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सोना उगलती है हर चीज सुनारों की

कवर स्टोरी अमिताभ स. लेखक स्तंभकार हैं। पुराने फ़िल्मी गीत ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती... ’ की तर्ज पर कहें, तो सुनारों की दरियां, पायदान, कंबल, नालियां, गलियां और न जाने क्या-क्या सोना उगलती हैं, और इनमें...

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कवर स्टोरी

अमिताभ स.

लेखक स्तंभकार हैं।

पुराने फ़िल्मी गीत ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती... ’ की तर्ज पर कहें, तो सुनारों की दरियां, पायदान, कंबल, नालियां, गलियां और न जाने क्या-क्या सोना उगलती हैं, और इनमें से सालों साल से सोना चुगा जा रहा है। सुनारों-सर्राफों की दुकानों के इर्द-गिर्द गलियों, नालियों और सीवरों से ही नहीं, उनके इस्तेमाल की तमाम चीजों से भारी मात्रा में सोना हाथ लगता है, हालांकि दिखाई नहीं देता। केवल सुनार ही नहीं, अमूमन घरों में गृहिणियां सोने की चूड़ियां, जंजीरें, अंगूठियां वगैरह पहन कर घरेलू कामकाज करती हैं, तो आपस में खनकते- खनकते और शरीर के साथ निरंतर रगड़ने से भी उनका सोना घिस कर बहता रहता है।

दिल्ली, मुम्बई, कोयम्बटूर, मेरठ, लखनऊ, अमृतसर, राजकोट, सूरत, कोलकाता वगैरह देश के हर शहर के सर्राफ़ा बाज़ारों में इस उड़ते सोने को एकत्रित करने वाले पेशेवर कारीगर सक्रिय होते हैं। दिल्ली के ही करोल बाग, चांदनी चौक, कृष्णा नगर, तिलक नगर समेत सभी बाजारों में सुनारों- सर्राफों की हजारों दुकानें और शोरूम हैं। जहां कहीं जूलरी की दुकानों का झुरमुट होता है, उन इलाक़ों में तड़के 4-5 बजे ही कुछ पेशेवर लोग पहुंच जाते हैं। सीवरों के ढक्कन खोल कर भीतर घुस जाते हैं और मलबा निकाल कर प्लास्टिक की बोरियों में भर- भर कर ले जाते हैं। ये लोग साथ में रस्सी, टॉर्च आदि भी लेकर आते हैं। और फिर, शाम छह बजे गलियों में बारीकी से झाड़ू लगाने वाले खुद-ब-खुद पहुंच जाते हैं और पूरी मुस्तैदी से सफाई में जुट जाते हैं। बारीक से बारीक कूड़ा भी इकट्ठा करके ले जाते हैं। दिलचस्प बात तो यह है कि इन मेहनतकशों को नगर निगम या दुकानदार कोई भी पैसे नहीं देते, और न ही ये किसी से मांगते हैं। ये सरकारी मुलाजिम भी हरगिज नहीं हैं। ये ‘न्यारिया’ कहलाते हैं। इनकी पैनी नजर और पकड़ की दाद देनी पड़ेगी, जो मलबे और कूड़े से भी बेशुमार सोना खोज लेते हैं।

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अनुमान है कि दिल्ली में करीब ढाई-तीन हजार न्यारिये हैं। करोल बाग, चांदनी चौक, कृष्णा नगर, नांगलोई वगैरह इनके गढ़ हैं। करोल बाग के 45 वर्षीय न्यारिया मकसूद ने बताया, ‘मैं और मेरे साथी न्यारिये रोजाना सुबह छह बजे करोल बाग के रैगरपुरा और बीडनपुरा की गलियों और सीवरों की सफाई शुरू कर देते हैं। सफाई अभियान करीब 11 बजे तक जारी रहता है। न्यारियों के अड्डे करोल बाग में ही 3-4 जगह हैं। सभी अपने-अपने तसले में मिट्टी से सोना निकालने में जुटे रहते हैं। सोना निकालने के बाद बाकी मलबे को फेंकते नहीं, बल्कि भर-भर कर रखते जाते हैं। इनकी एक बोरी ढाई सौ रुपये में आसानी से बिक जाती है। उसमें से भी सोना निकालने की अलग कारीगरी है। खुर्जा के न्यारिये इस काम में माहिर हैं।’

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उधर मोनू और भप्पी दोनों न्यारिये साझेदारी में काम करते हैं। रहते हैं दिल्ली के सीलमपुर के नजदीक उस्मानपुर में। दोनों नालियों और सीवरों से सोना साफ करते हैं। बकौल मोनू, ‘हम दोनों बीसेक साल से यही काम कर रहे हैं। कभी- कभार तो नालियों और सीवरों से सोने के गहने तक हाथ लग जाते हैं। नगर निगम ने हमेशा हमारे काम को सराहा है, लेकिन कभी पैसे या नौकरी देने की पेशकश नहीं की।’

