21वीं सदी का 21वां साल शुरू हो गया है। माना जाता है कि 21 का अंक शुभ होता है। हम सब उम्मीद करते हैं कि खौफनाक रहे साल 2020 की त्रासदियों से निपटते हुए नये साल में हम नये तरीके से आगे बढ़ेंगे। कोरोना महामारी के साये में बीते साल 2020 की कुछ बातों को साझा करते हुए अभी शुरू हुए नये साल 2021 में प्रसन्न रहने के कुछ टिप्स बता रही हैं क्षमा शर्मा
21वीं सदी के दो दशक बीत गये। नये दशक का पहला साल शुरू हो गया है। याद कीजिए, 31 दिसंबर 2019 को हम सबने क्या–क्या सोचा होगा। कैसी-कैसी योजनाएं बनाई होंगी कि आने वाले साल में यह करेंगे, वह करेंगे। जो काम इस साल अधूरे रह गए, उन्हें तो पूरा करेंगे ही, नये काम भी अधूरे नहीं छोड़ेंगे। आने वाले साल के स्वागत में कितनी पार्टियां और कितनी रोशनियां की होंगी। कितने उदार भाव से बीते हुए समय और आने वाले समय को देखा होगा। बारह बजे कितना धूम-धड़ाका हुआ होगा। कितनी शुभकामनाएं दी गई होंगी, स्वीकार की होंगी। भविष्य की कितनी कल्पनाएं की होंगी। लेकिन किसे पता था कि जैसे ही नये साल में प्रवेश करेंगे, ऐसी विपत्ति, ऐसी बीमारी की खबर मिलने लगेगी, जिसका कोई इलाज ही नहीं। अब जब 2021 शुरू हो गया है तो सदी अब शैशव और किशोरावस्था से निकलकर युवावस्था में प्रवेश कर रही है, तो हम क्या सोच रहे हैं। सच तो यह है कि मन में डर समा गया है। कितना खौफनाक रहा बीता साल। अब 21 के अंक की मानिंद उम्मीद करें कि यह वर्ष सबके लिए शुभ हो।
मां जैसा कहती थी कि नानी उसे बताया करती थीं जब प्लेग फैला था, तो क्या-क्या हुआ था। परिवार के लोग ही अपनों को छोड़कर भाग जाते थे। कल यूरोप में रहने वाले और अपने दफ्तर के काम–काज की खातिर दुनिया में घूमने वाले मेरे बेटे ने जो कहा उससे सिहर उठी। हालांकि ऐसा नहीं था कि इन बातों को जानती नहीं थी। उसने कहा कि पूरे विश्व में 2020 में जो आफतें झेलीं वे तो हैं ही, लेकिन सबसे अधिक परेशान वे लोग रहे हैं जो अकेले रहते हैं। जिनसे बात करने वाला न घर में, न आसपास कोई है। वे सारी मुसीबतें झेलने के लिए अकेले हैं। उसकी बात सुनकर मैं यही सोचती रही कि बहुत से लोग अकेलेपन की बहुत रोजी पिक्चर दिखाते हैं। बताया जाता है कि खुद के विकास और आजादी के लिए अकेलापन कितना अच्छा है। यह रोजी पिक्चर तभी तक नजर आती है, जब तक शरीर में दमखम रहता है। जैसे ही उम्र पहले नख-दंत दिखाती है, तब वही अकेलापन काटने को दौड़ता है। तब हम सब सोचते हैं कि काश हमारा भी अपना कहने वाला कोई होता। परिवार होता।
अकेले रहने वाले बुज़ुर्गों की दास्तां
