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लहलहाती फसलें, दिलों में उमंगें

बैसाखी का पर्व

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बैसाखी सिर्फ किसानों के लिए नई फसल की खुशी का ही पर्व नहीं है, बल्कि यह सौरमंडल की एक खास गति के माहत्म्य का भी केंद्र है। गुरु गोबिंद सिंह द्वारा साल 1699 में खालसा पंथ की स्थापना का दिन भी है। बैसाखी का नाम आते ही एक रंगीन तस्वीर उभरती है—भंगड़ा और गिद्दा की धुनों पर थिरकते लोग। ढोल की धमक माहौल में जोश भर देती है।

आर.सी.शर्मा

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बैसाखी शब्द जुबान पर आते ही जेहन में पांच नदियों वाला गेहूं की फसल से लहलहाता पंजाब,रंग-बिरंगी पोशाकों में सजे पंजाबी युवक-युवतियां ,भंगड़ा और गिद्दा की मस्ती, घूमने लगने लगती है। लेकिन बैसाखी का महत्व यह उल्लास भर नहीं है बल्कि यह सौरमंडल की एक खास गति के माहत्म्य का भी केंद्र है। बैसाखी दरअसल शब्द ‘वैशाखी’ का अपभ्रंश है और यह जिस ‘वैशाख’ शब्द से बना है,उसका मतलब होता है भारतीय कालगणना में सौर मास का प्रथम दिन।

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धार्मिक, सामाजिक व ऐतिहासिक महत्व

भारतीय समाज में बैसाखी का जितना धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व है, उतना ही ऐतिहासिक, आध्यात्मिक और सामाजिक भी है। इसी दिन 13 अप्रैल, 1699 को दशम गुरु, गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। हो सकता है यह अतिश्योक्तिपूर्ण लगे, लेकिन अगर खालसा पंथ की स्थापना नहीं हुई होती तो शायद ही आज हिंदुस्तान हिंदू संस्कृति के प्रभाव बहुल देश होता। यह खालसा पंथ ही है, जिसने धर्म और संस्कृति को सुरक्षित रखने में अपनी अहम भूमिका निभायी है। लेकिन पहले बैसाखी को इसके सबसे लोकप्रिय रूप में देखें। जिसमें उल्लास और आध्यात्मिकता का संगम है। पंजाब के खेतों में जब पकी हुई सुनहरी फसलें हवा के झोंकों के साथ झूमती हैं, तो ऐसा लगता है मानो प्रकृति भी इस उत्सव का स्वागत कर रही हो।

बैसाखी और खालसा पंथ

बैसाखी सिर्फ किसानों के लिए नई फसल की खुशी का ही पर्व नहीं है, बल्कि सिख धर्म के इतिहास में भी यह एक बेहद महत्वपूर्ण दिन है। 13 अप्रैल का यह दिन गुरु गोबिंद सिंह द्वारा 1699 में खालसा पंथ की स्थापना का दिवस भी है। आनंदपुर साहिब में हजारों की भीड़ के सामने उन्होंने पांच प्यारों को अमृत छकाया और धर्म की रक्षा के लिए खालसा पंथ की नींव रखी। यह वह क्षण था जब धर्म की आध्यात्मिक ऊर्जा और बहादुरी एक नए स्वरूप में सामने आयी।

गिद्दा, भंगड़ा और स्वादिष्ट पकवान

बैसाखी का नाम आते ही एक रंगीन तस्वीर उभरती है—भंगड़ा और गिद्दा की धुनों पर थिरकते लोग और मीठी लस्सी के साथ हलवा-पूरियों का आनंद। ढोल की धमक माहौल में जोश भर देती है।

त्योहार का आध्यात्मिक रंग

इस दिन हरमंदिर साहिब यानी स्वर्ण मंदिर में श्रद्धालु विशेष अरदास करते हैं, लंगर छकते हैं। यही नहीं, उत्तर भारत के कई हिस्सों में गंगा स्नान और मंदिरों में भव्य आयोजन होते हैं।

फसल आने की खुशियां

अगर बैसाखी की हम हंसते, गाते, मस्ती में झूमते लोगों के त्योहार के रूप में कल्पना करते हैं तो हमारे जेहन में सबसे पहले और सबसे देर तक पंजाब रहता है। पंजाब और उससे सटे हरियाणा व राजस्थान में बैसाखी रबी की फसल के पकने की खुशी की द्योतक होती है। लोग यहां बैसाखी के दिन जो कि इस बार 13 अप्रैल को है, पवित्र नदियों, सरोवरों में स्नान करके गुरुद्वारे या मंदिरों में जाते हैं। घर में बने नये-नये पकवान खाते हैं। नयी फसल की कुछ बालियां भूनते हैं और उन्हें खाते हैं। इस दिन ये जमकर नाचते भी हैं यानी भांगड़ा करते हैं।

