राजकुमार सिंह
हरियाणा आज 54 साल का हो गया। हालांकि किसी देश-प्रदेश के संदर्भ में उम्र ज्यादा मायने नहीं रखती, लेकिन देश का स्वतंत्रता दिवस हो या प्रदेश का स्थापना दिवस, आत्मावलोकन का अवसर निश्चय ही होता है कि जो राह-मंजिल चुनी थी, उस पर कहां तक पहुंचे। पंजाब के विभाजन से 1 नवंबर, 1966 को हरियाणा पृथक राज्य के रूप में अस्तित्व में आया। उन कारणों की विस्तार से चर्चा का अब औचित्य नहीं है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि लंबे संघर्ष के बाद वह दिन आया था। जाहिर है, पृथक राज्य के रूप में राजनीतिक–प्रशासनिक ढांचे के जरिये एक नया सत्ता तंत्र बनाने और कुछ लोगों की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करने मात्र के उद्देश्य से तो हरियाणवियों ने अलग राज्य के लिए लंबी लड़ाई नहीं लड़ी थी। हरियाणवियों का सपना था कि अपने राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक विकास के फैसले वे खुद कर सकें, अपने विकास की प्राथमिकताएं और दिशा खुद तय कर सकें।
वैसा बिलकुल नहीं हुआ, यह कहना तो सही नहीं होगा। आर्थिक विकास के पैमाने पर हरियाणा किसी भी राज्य का सपना हो सकता है। 1966 में मात्र सात जिलों वाले हरियाणा में अब 22 जिले हैं। राजनीति के साथ–साथ क्षेत्रीय और प्रशासनिक संतुलन को भी ध्यान में रख कर बनाये गये जिलों का भी यह परिणाम है कि देश के डेढ़ प्रतिशत से भी कम क्षेत्रफल में बसे हरियाणा का वर्ष 2018-19 में देश की जीडीपी में योगदान 3.6 प्रतिशत रहा। हरियाणा की जीडीपी का देशभर में 12वां स्थान है और वर्ष 2012-2017 के बीच उसकी विकास दर 12.17 रही।
हरियाणा देश का सबसे बड़ा ऑटोमोबाइल हब है। भारत में बनने वाली यात्री कारों में से दो-तिहाई का निर्माण हरियाणा में होता है, तो 50 प्रतिशत ट्रैक्टर और 60 प्रतिशत दोपहिया वाहन भी यहीं बनते हैं। आईटी और बायोटेक्नोलॉजी समेत नॉलेज इंडस्ट्री के केंद्र में रूप में भी हरियाणा उभरा है। आईटी और संबंधित सेवा कंपनियों का हरियाणा पसंदीदा राज्य है तो यह तीसरा बड़ा सॉफ्टवेयर निर्यातक भी है। खेलों के मैदान में तो हरियाणा ने जो कर दिखाया है, वह वाकई कमाल है। खेत में किसान हो या सीमा पर जवान-हरियाणा का योगदान बेमिसाल है।
आंकड़ों में और ज्यादा उलझे बिना भी यह कहा जा सकता है कि कृषि प्रधान राज्य की पहचान वाले हरियाणा ने औद्योगिक विकास में जो मुकाम हासिल किया है, वह शानदार भी है और प्रेरक भी, लेकिन तब स्वाभाविक सवाल यह उठता है कि इस विकास में आम हरियाणवी की हिस्सेदारी कितनी है और इससे उसका जीवन स्तर कितना बेहतर हुआ है? यह भी कि विकास और संपन्नता का लाभ चंद परिवारों तक ही सीमित क्यों रह गया? कहना नहीं होगा कि इन स्वाभाविक सवालों के असहज कर देने वाले जवाब इस विकास और उसके औचित्य पर भी सवालिया निशान लगाते नजर आते हैं। पंजाब, राजस्थान, हिमाचल और उत्तर प्रदेश से सटी सीमाओं वाला हरियाणा देश की राजधानी दिल्ली को तीन ओर से घेरे हुए है। हरियाणा के आधे से अधिक जिले राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) का अंग हैं। कहना नहीं होगा कि उसके इस औद्योगिक विकास में राज्य के नीति-नियंताओं से ज्यादा योगदान उसकी भौगोलिक स्थिति का रहा है। यह भी कि अगर नीति-नियंताओं के पास विकास की जरूरी दूरदृष्टि रही होती तो शायद विकास और संपन्नता में हर हरियाणवी की हिस्सेदारी होती और हरियाणा की तस्वीर बहुत बेहतर।
