जिसमें उन्हें पहले कलकत्ता से प्रिंटिंग प्रेस पंजाब भेजना और बाद में एक संपादक का भी इंतजाम करना था। फलस्वरूप लाहौर में ‘द ट्रिब्यून’ अदारे की स्थापना हुई। 12 पन्नों और 4 आना कीमत वाली साप्ताहिक अखबार का पहला अंक 2 फरवरी, 1881 को निकला था। बाद में यह समाचारपत्र साप्ताहिक से दैनिक में तब्दील हो गया और जल्द ही अपनी स्वतंत्र पत्रकारिता और राष्ट्रीय अलख जगाने के प्रयासों की वजह से काफी लोकप्रिय हो गया।
आज ‘द ट्रिब्यून’ को छपते हुए 140 साल हो गए हैं और हमारी अखबार अत्यंत गर्व और संतोष से दावा कर सकती है कि लाहौर के अपने 66 वर्षीय प्रकाशन काल में न सिर्फ ब्रिटिश राज में निर्भीक पत्रकारिता की बल्कि आजादी के लिए लंबे चले स्वाधीनता आंदोलन की कवरेज भी निधड़क होकर की थी। वर्ष 1919 में जलियांवाला बाग नरसंहार पर की गई निडर रिपोर्टिंग के लिए हमारे तत्कालीन संपादक कालीनाथ रे, जिन्होंने 27 साल अखबार को चलाया था, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था और ‘द ट्रिब्यून’ का प्रकाशन बंद करवा दिया गया था। बहुत मुश्किलों के बाद कालीनाथ रे की रिहाई हो पाई थी और हमारा समाचारपत्र फिर से बिक्री स्टालों पर दिखने लगा था, तब इसकी मांग पहले से ज्यादा होने लगी।
आजादी उपरांत, पिछले 74 सालों से, और आज भी, ‘द ट्रिब्यून’ घटनाओं को नजदीक से देखता है। स्वाधीनता उपरांत बने कुछ उथल-पुथल भरे काल के अलावा विभाजन, राष्ट्र निर्माण में आए इम्तिहानों और कलहपूर्ण परिस्थितियों से भरे वक्त में, पाकिस्तान से युद्धों और चीन की लड़ाई में, स्वतंत्र भारत में राष्ट्र विकास की नीतियां बनते देखना, हमारे संविधान के विभिन्न अंगों की उपलब्धियां और विफलताएं और इमरजेंसी काल जैसे घटनाक्रम का चश्मदीद रहा है।
राजनीतिक उथल-पुथल के कारण वक्त-वक्त पर बनने वाली अल्पकालिक समस्याओं के बावजूद ‘द ट्रिब्यून’ ने अपने नाम को बनाए रखा है और आज भी समूचे उत्तर भारत में लोगों की आवाज बनने की सेवा निरंतर निभा रहा है।
सरदार दयाल सिंह मजीठिया ने वर्ष 1895 में की अपनी अंतिम वसीयत और घोषणा में अखबार एवं प्रिंटिंग प्रेस का काम सुचारु रखने, समाचारपत्र की उदार नीतियां सुनिश्चित करने, अतिरिक्त मुनाफे को वापस अखबार की बेहतरी में लगाने और ‘द ट्रिब्यून’ का संकल्प स्थाई बनाए रखने की खातिर तीन सम्माननीय शख्सियतों वाली ट्रस्टियों की समिति बनाई थी।
आज अपने संस्थापना दिवस की 140वीं वर्षगांठ के मुबारक और खुशी भरे मौके पर ‘द ट्रिब्यून’ ट्रस्ट के ट्रस्टी दूरदृष्टा, राष्ट्रवादी, शिक्षाविद, समाज सुधारक और महान परोपकारक सरदार दयाल सिंह मजीठिया को भावभीना प्रणाम करते हैं।