कूड़े से स्वर्ण निकालने के तौर-तरीके

न्यारियों से बातचीत करने पर पता चला कि वे खुली और सीवर के अंदर की नालियों को लोहे की सलाई से कुरेदते हैं और सारा मलबा जमा करके, थोड़ा-थोड़ा तसले में डाल-डाल कर गंधक के तेजाब से भर देते हैं। सोना समेत सभी धातुएं नीचे बैठती जाती हैं। फिर पारा छुआ कर बारीक-बारीक सोने के बूरे को पकड़ते हैं। चुंबक या मेगनेट जैसे लोहे को खींचता है, वैसे ही सोना पारे पर चिपक जाता है। पारा सोने के साथ-साथ अन्य धातुओं को भी पकड़ता है और आखिर में, शोरे का तेजाब डाल कर, उस पारे में सोने के सिवाय, बाकी सारी धातुओं को गला दिया जाता है। शेष बच जाता है सोना ही सोना। करीब-करीब इसी तौर-तरीके से दरी, कंबल, पायदान वगैरह से भी सोना निकाला जाता है।

करोल बाग के बुजुर्ग सर्राफ कन्हैया लाल वर्मा ने बताया, ‘इसीलिए सुनार अपने कूड़े-करकट को कूड़ा नहीं, बल्कि ‘न्यारा’ कहते हैं। सुनारों की दुकानों में रोजाना सुबह- शाम झाड़ू लगा कर इकट्ठा किया कूड़ा कूड़ेदान में कतई नहीं फेंका जाता। बल्कि एक टब में संभाल कर रखा जाता है। साल में एक-दो बार दिवाली और होली से पहले पेशेवर खरीददार आ कर कूड़े की बोली लगाते हैं और खरीद कर ले जाते हैं। इस कूड़े से काफी सोना हाथ लगता है।

न्यारा और न्यारिये

सुनारों का ‘न्यारा’ खरीदने वाले न्यारिये पेशेवर कारीगर हैं। कूड़े और नालियों की साफ-सफाई कर के सोना निकालना भी बड़ा हुनर है। चूंकि सुनार दरी पर बैठ कर ही गहने बनाते हैं। इसलिए न्यारियों का ध्यान जूलर के गलीचों की बजाय सुनारों की दरियों पर रहता है। सोने के गहने बनाते-बनाते कुछ न कुछ बारीक सोना दरी पर गिरता रहता है। झाड़ने और बारीकी से झाड़ू लगाने जैसी सुनार की लाख कोशिशों के बावजूद वह हाथ नहीं आता और दरी में ही घुस जाता है। सुनारों के अड्डे पर ही आकर न्यारिये पुरानी के बदले नई दरी दे जाते हैं। दरी ही नहीं, सुनारों के पायदान, गद्दी वगैरह भी बदल जाते हैं। कई दफा तो मुफ्त ही नहीं बदलते, ऊपर से 500- 800 रुपये तक दे जाते हैं। सदर बाजार के 60 वर्षीय राजेंद्र कुमार का पुश्तैनी काम सुनारों की दरियां और गद्दियां बदलना ही है। वे ज़ाहिर करते हैं ,’मैंने यह हुनर अपने पिता से सीखा था। मैं 30-35 साल से न्यारिये का काम कर रहा हूं। पहले पूरी दिल्ली में हमारा ही खानदान यह काम करता था। दूसरे शहरों में भी जाते रहे हैं। वैसे, आज दिल्ली में ही दरी बदलने वाले ढाई सौ लोग होंगे।’बताते हैं पुरानी दिल्ली के श्रद्धानंद बाजार में तो बाकायदा मुहल्ला न्यारियान है। आज एक नई दरी करीब 500 रुपये की आती है और काम करने वाले सुनार की छह महीने पुरानी दरी से करीब आधा ग्राम सोना निकल जाता है। आज आधा ग्राम सोना करीब 3 हजार रुपये का है। गहने बनाने की आरी और रेती की कला के कारीगरों की दरियों से ज्यादा सोना निकलता है। यूं समझो कि एक दरी से दो हज़ार रुपये तक।