हरियाणा के नाम के अकसर दो अर्थ निकाले जाते हैं: एक, हरि यानी विष्णु का घर। दूसरा, हरा-भरा क्षेत्र। महाभारतकाल में धर्म की रक्षार्थ युद्ध भी यहीं कुरुक्षेत्र में लड़ा गया था और भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का संदेश भी यहीं दिया था। हरियाणा ऐतिहासिक ही नहीं, सभ्यता-संस्कृति की भी समृद्ध धरा रहा है। बेशक हर साल बड़े शानदार ढंग से गीता जयंती मनायी जाती है, पर गीता संदेश से ले कर महाभारत के सबक तक को जीवन मूल्यों में आत्मसात किया गया है क्या? जाहिर है, नहीं, अन्यथा हरि की भूमि पर अपसंस्कृति का प्रचार-प्रसार नहीं देखना पड़ता और कंक्रीट के जंगल के लिए अरावली की पहाड़ियों एवं हरियाली की बलि नहीं दी जाती। जिस हरियाणा को देश के सांस्कृतिक पुनरुत्थान का अगुवा बनना चाहिए था, उसकी चर्चा आज हर उस तरह के अपराध के लिए होती है, जिससे सिर शर्म से झुक जाता है। जिस हरियाणा की पहचान कभी दूध-दही के खाने के लिए होती थी, आज उसमें शायद दूध की दुकानों से ज्यादा शराब की दुकानें होंगी। विकास के आंकड़ों के लिए अपनी-अपनी पीठ थपथपाने वाले राजनेता क्या इस अधोपतन की भी नैतिक जिम्मेदारी लेंगे?
हरियाणा की राजनीति के दामन पर आयाराम-गयाराम का दाग तो बहुत पहले ही लग गया था, लेकिन उसके बाद भी नेकनामी वाले काम ज्यादा नहीं हुए। हरियाणा लालों की राजनीति और राज के लिए चर्चित रहा। फिर उनके लाल-लालियां भी आ गयीं। सिलसिला अब भी जारी है। गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे के शब्दों में कहें तो राजनीति मानो सत्ता पाने और उसे बनाये रखने का खेल भर बन कर रह गयी है। कभी जो राजनीति समाज की सेवा का संकल्प और जरिया होती थी, आज सत्ताधीशों और उनकी सात पुश्तों के लिए मेवे की जुगाड़ बन कर रह गयी है। अगर सत्ताशीर्ष पर विराजमान निर्वाचित जन प्रतिनिधियों का यह हाल है तो उन नौकरशाहों से क्या उम्मीद करेंगे, जिनमें से ज्यादातर का मूल मंत्र मलाईदार पोस्टिंग पाना और रिटायरमेंट के बाद भी पुनर्वास का जुगाड़ कर लेना ही है? जहां भी लोक पर तंत्र हावी हो जाता है, ऐसा ही होता है। पर इसके लिए आम हरियाणवी भी कम जिम्मेदार नहीं। लोकतंत्र में लोक ही अहम होता है। लोक के लिए तंत्र होता है, न कि तंत्र के लिए लोक। इसलिए जब तंत्र भटक जाये तो लोक को उसकी लगाम कसनी चाहिए, पर उसके लिए पहले अपना भटकाव भी समझना-संभालना होगा। हमारे राजनेताओं ने अंग्रेजों से शासन प्रणाली ही नहीं ली, बांटो और राज करो की नीति भी ली है। जब तक जाति-वर्ग में विभाजन से ऊपर उठ कर हम समाज के रूप में नहीं सोचेंगे, सर्वांगीण विकास को अपना लक्ष्य नहीं बनायेंगे, तब तक सत्ता राजनीति का खिलौना भर बने रहेंगे। लंबे संघर्ष के बाद पृथक राज्य पाने वाले हरियाणवी, तंत्र की तिकड़मों में फंस कर हार नहीं सकते। हरियाणा के जरिये जो सपना उन्होंने देखा था, उसे साकार करने का संकल्प भी उन्हें ही लेना होगा।