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आस्था-परंपरा की उमंग संग देशभर में मंगलमय नव वर्ष

नवसंवत्सर : विक्रमी 2082

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चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को देशभर में नववर्ष किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। हरेक प्रांत में लोगों की अपनी अलग धार्मिक-सांस्कृतिक आस्था के चलते नव वर्ष के नाम बेशक भिन्न हों लेकिन अभिप्राय नवसंवत्सर से ही है। इस अवसर का उत्साह स्वच्छता, सजावट व खास व्यंजनों में प्रकट होता है वहीं देव पूजा और अनुष्ठान के तौर पर भी। दरअसल, इस अवसर पर पूरी प्रकृति नवपल्लव धारण कर नव संरचना के लिए ऊर्जस्वित होती है।

आर.सी. शर्मा

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हिंदू चंद्र-सौर कैलेंडर के अनुसार चैत्र महीने के पहले दिन को महाराष्ट्र और गोवा में गुड़ी पड़वा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक जैसे दक्षिणी राज्यों में उगादी या युगादी, मणिपुर में स्थानीय मणिपुरी भाषा में साजिबू नोंगमा पनबा और सिंधी भाषा में चेटीचंड या झूलेलाल जयंती कहते हैं। अलग-अलग धार्मिक-सांस्कृतिक आस्था में इन सभी का अर्थ हिंदू नव वर्ष के पहले दिन या नवसंवत्सर से है। हिंदू पंचांग के अनुसार, ये सभी पर्व चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को मनाये जाते हैं और इस साल यह तिथि 30 मार्च, रविवार को है। इसलिए ये सभी पर्व इस साल 30 मार्च को मनाये जायेंगे। गुड़ी का अर्थ विजय पताका से भी है। कहते हैं कि मराठा राजा शालिवाहन ने विदेशी आक्रमणकारी शकों को हराकर इसी दिन विजय के प्रतीक स्वरूप शालिवाहन शक संवत‍् की शुरुआत की थी। इसलिए यह दिन मराठी नववर्ष के रूप में भी मनाया जाता है। इसी दिन से चैत्र नवरात्रि का प्रारम्भ होता है।

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सृष्टि के निर्माण से जुड़ी मान्यता

एक पौराणिक मान्यता यह भी है कि इसी दिन ब्रह्मा ने सृष्टि का निर्माण किया था। यही वजह है कि इस दिन की पूजा में ब्रह्माजी और उनके द्वारा निर्मित सृष्टि के प्रमुख देवी-देवताओं, यक्ष-राक्षस, गंधर्व, ऋषि-मुनियों, नदियों, पर्वतों, पशु-पक्षियों और कीट-पतंगों का ही नहीं, रोगों और उनके उपचारों तक का पूजन किया जाता है। चूंकि इसी दिन से नया संवत्सर शुरू होता है। अतः इस तिथि को ‘नवसंवत्सर’ भी कहते हैं। चैत्र ही एक ऐसा महीना है, जिसमें वृक्ष तथा लताएं पल्लवित व पुष्पित होती हैं।

चंद्रमा की कला का प्रथम दिवस

शुक्ल प्रतिपदा को चंद्रमा की कला का प्रथम दिवस माना जाता है। इसीलिए इस दिन से वर्षारम्भ माना जाता है। वैसे महाराष्ट्र में गुढी या गुड़ी का एक और ऐतिहासिक महत्व है। इसी दिन छत्रपति शिवाजी महाराज ने मुगलों को हराया था और राज्य के लोगों को मुगल शासन से मुक्त कराया था। इसलिए इस दिन महाराष्ट्र के लोग अपने घरों में गुड़ी यानी विजय पताका फहराते हैं। यह भी मान्यता है कि यह झंडा या विजय पताका घरों के परिसर में किसी भी तरह की बुराई को प्रवेश नहीं करने देती।

स्वच्छता और सजावट का उत्सव

चूंकि यह त्योहार मुख्य रूप से नए साल के स्वागत का जश्न मनाता है, इसलिए लोग अपने घरों और आंगनों की सफाई करते हैं ताकि सब कुछ साफ-सुथरा और व्यवस्थित रहे। इस दिन तेल से स्नान करना अनिवार्य है। महिलाएं प्रवेश द्वारों को अलग-अलग पैटर्न और रंगों की रंगोली से सजाती हैं। नए कपड़े पहनना, खास तौरपर कुर्ता-पाजामा और साड़ी पहनना इस परंपरा का अभिन्न अंग है। इस त्योहार का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा गुड़ी को फहराना है। गुड़ी को फहराने के बाद, लोग गुड़ी तक पहुंचने के लिए मानव पिरामिड बनाते हैं और उसके अंदर रखे नारियल को तोड़ते हैं। खास तौर से महाराष्ट्र में यह त्योहार का एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है जिसमें केवल पुरुषों और किशोर लड़कों को ही भाग लेने की अनुमति है।

