चंदेरी मध्यप्रदेश का वह ऐतिहासिक नगर है, जहां नफासत भरी विश्वप्रसिद्ध चंदेरी साड़ियां, प्राचीन किले, महल, मस्जिदें और किंवदंतियां मिलकर इसकी अनोखी पहचान बनाते हैं। विंध्य पर्वतों के बीच बसा यह नगर अपनी सांस्कृतिक परतों, स्थापत्य सौंदर्य और शांत वातावरण से हर आगंतुक को मोहित करता है।
मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर से लगभग 230 कि.मी. दूरी पर अशोक नगर जिले में स्थित चंदेरी का नाम लेते ही सबसे पहले नाम विश्व प्रसिद्ध चंदेरी साड़ियों का ही आता है। राजा-महाराजाओं की पसंद रहा चंदेरी वस्त्र और राजघराने की महिलाओं द्वारा पहनी जाने वाली चंदेरी साड़ियों की नफासत, सोने के तारों से किया जाने वाला ताना-बाना, वर्षों से धरोहर रहा है। पौराणिक काल में चेदिराज के रूप में विख्यात चंदेरी, वेत्रवती और उर्वशी नदियों नदियों के मध्य में, विंध्याचल के पर्वतों के बीच में बसा हुआ है।
बुंदेलखंड क्षेत्र का है तो यह एक छोटा-सा जिला, लेकिन यहां फैला सुकून, चारों ओर मोहित करने वाली हरियाली और वे संरचनाएं जो हमारे गौरवशाली इतिहास का प्रतीक हैं, आज बेशक अपने वास्तविक स्वरूप में नहीं हैं, फिर भी वे पर्यटकों को अपने वैभव और वास्तुशिल्प के कारण आकर्षित करती हैं। अपने भीतर सांस्कृतिक उत्कर्ष की अनेक परतें समेटे, बाहरी और भीतरी खंडों में विभाजित यह शहर अपने पुरातात्विक अवशेषों की वजह से इसके ऐतिहासिक ताने-बाने के दायरे को जानने के लिए आमंत्रित करता है। एक किंवदंती के अनुसार चंदेरी शहर की स्थापना भगवान कृष्ण के चचेरे भाई, राजा शिशुपाल ने प्रारंभिक वैदिक काल में की थी। एक अन्य किंवदंती के अनुसार इसकी स्थापना राजा चेद ने की थी, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने लगभग 600 ईसा पूर्व इस क्षेत्र पर शासन किया था। हालांकि, गुर्जर-प्रतिहार वंश के राजा कीर्तिपाल ने लगभग 11वीं शताब्दी ईस्वी में अपनी राजधानी पुराने चंदेरी (बूढ़ी चंदेरी) से वर्तमान चंदेरी शहर में स्थानांतरित किया था। यहां 150 हिंदू मंदिर हैं और लगभग 130 मस्जिद। समन्वय को दर्शाते इस शहर में देखने को बहुत कुछ है। कटी घाटी जो मात्र एक फाटक है, इसका प्रवेश द्वार है। यह चंदेरी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है और बुंदेलखंड और मालवा के बीच एक कड़ी का काम करता था।
अनूठी शैली का चंदेरी किला
एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित कीर्ति दुर्ग नामक विशाल चंदेरी किले का निर्माण 11वीं शताब्दी में राजा कीर्तिपाल ने किया था। यह किला विभिन्न सांस्कृतिक और स्थापत्य तत्वों का एक सम्मिश्रण भी है, जो प्रत्येक वह शासक जिसने इसे जीता था, अपने साथ लाया था। अलाउद्दीन खिलजी, बाबर और बुंदेलों ने इसका पुनर्निर्माण किया और अपनी पसंद और शैली की छाप छोड़ी। इस भव्य किले में तीन विशाल दरवाज़ों से प्रवेश किया जाता था, जिनमें से केवल एक ही बचा है, जिसे खूनी दरवाजा कहा जाता है। हालांकि, इसे बुंदेला दरवाजा कहा जाता था, क्योंकि इसका निर्माण बुंदेला राजपूतों ने कराया था, लेकिन इसने इतने रक्तपात देखे कि इसका नाम खूनी दरवाजा पड़ गया। कहा जाता है कि जब बाबर ने किले की घेराबंदी की, तो यह दरवाजा सचमुच खून से नहा गया था।
सामूहिक बलिदान का स्मारक