घरों में रोशनी

इस दिन लोग पंजाब और उसके आसपास के प्रांतों में, जहां बैसाखी धूमधाम से मनायी जाती है, लोग अपने घरों की सफाई करते हैं, आंगन में रंगोली बनाते हैं। लाइटिंग करते हैं, खूब सारे पकवान बनते हैं और सुबह-सुबह पवित्र सरोवरों और नदियों में स्नान करके गुरुद्वारों और मंदिरों में मत्था टेकते हैं। इस दिन पूरी दुनिया के गुरुद्वारों में दिनभर गुरुग्रंथ साहब का पाठ होता है। कीर्तन होते हैं। नदियों किनारे मेले लगते हैं और त्योहार की खुशी का आनंद लिया जाता है।

मेले के नजारे

सिर्फ फसलें ही नहीं लहरातीं, बैसाखी में दिल भी मिलते-खिलते हैं। यह वो दिन होता है जब खेतों में लहलहाती फसल की तरह ही कुछ युवा दिलों में भी प्यार के नए अंकुर फूटते हैं। बैसाखी के मेले में गबरू जवान रंग-बिरंगे कुर्ते-पजामे में सज-धजकर निकलते हैं। कुड़ियों का भी अलग ही स्वैग होता है—पटियाला सूट, झुमके, लंबी चोटी और काजल भरी आंखें। बैसाखी का मेला असल में युवाओं से ही जमता है।

गिद्दा के बोलों में शरारत भरा अंदाज

गिद्दा के बोलों से उम्मीदों की डोर बंधती है। “सजणा वे सजणा, तेरा मुड़-मुड़ तकणा!” अब जब कुड़ियां ये गाएंगी, तो मुंडे भी भंगड़े में जवाब देते हैं- ‘ओ होए! तक लेना, पर दिल ना लगाइं!’

बैसाखी मेलों में रोमांस के रंग

बैसाखी के मेले में गन्ने के रस की मिठास जितनी ज़रूरी होती है, उतनी ही ज़रूरी होती है झूले पर बैठी युवतियों के चेहरों की खिलखिलाहट। वहीं कुछ युवाओं द्वारा स्टाइल मारकर मूंछों पर ताव देना। युवतियों का गोलगप्पे खाते-खाते चटखारे लेना—ये बैसाखी का क्लासिक सीन है! साथ ही गुड़ और रेवड़ी खरीदना भी।

फुल ऑन मस्ती

बैसाखी में दोस्त एक साथ ढोल की थाप पर झूम रहे होते हैं तो देखने लायक नजारा होता है। यह त्योहार सिर्फ फसलों की कटाई की खुशी का ही नहीं, बल्कि नई ‘बातचीत’ और ‘खुल के नाचने’ का परफेक्ट मौका भी देता है। तो अगली बार बैसाखी मनाई जाए, तो सिर्फ खेत में आयी नयी फसल की खुशी के साथ दिल में मधुर भावनाएं भी जगाइये!

पर्व का पौराणिक पक्ष भी

इस त्योहार का एक पौराणिक पक्ष भी है। महाभारत के जिस प्रसंग को हम यक्ष-युधिष्ठिर संवाद के रूप में जानते हैं, वह यक्ष युधिष्ठिर संवाद कटासराज ताल में इसी दिन हुआ माना जाता है। इसलिए इस दिन वहां लोग पूजा-अर्चना करने जाते हैं। मगर बैसाखी का त्योहार मूलतः किसानों और उन सब लोगों द्वारा ज्यादा उत्साह से मनाया जाता है जो अपनी अजीविका के लिए धरती से जुड़े होते हैं।

उत्साह-उमंग की लख लख बधाइयां

बैसाखी न केवल उत्साह और उमंग का प्रतीक है, बल्कि हमें यह भी सिखाती है कि मेहनत, भक्ति और साहस का मेल जीवन को सार्थक बनाता है। तो इस बैसाखी पर आप भी पूरे जोश और श्रद्धा के साथ इस पर्व को मनाइए और अपने जीवन में नई ऊर्जा का स्वागत भी कीजिए! बैसाखी दी लख-लख वधाइयां!                                                                                                                                   -इ.रि.सें.

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