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रियल सियासी फिल्म में सितारों का फ्लॉप शो

डीजे नंदन आखि़र 14 बरस के अपने सियासी वनवास के उपरांत फिल्म ‘हीरो नंबर 1’ के एक्टर गोविंदा एक बार फिर चुनावी मौसम में राजनीतिक अखाड़े में कूद गये हैं। लेकिन इस बार वह महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ दल शिव सेना...

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डीजे नंदन

आखि़र 14 बरस के अपने सियासी वनवास के उपरांत फिल्म

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‘हीरो नंबर 1’ के एक्टर गोविंदा एक बार फिर चुनावी मौसम में राजनीतिक अखाड़े में कूद गये हैं। लेकिन इस बार वह महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ दल शिव सेना (शिंदे गुट) के सदस्य बने हैं, जबकि 2004 में जब उन्होंने मुंबई उत्तर लोकसभा सीट से भाजपा के दिग्गज नेता को पराजित किया था, तब वह कांग्रेस के प्रत्याशी थे। इंटरवल के बाद गोविंदा की ‘सियासी फिल्म’ कैसी रहेगी, यह तो समय ही बतायेगा, लेकिन इस सियासी पारी के पहले हाफ़ को तो दर्शकों का प्रतिसाद उस स्तर का नहीं ही मिला।

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दक्षिण की फ़िल्मी हस्तियों की सफलता

बहरहाल, दक्षिण भारत की फ़िल्मी हस्तियों का सियासी सफ़र जहां सफल कहा जा सकता है इन अर्थों में कि उन्होंने अपनी पार्टियां बनायीं, मुख्यमंत्री बने और अपने-अपने राज्यों के सामाजिक व राजनीतिक जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ा व छोड़ रहे हैं। वहीं बॉलीवुड के सितारों के बारे में इतना कहा जा सकता है कि कुछ सियासत में जमे रहे, कुछ मैदान छोड़ गये और अधिकतर हाशिये से भी लुप्त हो गये। एनटी रामाराव (टीडीपी) आदि की तरह हिंदी फिल्मों के किसी भी अभिनेता ने अपनी राजनीतिक पार्टी का गठन करने का साहस नहीं दिखाया है, अधिकतर मामलों में सत्तारूढ़ दल का सदस्य बनकर ही लोकसभा या राज्यसभा में पहुंचे हैं। कोई स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में सामने नहीं आया है कि जनता में उसकी पकड़ का अंदाज़ा लगाया जा सके।

उत्तर के सितारों की सियासी इच्छाएं

दक्षिण के राज्यों में सितारों ने जनता में पकड़ सिद्ध की व अपने दल बनाये लेकिन उत्तर भारतीय अभिनेता ऐसा कुछ नहीं कर सके। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उत्तर व दक्षिण भारत में फ़िल्मी सितारों और जनता के बीच राजनीति के संदर्भ में कैसे रिश्ते हैं। गौरतलब है कि आपातकाल के बाद देवानंद ने एक सियासी पार्टी का गठन किया था, लेकिन उसकी गतिविधि मुंबई के आज़ाद मैदान में एक फ्लॉप जनसभा से आगे नहीं जा सकी थी। अब जब देश में चुनावी माहौल चल रहा है तो अनेक फ़िल्मी सितारों की सियासी इच्छाएं जाग्रत होने लगी हैं। कुछ को राजनीतिक दलों ने अपना लोकसभा प्रत्याशी भी बनाया है। एक दल के समर्थन में कमेंट्स करके कंगना रनौत ने अपने बॉक्स ऑफिस परफॉरमेंस से इतर अपना एक ‘राजनीतिक व्यक्तित्व’ बनाया है। अब बीजेपी ने मंडी, हिमाचल प्रदेश में उन्हें अपना लोकसभा प्रत्याशी बनाया है। गौरतलब है कि कंगना चिराग़ पासवान की पहली फिल्म ‘मिले न मिले हम’ (2011) में उनकी हीरोइन थीं। कुछ फिल्में करने के बाद पासवान भी अब, अपने शब्दों के अनुसार ‘मोदी का हनुमान’ बनकर, बिहार में अपने पिता रामविलास पासवान की राजनीतिक विरासत को बचाये रखने का प्रयास कर रहे हैं।