प्रवेश करते ही बायीं तरफ है जौहर स्मारक, जो 1528 में बाबर के आक्रमण के समय 600 राजपूत महिलाओं के सामूहिक बलिदान की स्मृति में बनाया गया था। उससे थोड़ा आगे चलकर प्रसिद्ध संगीतकार बैजू बावरा की समाधि है। यहां नौखंडा महल है, जिसमें एक केंद्रीय प्रांगण, फव्वारा और टैंक है, जिसे 16वीं शताब्दी में बुंदेला राजा दुर्जन सिंह ने बनवाया था। इसी परिसर में अलाउद्दीन खिलजी द्वारा निर्मित एक मस्जिद भी मौजूद है, जिसमें जटिल पत्थर की नक्काशी है, जिसमें फूलों के डिजाइन और कुरान की आयतें लिखी हैं। यह किला चंदेरी के इतिहास का मूक साक्षी है।
प्रेम प्रतीक शहजादी का रोजा
लक्ष्मण मंदिर के पास, खेतों के बीच स्थित यह मकबरा चंदेरी के गवर्नर की बेटी मेहरुनिस्सा और एक सेनापति के प्रेम का प्रतीक है। इसे 15वीं शताब्दी में गवर्नर ने ही बनवाया था। गवर्नर को उन्हें अलग करने के लिए सेनापति को युद्ध पर भेजा और सैनिकों से कहा कि वह युद्ध से जिंदा वापस न लौटे। यह जान शहजादी ने रोजा रखे। सेनापति बच गया और चंदेरी वापस आ गया। वह घायल था। मेहरुनिस्सा उससे जब मिली तो वह आखिरी सांसें ले रहा था। मेहरुनिस्सा ने भी तभी अपने प्राण त्याग दिए। शहजादी का रोजा नाम इसलिए पड़ा, क्योंकि शहजादी ने रोजे रखे हुए थे। गवर्नर ने यह मकबरा बनवाया। उन्होंने दोनों प्रेमियों को इसी मकबरे में दफनाया। तब वहां चारों ओर पानी था, कहा जाता है कि वह हर शाम नाव से इस मकबरे पर आता था। यह भव्य संरचना 12 फीट ऊंचे चबूतरे पर बनी है। कभी इसके शीर्ष पर स्थित गुंबद अब मौजूद नहीं है। बाहरी अग्रभाग के दो तल छज्जों से अलग हैं। दोनों तलों पर ये छज्जे अतिरिक्त रूप से सर्पाकार ब्रैकेट पर टिके हैं।
बादल महल द्वार
अवशेष एक कहानी सुनाते हैं, यह इस स्थान को देख समझा जा सकता है। इसका निर्माण सुल्तान महमूद शाह खिलजी ने 1450 में करवाया था। संभवतः इसे महल में आने वाले गणमान्य अतिथियों के स्वागत द्वार के रूप में बनवाया गया था। जैसा कि नाम से पता चलता है, यह संभवतः बादल महल या ‘बादलों में महल’ नामक महल का प्रवेश द्वार था। हालांकि, अब ऐसा कोई महल नहीं बचा है। यह किले की दीवारों के भीतर स्थित है और दोनों ओर सुंदर ढंग से सजे बगीचों से होकर यहां पहुंचा जा सकता है। इसमें दो विशाल, पतले बुर्ज हैं जो उनके बीच दो मेहराबों को घेरे हुए हैं। इन दोनों मेहराबों के बीच जेल के आकार के खंड हैं। कभी इन दोनों मेहराबों के बीच कोष्ठकों पर टिका एक छज्जा हुआ करता था।
जामा मस्जिद
बादल महल द्वार से कुछ सौ मीटर की दूरी पर स्थित, जामा मस्जिद तीन गुंबदों वाली एक भव्य इमारत है। इसके प्रवेश द्वार पर विभिन्न ज्यामितीय और पुष्प आकृतियों की नक्काशी है। भीतर एक आंगन उत्तर और दक्षिण दिशा में स्तंभों वाले मठ हैं, जबकि पश्चिम दिशा में प्रार्थना कक्ष है। इस पश्चिमी छोर पर तीन सफेद संगमरमर के गुंबद हैं। एक दिलचस्प विशेषता यह है कि मस्जिद में कोई मीनार नहीं है।
कोशक महल
इसमें प्रवेश करते ही सबसे पहले दोनों ओर बने सुंदर बगीचे ध्यान खींचते हैं। इसका निर्माण मालवा के सुल्तान महमूद शाह खिलजी ने 1445 ई. में जौनपुर के सुल्तान महमूद शर्की पर कालपी के युद्ध में अपनी विजय के उपलक्ष्य में करवाया था। इस महल की खासियत यह है कि इसकी मंजिलों पर तीन अलग शैलियां दिखती हैं, जैसे अफगानी, मालवा और बुंदेलखंडी। कहा जाता है कि इसकी सात मंजिल थीं, लेकिन वर्तमान में सात मंजिलों में से केवल चार ही बची हैं, तीन पूरी तरह से और चौथी मंजिल का एक हिस्सा।