कोरोना में अकेले रह गए बूढ़ों का क्या हुआ इसकी रिपोर्ट सबसे पहले न्यूयार्क से आई थीं। बताया गया था कि कोरोना के कारण किस तरह से बुजुर्ग तरह-तरह की मुसीबतों में फंस गए हैं। घर में वे बिल्कुल अकेले हैं। बाहर निकलकर किसी क्लब में जाकर कुछ मनोरंजन करते थे, दोस्तों से मिलते थे, घूमते–फिरते थे, अब सब कुछ बंद है। इसलिए दुनिया में अब इस बात पर विचार हो रहा है कि पिछली सदी में अकेलेपन को जिस तरह से सर्वश्रेष्ठ बताकर दिखाया गया, क्या वह ठीक था। बूढ़े, बच्चे, महिलाएं–आखिर किसको अकेलेपन के कारण जीवन जीने में सहूलियत हुई? माना जाने लगा है कि किसी भी मुश्किल में परिवार ही होता है जो सबसे पहले दौड़ता है। परिवार के लोगों की चिंता ही असली चिंता होती है। अधिकांश मामलों में निस्वार्थ ही। यही नहीं, अकसर मुश्किलों की कल्पना करके हम डरते रहते हैं। क्या होगा, कैसे होगा, कहीं कुछ हो तो नहीं जाएगा, आदि बातें सोच-सोचकर परेशान होते हैं। मगर जब वे आ जाती हैं, उनसे बचने का कई रास्ता नहीं होता तो हम उनसे मुकाबला करने के लिए तैयार हो जाते हैं। हम में वह त्वरा और शक्ति भी जाती है, जो उनसे निपटने की दिशा में आगे कदम बढ़ाने की ताकत देती है। विजयी बनाती है। तभी तो इस साल जब सारी दुनिया एक ऐसी बीमारी के डर से त्रस्त थी, जिसका कहीं कोई इलाज नहीं था, तब शुरुआती डर के बाद दुनिया भर में लोग उठ–खड़े हुए। भारत में भी कोई कम दिक्कतें लोगों ने नहीं झेलीं। करोड़ों बेरोजगार हुए, लाखों पैदल ही अपने घरों की ओर दौड़े। लेकिन परेशानियां ज्यादा हों तो हम तरह-तरह से उनसे बचने के उपाय ढूंढ़ते हैं। यह हुआ भी।
निराशा से उबरने की कोशिश
इस साल भारत की चौदह भाषाओं में जिन शब्दों को सबसे अधिक खोजा गया, वे मनुष्य की जिजीविषा और मुश्किलों से हर हाल में पीछा छुड़ाने और उन पर विजय पाने की जिद और लालसा को बताते थे। हिंदी में जो शब्द सबसे ज्यादा खोजा गया, वह था-आनंद। इसी के समानार्थी तमिल में विजीपुनरव, मलयालम में जागृत, तेलुगू में सामरस्यम, उर्दू में सेहतयाब, पंजाबी में लोर, बांग्ला में आशा, उड़िया में स्वावलम्बन आदि। यानी कि दुख में सबसे ज्यादा आनंद, स्वावलम्बन, आशा और सेहत की याद आई। ये ही तो वे बातें हैं, जिनसे हम बड़ी से बड़ी परेशानी को पछाड़ सकते हैं। इस साल निराशा से उबरने के लिए मशहूर उद्योगपति रतन टाटा का एक कथन लोगों ने बार-बार फेसबुक पर शेयर किया। वह था-’इस अफसोस के साथ मत उठो कि कल तुम कुछ हासिल नहीं कर पाए। यह सोचते हुए जागो कि आज तुम क्या हासिल कर सकते हो।’ रतन टाटा के इस कथन को सामान्य व्यक्ति भी समझता है, इसलिए वह परेशानियों में कोई आशा की किरण तलाशता है। भूलकर आगे बढ़ना ही मनुष्य को जिंदगी की नयी राह दिखाता है। और कोई रास्ता भी तो नहीं। अतीत को कब तक गले से लगाकर बैठा जा सकता है। अतीत माने गुजरा हुआ, जो बीत गया यानी कि जो भूत है, जो कभी वापस नहीं आ सकता। अगर आप पुरानी कहानियों को सुनें तो कहा जाता है कि भूत के पांव उलटे होते हैं। यानी कि वह आगे की तरफ नहीं चल सकता। यदि आगे बढ़ना है, तो पीछे देखना और लौटना नहीं होता। कोई लौट सकता भी नहीं। चरेवेति, चरेवेति यानी कि चलते रहो–चलते रहो यूं ही नहीं कहा गया। जीवन चलने का नाम इसलिए रुको मत, चलते रहो। कोई भी आपत्ति आए, उसे भुलाकर नयी प्रकाश की किरणें खोजो। वे हमेशा मिलेंगी।