दक्षिण की जीवंत परंपराएं

दूसरी तरफ तेलंगाना,आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में इस दिन घरों को आम के पेड़ की पत्तियों के बंदनवार से सजाया जाता है। सुखद जीवन की अभिलाषा के साथ-साथ यह बंदनवार समृद्धि, व अच्छी फसल के भी परिचायक हैं। इस दिन को तेलगू नव वर्ष दिवस के रूप में भी जाना जाता है। उगादी पचड़ी, इस त्योहार से जुड़ा एक प्रसिद्ध व्यंजन है,जो इस दिन बनाया जाता है। यह पारंपरिक डिश छह अलग-अलग स्वादों का मिश्रण है। इन स्वादों का संबंध जीवन में आने वाली समस्याओं, कठिनाइयों, सुख, दुख, लाभ, और खुशियों से है। उगादी पचड़ी का मीठा स्वाद गुड़ से आता है और यह खुशी का प्रतीक है और कड़वा स्वाद नीम के फूलों से आता है जो उदासी का प्रतीक है। इसी तरह खट्टा स्वाद इमली से आता है जो कि अप्रियता का प्रतीक है। नमकीन स्वाद नमक से आता है जो कि अज्ञात अवस्था के भय को दर्शाता है। जबकि काली मिर्च से आने वाला स्वाद क्रोध का प्रतीक है। नव वर्ष दिवस पर लोग अपने घरों को आम के पत्तों से सजाते हैं। मंदिरों में जाकर प्रार्थना करते हैं और भगवान से नए साल के लिए आशीर्वाद लेते हैं। ‘उगादि’ के दिन ही पंचांग तैयार होता है। महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने इसी दिन से सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन, महीना और वर्ष की गणना करते हुए ‘पंचांग’ की रचना की थी । आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना में इसी दिन से आम खाया जाना शुरू होता है ।

सिंध में चेटीचंड का त्योहार

आज के ही दिन चेटीचंड का भी मनाया जाता है जो कि भगवान झूलेलाल का जन्मोत्सव होता है। इसीलिये इसे झूलेलाल जयंती के नाम से भी जाना जाता है। सिंधी समाज के लिए यह त्योहार बहुत खास है। सिंधी समाज भी इस दिन को नए साल के तौर पर मनाते हैं। इस दिन भगवान झूलेलाल के साथ वरुण देवता की भी पूजा की जाती है। इस दिन सिंधु नदी के तट पर ‘चालीहो साहब’ नामक पूजा-अर्चना की जाती है। इस दिन भक्त लकड़ी का एक मंदिर बनाकर उसमें एक लोटे से जल और ज्योति प्रज्वलित करते हैं, इसे बहिराणा साहब कहा जाता है।

मणिपुर में साजिबू नोंगमा पनबा

‘साजिबू नोंगमा पनबा’, यह मणिपुर का नव वर्ष है। इस दिन को सनमहिज्म धर्म के अनुयायी मनाते हैं। साजिबू नोंगमा पनबा शब्द मणिपुरी भाषा के शब्दों से मिलकर बना है,जिसमें साजिबू महीने का पहला दिन है। इस दिन मणिपुरी लोग संयुक्त परिवार के साथ मिलकर भोज का आयोजन करते हैं। घरों के मुख्य द्वार पर स्थानीय देवताओं को पारंपरिक व्यंजन अर्पित किए जाते हैं। भोज के बाद, लोग देवताओं की पूजा करने के लिए चिंगमेइरोंग में चेराओ चिंग पहाड़ी या आसपास की किसी पहाड़ी पर चढ़ते हैं। मान्यता है कि यह उन्हें उनके जीवन में नई ऊंचाइयों तक ले जाती है। इस दिन दावत के लिए तैयार किए गए व्यंजनों का आदान-प्रदान रिश्तेदारों/पड़ोसियों के साथ किया जाता है।

इन सब पर्वों त्योहारों के इतर भी चैत्र प्रतिपदा का महत्व है। आज भी भारत में प्रकृति, शिक्षा तथा राजकीय कोष आदि के चालन-संचालन में मार्च, अप्रैल के रूप में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही देखते हैं। दरअसल हम सब जीवन के विविध आयामों पर नूतनता चाहते हैं। उल्लास की कामना करते हैं। सकारात्मकता की उम्मीद करते हैं। ऐसे में प्रकृति उसे पूरा करने के लिए पल्लवित-पुष्पित होकर नये रूप में नव संवत्सर के अवसर पर सामने आती है। नई फसल पककर तैयार हो जाती है। वहीं व्यवसाय-व्यापार के नये सत्र का प्रारंभ भी आत्मविश्वास व उत्साह अपने कार्य के प्रति हममें भर देता है। दरअसल भारतीय परंपराओं व आस्थाा में नवीनता को नये-नये रूपों में आत्मसात किया गया है। नये संवत्सर के मौके पर नये-नये रूपों में क्षेत्रीय परंपराओं व आस्था के मुताबिक देशव्यापी विविधता के साथ नूतनता और नवसृजन की चाह की ही पूर्ति होती महसूस होती है।यह समय दो ऋतुओं का संधिकाल है। इसमें रातें छोटी और दिन बड़े होने लगते हैं। प्रकृति नया रूप धर लेती है। प्रतीत होता है कि प्रकृति नवपल्लव धारण कर नव संरचना के लिए ऊर्जस्वित होती है। मानव, पशु-पक्षी, यहां तक कि जड़-चेतन प्रकृति भी प्रमाद और आलस्य को त्याग सचेत हो जाती है। वसंतोत्सव का भी यही आधार है।  इ.रि.सें.

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