सुनारों के कंबलों में भी सोना

अकेली दिल्ली में सुनारों के कंबल से सोना निकालने वाले ढाई हजार के आसपास न्यारिये हैं। ज्यादातर सुनार अपने अड्डे पर काम करते हैं और सर्दियों में वहीं कंबल तान कर सो जाते हैं। इसलिए उनके कंबलों पर सोने का चूरा उड़-उड़ कर गिरता रहता है। ज्यादातर सोना तो कंबलों के अंदर ही घुस जाता है। इन्हीं कंबलों की ताक में न्यारिये सुनारों के अड्डों पर चक्कर लगाते रहते हैं। करोल बाग में रिक्शे पर लाद-लाद कर सुनारों की पुरानी दरियां ले जा रहे न्यारिये आलम ने बताया, ‘मैं और मेरा भाई अकरम रोज यहां आते हैं और सुनारों के करीब 50-60 पुरानी दरियां और कंबल अपने घर ले जाते हैं। वहां उन्हें जला कर सोना निकालते हैं। यह हमारा खानदानी पेशा है। हमारे दादा-पड़दादा अमरोहा (हापुड़) से यहां आकर बसे थे। काम ठीक-ठाक है, इसलिए तो खानदानी काम को अपनाए हुए हैं। नए कंबल और दरियां दे कर, पुराने ले जाते हैं। या फिर, मोलभाव करके पुराने कंबल की कीमत अदा कर देते हैं। अंदाज़ा है कि आमतौर पर कंबल जला कर, 10-15 किलो न्यारे में से 10 ग्राम सोना निकल ही जाता है। कंबल, दरी या अन्य कपड़ों से सोना निकलता कैसे है? राजेंद्र कुमार ने बताया, ‘सबसे पहले दरी जला कर राख कर दी जाती है। फिर राख को पानी भरी बाल्टी या टब में डाल देते हैं। थोड़ी देर में सोना नीचे बैठ जाता है। पारा लगाने से सारा सोना पकड़ा जाता है। पारा करीब 10,000 रुपये प्रति किलो है। पारा बचाने का भी तरीका है। सोने के खोट शोरे के तेजाब में डालने से उड़ जाते हैं।’ पानीपत से दिल्ली आने वाले एक न्यारिये जुगल किशोर ने तो कुछ अर्सा पहले इस हद तक बताया कि सुनार काम करने के बाद, अपने हाथ धोने वाले पानी को भी संभाल कर रखते हैं। क्योंकि यह पानी भी बिकता है। रगड़ाई और छिलाई के सुनारों के बारे में कहा जाता है कि एक बार काम पर बैठते हैं, तो शाम को ही उठते हैं। उनके एक बार उठने का मतलब है 500- 800 रुपए के सोने का नुकसान| वजह है कि सोने का बूरा इधर-उधर गिर जाता है। तमाम एहतियात के बावजूद पूरा सोना बटोर पाना मुमकिन नहीं होता।

चूड़ियों से झड़ता ज्यादा सोना

सुनार का सोना ही नहीं, गृहिणियां सोने के गहने पहनने से भी सोना गंवाती रहती हैं। सर्राफ बताते हैं कि सबसे ज्यादा चूड़ियां घिसती हैं। आमतौर पर चूड़ियां दिन- रात लगातार पहनने से डेढ़- दो साल में उनका ऊपरी डिजाइन गायब हो जाता है। सोना घिसने या झड़ने की रफ्तार में चूड़ियों के बाद जंजीर और अंगूठी का नंबर आता है। गायब सोना घिस- घिस कर कूड़े या नाली में बहता जाता है। खोटे के मुकाबले खरा सोना ज्यादा घिसता है। दूसरे शब्दों में, 24 कैरेट सोना एकदम मुलायम होता है। इसमें तांबा- चांदी का मेल मिला कर, 23, 22, 18 और 14 कैरेट बनाते हैं। 23 कैरेट जल्दी और ज्यादा घिसता है।

तो सोना हर जगह है- नाली और गटर में ही नहीं, धरती, सागर, नदी, पेड़, पौधों और मानव शरीर तक में सोने के बारीक कण रहते हैं। वर्ल्ड गोल्ड काउंसिल की किताब ‘गोल्ड प्रिंट’ के मुताबिक, वजह यह है कि इसे न आग जलाती है, न जंग लगता है और न ही यह घुलता है। न्यारियों की बदौलत ही कितना सोना वापस सर्कुलेशन में आ जाता है। वरना सोना कहां से कहां निकल जाता। न्यारिये बताते हैं, ‘कितना सोना निकलेगा, इसका कोई अंदाजा नहीं होता।’

हर घंटे स्टील उत्पादन जितना सोना

आज दुनिया का कुल स्वर्ण भंडार 1,30,000 टन है। इतने स्टील का तो हर घंटे उत्पादन होता है। करीब 17 टन मिट्टी के खनन से केवल एक औंस यानी 31.1 ग्राम सोना हाथ लगता है। सोना धरती की सतह से चार किलोमीटर से भी अधिक नीचे पाया जाता है। वर्ल्ड गोल्ड काउंसिल के आंकड़ों के मुताबिक भारत में करीब 13000 टन सोना है। मोटे तौर पर, 75 फीसदी सोना गहनों में इस्तेमाल किया जाता है। इस तरह देश टनों सोना सोखता जाता है। विश्व सर्राफा बाजार में हर साल 3000 टन सोने का कारोबार होता है। खपत का आधा सोना खानें उगलती हैं। एक चौथाई सोना बैंक अपना गोल्ड स्टॉक बेच कर उपलब्ध कराते हैं। और बाकी एक चौथाई सोना पुराना सोना गला कर काम में लाया जाता है। नालियों, सीवरों, कूड़े, दरियों, कंबलों, गलीचों वगैरह से निकला सोना इसी सोने का एक-चौथाई हिस्सा समझिए।

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