टीकों पर अभूतपूर्व सफलता
एक–दूसरे से मिलकर कोरोना से लड़ने के टीके विकसित किए गए। यह अभूतपूर्व ही है कि एक साल के भीतर-भीतर इतने कम समय में इसका एक टीका नहीं, कई देशों में, अलग-अलग कम्पनियों ने कई टीके विकसित किए। भारत भी इस मामले में पीछे नहीं रहा। बताया गया कि यहां भी तीन टीके बस आने-आने को हैं। आयुर्वेद के उपचार को भी भारी सफलता मिली, जबकि पिछली सदियों में जो महामारियां फैली थीं, उनके टीके विकसित करने में बहुत समय लगा था। कहा जाता है कि चेचक का टीका विकसित करने में दो सौ साल लगे थे। यह एक प्रकार से हमारे वैज्ञानिकों की सफलता ही है कि वे अपनी पूरी ताकत किसी बीमारी से लड़ने के कारगर तरीकों को खोजने में झोंक देते हैं। इस तरह से देखा जाए तो 2021 सम्पूर्ण मानवता के इस बीमारी से मुक्ति के झंडे तो गाड़ ही देगा। किसी महामारी की दवा को इतनी जल्दी विकसित करना और उस पर काबू पा लेना, एक तरह का विश्व रिकॉर्ड ही होगा।
… आगे की सुधि लेय
बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि लेय। पिछले साल की मुसीबतों को एक किनारे कर, कुछ ऐसी बातें सोची जाएं जो जीवन को उजाले से भर दें। इस मामले में, अभी इतने महीने बाद कुछ राहत की खबर आई थी कि अब वायरस का फैलाव कुछ कम हो रहा है, लेकिन फिर डरावनी खबरें आने लगीं कि ब्रिटेन में यह वायरस अपना रूप बदलकर खतरनाक ढंग से फैल रहा है। यह बच्चों के लिए भी आफत है। ब्रिटेन में दोबारा से लॉकडाउन कर दिया गया। क्रिसमस पर भी बाहर न निकलने की अपील की गई। भारत समेत बहुत से देशों ने ब्रिटेन से आने-जाने वाली फ्लाइटस पर रोक लगा दी। कुछ केस भारत में भी आने से चिंता तो बढ़ी है, भला हो डाक्टरों और चैनल्स का कि वे आकर बताने लगे, नयी रोशनी दिखाने लगे कि डरने की कोई जरूरत नहीं है। वायरस हमेशा अपना रूप बदलते हैं। बहुत बार यह अच्छे के लिए भी होता है यानी कि रूप बदलने की इस प्रक्रिया में वे अपनी मारक क्षमता खो देते हैं। यह भी बताया गया कि वायरस के रूप बदलने पर भी इससे मुकाबला करने के लिए जो टीके बनाए गए हैं, वे प्रभावी रहेंगे। इस दौर की यह कोई कम सफलता नहीं है कि दुनिया ने सामूहिक तौर पर इस बीमारी से लड़ने के बारे में सोचा एक–दूसरे की मदद िक लिए हाथ बढ़ाया। सामूहिक प्रयास के नतीजे भी बहुत अच्छे आए। कहीं किसी देश जैसे कि भारत ने बहुत से देशों को वे दवाएं भेजीं जो मांगी गई थीं। कई देशों जैसे पाकिस्तान, तुर्की, ईरान, जर्मनी आदि ने गंतव्य तक जल्दी दवाएं पहुंच सकें, इसके लिए अपनी वायु सीमा के उन रास्तों को भी विदेशी हवाई जहाजों के लिए खोल दिया, जिन पर उड़ने की अनुमति सामान्य दिनों में नहीं होती।
नया साल, नयी उमंग