सियासत में स्टारडम बनाये रखना चुनौतीपूर्ण

17वीं लोकसभा में जो महिला फ़िल्मी हस्तियां सदस्य थीं, उनमें शामिल थीं बीजेपी की हेमा मालिनी, स्मृति ईरानी, किरण खेर व नवनीत कौर और तृणमूल की थीं मिमी, नुसरत, सताब्दी व लॉकेट चैटर्जी। इनके अतिरिक्त एक आजाद सांसद सुमालता भी थीं। मिमी व नुसरत ने दोबारा चुनाव लड़ने से मना कर दिया है। वैसे सियासत को अलविदा कहने वाली सिर्फ़ ये ही स्टार नहीं हैं। दरअसल, स्टारडम की ‘माया’ को सियासत में बनाये रखना चुनौतीपूर्ण होता है, इसलिए बहुत से सितारे जिस तेज़ी से राजनीति में आते हैं, उसी तेज़ी से उल्टे पांव लौट भी जाते हैं। इस संदर्भ में एक बड़ा नाम है- अमिताभ बच्चन। अमिताभ ने 1984 के आम चुनाव में इलाहाबाद में हेमवती नंदन बहुगुणा को पराजित किया था, लेकिन साल 1987 के आते-आते उन्होंने राजनीति के क्षेत्र को यह कहते हुए त्याग दिया, ‘दर्शक एक माया के प्रेम में थे। वह अचानक राजनीति के कठोर सत्य को कैसे हजम कर पाते?’ उनके अनुसार, विचारधारा उनके फैंस को विभाजित कर रही थी।

प्रशंसक खोने का जोखिम

दिलचस्प है कि उनकी पत्नी जया बच्चन, जो स्वयं विख्यात व स्थापित अभिनेत्री हैं, कई कार्यकाल से सपा की ओर से राज्यसभा सदस्य हैं और अपने स्टैंड व भाषणों से लोगों को प्रभावित करती हैं। हेमा मालिनी भी राजनीति में टिकी हुई हैं, जबकि उनके पति धर्मेंद्र एक बार लोकसभा सदस्य बनकर सियासत से किनारा कर गये थे। राजनीति जीवनशैली में परिवर्तन व सहनशीलता की मांग करती है। इसलिए अधिकतर एक्टर दबाव में कुछ देर के लिए तो राजनीति में प्रवेश करते हैं और फिर अपनी ‘गलती’ दोहराते नहीं हैं। हार व सियासी गर्मी सुपरस्टार्स तो छोड़िये, छोटे एक्टर्स से भी बर्दाश्त नहीं होती है। सुपरस्टार के लिए फैन बेस को खोने का खतरा मोल लेना आसान नहीं होता है, जिसकी सच्चाई बैलट बॉक्स पर सामने आ जाती है। क्या दक्षिण के करिश्माई सुपरस्टार्स यह बर्दाश्त कर सकते हैं कि पब्लिक उनकी पार्टी के प्रत्याशी को ठुकरा दे? सुपरस्टार रहे राजेश खन्ना 1991 में एलके आडवाणी से 1,589 वोटों से हार गये थे, फिर 1992 के उपचुनाव में उन्होंने शत्रुघ्न सिन्हा को हराकर लोकसभा में प्रवेश तो किया, लेकिन फिर लड़ने की हिम्मत न कर सके।

राजनीति छोड़ने व टिकने वाले सितारों की फेहरिस्त

उन सितारों की लम्बी सूची है जो सियासत में थोड़ी देर के लिए आये और लौट गये- शिवाजी गणेशन, मौसमी चटर्जी, विक्टर बनर्जी आदि। रामानंद सागर की ‘रामायण’ में रावण की भूमिका करने वाले अरविंद त्रिवेदी तो आरएसएस के कार्यकर्ता थे, फिर भी राजनीति को बाय बाय कह गये। हालांकि गोविंदा फिर सियासत में कूदे हैं, लेकिन जब वह पहले छोड़कर गये थे, तो उन्होंने कहा था कि सुनील दत्त के क़दमों पर क्यों चला जाये, जब अमिताभ बच्चन की मिसाल का पालन किया जा सकता है। 17वीं लोकसभा में रवि किशन ने दस निजी सदस्य विधेयक पेश किये, ओड़िया स्टार अनुभव मोहंती ने तीन और लॉकेट चटर्जी ने दो। लेकिन सांसद बनना संसदीय रिपोर्ट कार्ड से कहीं अधिक बढ़कर है। सनी देओल की उपस्थिति 17वीं लोकसभा में मात्र 17 प्रतिशत रही। वहीं पांच बार के सांसद सुनील दत्त को आज तक उनकी सेवाओं व राजनीतिक कार्य के प्रति समर्पण के लिए याद रखा जाता है। इसी श्रेणी में विनोद खन्ना को भी रखा जा सकता है।हालांकि शत्रुघ्न सिन्हा का कहना है कि जोश में नहीं, होश में राजनीति में शामिल होना चाहिए, लेकिन फ़िलहाल ऐसा लग रहा है कि जिन सितारों का कैरियर पर्दे पर खत्म होने लगता है, वह सियासत में प्रवेश करना चाह रहे होते हैं। यह बात, ज़ाहिर है, बॉलीवुड के लिए है, वर्ना दक्षिण, विशेषकर तमिलनाडु, में तो सिनेमा और राजनीति का चोली दामन का साथ है। अन्नादुरई व करुणानिधि ने सामाजिक न्याय पर फ़िल्मी पटकथाएं लिखीं और सफल राजनीतिक पार्टियां खड़ी कर दीं। -इ.रि.सें.

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