कोरोना काल में जिस तरह से हमारी गतिविधियां रुक गईं। कहीं आना-जाना, दोस्तों से मिलना, समारोह, उत्सव, घूमना फिरना सब बंद हो गया था उसने काल करे सो आज कर की कहावत को उलटकर आज करे सो कल कर में बदल दिया था। यानी कि जितनी भी गतिविधियां स्थगित हो सकती हैं, बाहर निकलने को टाला जा सकता है, उसी में भलाई है। लेकिन जैसे-जैसे लॉकडाउन खुला तमाम तरह की गतिविधियां पटरी पर लौटने लगीं। अब तो लोगों ने मान लिया है कि जीवन कोरोना के कारण रुकने से नहीं, सावधानियों के साथ तमाम किस्म के कामों को करते रहने से ही चलेगा। इसीलिए इस सदी के इक्कीसवें साल में जो युवा हो रहे हैं, न केवल वे बल्कि बच्चे, प्रौढ़, बुजुर्ग, स्त्री और पुरुष, अपने-अपने तरीके से नये साल के मायने ढूंढ़ सकते हैं। नये रंग और नयी जीवनी शक्ति तलाश सकते हैं। 2020 में करोड़ों युवाओं की नौकरियां चली गईं। वे बड़ी संख्या में डिप्रेशन का शिकार हुए। उऩमें से बहुत से ठीक हुए। डिप्रेशन और अन्य बीमारियों से लड़ने का सबसे कारगर तरीका समय पर दवाएं लेने, योग, व्यायाम, घूमने, फिरने, दोस्तों से बातचीत करने, हर तरह के नशे से तौबा करने और पौष्टिक आहार लेने को बताया गया। देखा जाए तो ये सभी बातें हमारी जीवन शैली से जुड़ी हैं। इन्हें अपनाकर हम एक स्वस्थ और उत्साहपूर्ण जीवन जी सकते हैं। इन बातों के अलावा घर में रहते हुए और भी बहुत कुछ किया जा सकता है। खाने के लिए वे चीजें बनाई जा सकती हैं, जो अच्छी लगती हों, स्वास्थ्य वर्धक भी हों। क्योंकि घर के खाने का कोई जवाब नहीं होता। स्वस्थ रहने के लिए घूमने–फिरने के अलावा लिफ्ट के मुकाबले सीढ़ियों का इस्तेमाल कर सकते हैं। वज़न लेते रह सकते हैं, जिससे कि वजन बढ़ने या घटने का एकाएक पता न चले। उसे नियंत्रण में रखा जा सके। मन पसंद किताबें जो समय न होने के कारण छूटती रहीं, पढ़ी जा सकती हैं। फिल्में भी देखी जा सकती हैं। मन पसंद संगीत सुना जा सकता है। सीखा जा सकता है। आजकल तो सब कुछ सीखने की व्यवस्था ऑनलाइन भी है। घर में थोड़ी सी भी जगह हो तो पौधे लगाए जा सकते हैं। उनकी देखभाल बहुत सुकून देती है। अपने गमले में खिला एक फूल सारी नकारात्मकता को हर लेता है। यही फूल नये वर्ष की रोशनी है। हम सब उम्मीद करें शुभ हो साल 21वां।
प्रेरक तस्वीर : ये हैं लैब तकनीशियन अशफाक अहमद। कोरोना वायरस महमारी के दौरान अपने कारनामे के लिये चर्चा में हैं। वह 30-40 सेकेंड में नमूने ले लेते हैं, रोजाना 200 से अधिक जांच करते हैं और पांच महीने में कम से कम 30,000 नमूनों की जांच कर चुके हैं। अशफाक (42) उन हजारों गुमनाम स्वास्थ्यकर्मियों में शुमार रहे जो, बारिश, धूप और यहां तक कि कुछ स्थानों पर बर्फबारी के बीच नमूने एकत्रित करते फिर रहे हैं। इनकी पत्नी टीबी परामर्शदाता हैं। इस साल 28 जून को अशफाक के 80 वर्षीय पिता और 70 वर्षीय मां को कोरोना संक्रमण होने का पता चला और अशफाक को अनिवार्य पृथक-वास में जाना पड़ा। यह तस्वीर पिछले दिनों की है, जब अशफाक फुर्सत के कुछ पलों में अपने परिवार के साथ रहे। -एजेंसी